आत्म संयम की साधना

August 1960

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(स्वामी दिव्यानन्द सरस्वती)

मानव जीवन में संयमशीलता की आवश्यकता को सभी विचारशील व्यक्तियों ने स्वीकार किया है। साँसारिक व्यवहारों एवं सम्बन्धों को परिष्कृत तथा सुसंस्कृत रूप में स्थित रखने के लिए संयम की अत्यन्त आवश्यकता है। संसार के प्रत्येक क्षेत्र में जीवन के प्रत्येक पहलू पर सफलता, विकास एवं उत्थान की ओर अग्रसर होने के लिए संयम की भारी उपयोगिता है। विश्व के महान पुरुषों की जीवनियों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि उन्होंने जीवन में जो भी सफलता, उन्नति, श्रेय, महानता, आत्म कल्याण आदि की प्राप्ति की, उनके कारणों में संयम शीलता की प्रधानता है। संयम के पथ पर अग्रसर होकर ही उन्होंने अपने जीवन को महान बनाया। इसमें कोई संदेह नहीं कि संयम शीलता के पथ पर चल कर ही मनुष्य सही मानव बनता है, देवता बनता है, बनता है जन-जन का प्रिय, जिसके पीछे चलकर मानव जाति धन्य हो जाती है।

अपनी मानसिक वृत्तियों, बुरी आदतों एवं वासनाओं पर काबू पाना ही संयम शीलता के पथ पर अग्रसर होना है जिससे मनुष्य की शक्तियों का व्यर्थ ही ह्रास न होकर केन्द्रीयकरण होने लगता है जो जीवन में एक विशेषता ला देता है जिसके कारण मनुष्य जीवन में क्या से क्या बन जाता है।

अपने विकारों पर नियन्त्रण करने तथा हानिकारक आदतों से छुटकारा पाने के लिए जो चेष्टा जो क्रिया की जाती है उसी का नाम संयम है। किन्तु यह कार्य इतना सरल नहीं है जितना कि केवल इसके अर्थ को समझ लेना। जब इसे क्रिया क्षेत्र में अथवा साधना क्षेत्र में उतारा जाता है तो संयम शीलता का पथ बड़ा कठिन जान पड़ता है। अपनी एक छोटी सी बुरी आदत अथवा मानसिक विकार पर नियन्त्रण कर लेना कितना मुश्किल होता है यह वे लोग अच्छी तरह जानते हैं जो इस पथ पर चलते हैं। जो मानसिक विचार वासनाएँ अथवा बुरी आदतें जितने समय से अपना घर किए होती हैं वे उतनी ही प्रबल और दुर्दमनीय होती हैं। उन्हें पछाड़ देना साहसी एवं शूरवीरों का ही कार्य है। किसी आदत को, वासना अथवा विकार को देख लीजिए, जब वह अपना घर कर लेता है तो उसे निकालना बड़े साहस का काम होता है। उदाहरणार्थ बीड़ी, तम्बाकू या पान का उपयोग करने वाले व्यक्तियों को देख सकते हैं। ये आदतें बड़ी सरलता से अपना घर कर लेती हैं। किन्तु इनका छोड़ना कितना कठिन काम होता है-उनके लिए।

संयम शीलता के उक्त दुर्दम्य पथ पर चलने के लिए, अपने विचारों, आदतों, वासनाओं पर नियंत्रण करने के लिए निम्न बातों का सहारा लेना आवश्यक है।

1. आत्म संयम के पथिकों को प्रतिदिन अपना आत्म निरीक्षण करते रहना अत्यावश्यक है। अपने विचारों तथा कृत्यों के बारे में सदैव सूक्ष्म निरीक्षण करते रहना चाहिए। विचारों तथा कार्यों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। जैसे विचार होंगे वे ही क्रिया रूप में अवश्य परिणत होंगे। इसलिए बुरी विचारधारा से सदैव बचना चाहिए, साथ ही विचारों से किये जाने वाले कृत्यों से दूर रहना आवश्यक है। आत्म निरीक्षण के लिए प्रातः उठते समय एवं सायंकाल को सोते समय अपने दिनभर के कार्यों विचारों का लेखा जोखा लेना चाहिए। सायंकाल को सोने के पूर्व अपने दिनभर के कार्यों एवं विचारों का निरीक्षण करना चाहिए। समय के विरुद्ध जो कार्य विचार आदि किए उनके लिए सच्चे हृदय से प्रायश्चित करना, भविष्य में न करने का संकल्प लेना आवश्यक है। इसी प्रकार प्रातःकाल अपनी पिछली कमियों को ध्यान रखते हुए दिनभर में वे व्यवहार में न आवें इससे सचेत होकर अपनी दिनचर्या को योजना बनानी चाहिए। इस प्रकार प्रतिदिन आत्म निरीक्षण करने से संयम शीलता की और चरित्र गठन की ओर सरलता से बढ़ा जा सकता है। इस प्रकार आत्म निरीक्षण के लिए डायरी बना लेनी चाहिए। इससे अपनी संयम साधना में काफी सहयोग मिलेगा।

2. आत्म संयम के अभिलाषियों के लिए दोषों, बुराइयों को जानबूझ कर छिपाना, उन पर कृत्रिमता का पर्दा डालकर ढक देना अथवा स्वीकार करने में संकोच करना सर्वथा अनुपयुक्त है। चरित्र गठन या आत्म संयम के लिए अपनी बुराइयों को मुक्त कंठ से स्वीकार करना होगा। इसका अभ्यास स्वयं से शुरू करना चाहिए। एकाँत में बैठकर अपने हृदय के समक्ष अपनी बुराइयों, दुष्कृत्यों एवं दुर्विचारों पर विचार करके उन्हें स्वीकार करना होगा।

3. संयम शीलता के लिए नैतिक बल बढ़ाना भी आवश्यक है। ज्यों ज्यों मनुष्य का नैतिक स्तर ऊँचा होता जाएगा त्यों त्यों ही विचारों कार्यों में संयम बढ़ेगा।

4. संयम साधना में संगति एवं स्थान का काफी प्रभाव पड़ता है। दुश्चरित्र एवं दुर्विचारों वाले व्यक्तियों में तथा उन स्थानों में जहाँ असंयम वातावरण व्याप्त होता हैं, संयम साधना में सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती, क्योंकि इनसे अपनी बुरी आदतों दुर्विचारों एवं दुष्कृत्यों को और भी प्रोत्साहन मिलता है। जिसके कारण मनुष्य अपने पवित्र लक्ष्य में असफल हो जाता है। कभी कभी संयोग से अपने इष्ट मित्रों के प्रभाव से या स्वच्छ एवं सात्विक वातावरण में रहकर तथा महापुरुषों का संग करके मनुष्य बड़ी बड़ी खराब आदतों एवं दुर्विचारों को त्याग देता है और जीवन में काफी उन्नति कर जाता है। अतः संयम शीलता की ओर अग्रसर होने के लिए विपरीत संगति, स्थान, वातावरण का त्याग करना होगा।

5. संयम साधना के पथ पर चलना कोई आसान कार्य नहीं है। जब मनुष्य को उसकी बुरी आदतें, दुर्विचार, वासनायें पछाड़ पछाड़ कर पटकती हैं तब अच्छे-2 धैर्यवानों का धैर्य टूट जाता है, निराशा टपकने लगती है और सफलता का भविष्य संदिग्ध दिखाई देता है। असंयम के शैतान से लड़कर उस पर विजय प्राप्त करना कोई आसान कार्य नहीं है। अतः इसके लिए अटूट साहस और धैर्य की आवश्यकता है। धैर्य और साहस के साथ इस ओर निरन्तर प्रयत्न करने पर अवश्य ही संयम साधना पूर्ण होती है और मनुष्य अपने लक्ष्य में सफल हो जाता है। जल्दीबाजी अथवा अधीरता से लक्ष्य तक पहुँचना प्रायः असम्भव ही होता है।

6. किसी भी महान उद्देश्य अथवा पवित्र लक्ष्य की ओर अग्रसर होने के लिए किसी माध्यम अथवा आधार की आवश्यकता होती है। क्योंकि प्रारंभिक स्थिति के साधक में हृदय की दुर्बलता अथवा मानसिक कमजोरी होती है। क्योंकि सभी तो महात्मा नहीं होते। अतः चरित्र गठन अथवा संयम साधना के पथ पर अग्रसर होने के लिए बाह्य क्रिया अथवा अन्य साधना विधि की आवश्यकता पड़े तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इसी तथ्य को समक्ष रखकर भारतीय ऋषियों ने मनुष्य के लिए भिन्न-2 साधना विधियों का निर्धारण करके उन्हें कर्तव्य घोषित किया। अतः जप, ध्यान, धारणा, प्रत्याहार, यम, नियम आदि की साधनायें मनुष्य की संयम शीलता के लिए बहुत महत्वपूर्ण माध्यम हैं। इनके अनुसार अभ्यास करने पर मनुष्य अपने जीवन में संयमशीलता में सफलता प्राप्त करके महान एवं पवित्र जीवन का निर्माण कर सकता है।


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