नवीन सृष्टि की रचना करने वाले इस युग के विश्वामित्र परम पूज्य आचार्यजी महाराज

August 1960

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(पं. देवदत्त शुक्ल बी.ए. एल. एल. बी.)

एक विदेशी कवि का कथन है “महापुरुषों की जीवनियाँ हमें स्मरण कराती हैं कि हम भी अपने जीवन को महान बना सकते है” कवि का कथन सत्य से परिपूर्ण है। गाँधीजी जैसी महान आत्माओं के जीवन चरित्र का अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि उनको महानता के पथ पर अग्रसर करने में महापुरुषों की जीवनियों का कितना महत्वपूर्ण हाथ रहा है। जिन महापुरुषों के विचार और कार्य हमारे अनुकूल होते हैं, जिनका हम हृदय से सम्मान करते हैं, उनकी जीवन घटनाओं की छाप हमारे मस्तिष्क पर पड़ती है। परम पूज्य आचार्यजी गायत्री तपोभूमि के संस्थापक और अखिल भारतीय गायत्री परिवार के कुलपति हैं। साधना क्षेत्र में वह वह बहुत आगे बढ़ चुके हैं। चौबीस चौबीस लक्ष के 24 गायत्री महापुरश्चरण उन्होंने किए हैं। पूर्व काल में सवा करोड़ जप करने वाले को वशिष्ठ की पदवी प्रदान की जाती थी। उनका इतना सम्मान किया जाता था कि वशिष्ठ ही अयोध्यापुरी के राजाओं के राजगुरु हुआ करते थे जिनकी आज्ञा के बिना राज्य में पत्ता भी नहीं हिलता था, उनके पथ प्रदर्शन में ही सब कार्य हुआ करते थे। इसका अर्थ यह है कि सवा करोड़ गायत्री जाप के तप के द्वारा आत्मा इतनी महान बन जाती है कि वह व्यक्ति राष्ट्र के नेतृत्व के योग्य बन जाता है। पूज्य आचार्यजी की साधना वर्षों पहिले से छह करोड़ के लगभग हो चुकी हैं। उनकी महानता की माप वशिष्ठ के आत्म विकास से ही हो सकती है। इस महान तप के कारण ही उन्हें इस युग का विश्वामित्र कहा जाता है। विश्वमित्र के द्वारा नवीन सृष्टि की रचना हुई मानी जाती है। इसका अभिप्राय यह है कि उन्होंने अपने क्रान्तिकारी विचारों द्वारा एक नए समाज का निर्माण किया था। महर्षि वशिष्ठ गायत्री साधना को केवल ब्राह्मणों तक ही सीमित रखना चाहते थे परन्तु विश्वामित्र ने जो कि समस्त विश्व के मित्र, स्नेही और हितैषी थे और प्राणी मात्र में परमात्म तत्व का अनुभव करते थे, इन सीमित अधिकार की दीवारों को तोड़ फोड़ दिया था और महर्षि वशिष्ठ के विचारों के विरुद्ध एक आन्दोलन खड़ा कर दिया था। परम पूज्य आचार्यजी ने भी एक नई सृष्टि की रचना की है, एक नये समाज का निर्माण किया हैं समाज को एक नई मोड़ दी है। उसके लिए वह सदैव स्मरणीय रहेंगे। सैंकड़ों वर्षों से जिस जाति का इतना पतन हो चुका हो कि उसने उन्हें भजन पूजन के अधिकारों से भी वंचित कर रखा हो। ऐसी-ऐसी कपोल कल्पित घोषणाएँ कर दी हों कि कोई स्त्री यदि वेद मन्त्र सुन या पढ़ लेगी या गायत्री जाप कर लेगी तो उसके परिवार में महान अनिष्ट होगा। ऐसे समय में स्त्रियों को गायत्री जप, हवन में भाग लेने का अधिकार देना एक नई सृष्टि की रचना ही है क्योंकि पुराने विश्वासों के अन्धानुकरण करने वाले पंडितों के विरुद्ध इस आवाज को उठाना जिन पर हिन्दू जनता गम्भीर आस्था और श्रद्धा रखती है, अद्भुत साहस का काम है। भारत वर्ष में होने वाले हजारों यज्ञों में जो रुकावटें उन लोगों ने डाली हैं, जनता को इन पवित्र धार्मिक कृत्यों के विरुद्ध उत्तेजित किया, उन्हें हर प्रकार से डराया, धमकाया, शास्त्रों की दुहाई दी परन्तु सत्य के पुजारी के सामने उनकी कुछ न चली। सैकड़ों वर्षों से जहाँ वेद मन्त्रों की आहुतियाँ मन में उच्चारण करते हुए दी जाती थीं, वहाँ अब उच्च ध्वनि सुनाई दे रही है, क्या यह आश्चर्य नहीं है?

गायत्री परिवार के कार्यकर्तागण कोई सेठ साहूकार या बड़े आदमी नहीं हैं परन्तु उनके माध्यम से देश में एक अद्भुत धार्मिक क्रान्ति हो चुकी है। जितने बड़े और सफल आयोजन पिछले पाँच वर्षों में गायत्री परिवार द्वारा हुए हैं, उतने और किसी भी धार्मिक संस्था द्वारा सम्पन्न नहीं हुए हैं। गुरु गोविन्दसिंह ने एक स्थान पर कहा है कि मैं चिड़ियों से बाज मरवाऊंगा अर्थात् छोटे दीखने वाले व्यक्तियों से बड़े बड़े कार्य करवाऊंगा। पूज्य आचार्यजी के सम्बन्ध में भी वही बात सिद्ध होती है, जो यज्ञायोजन बड़े-बड़े महात्माओं के द्वारा ही केवल सम्भव हो सकते हैं। वह कम पढ़े लिखे, कम बुद्धि और सामर्थ्य रखने वाले व्यक्तियों से उन्होंने करवाये हैं। क्या यह कम गौरव की बात है?

आजकल अधार्मिकता नास्तिकता का विशेष प्रभाव नवयुवकों पर पड़ा है। उनके सामने परमात्मा का कोई अस्तित्व नहीं और धर्म केवल ढोंग है और धार्मिक कर्मकाण्डों में अपना समय और शान्ति का व्यर्थ खोना है। गायत्री परिवार के प्रतिज्ञाबद्ध चार लाख से अधिक सदस्यों के नाम व आयु देखने से प्रतीत होता है कि वे अधिकाँश नवयुवक हैं। नवयुवकों को धर्म मार्ग की ओर अग्रसर करना क्या नई सृष्टि की रचना नहीं है।

धर्म प्रचार का उत्तरदायित्व ब्राह्मणों और साधु महात्माओं पर रहा है। आज ब्राह्मणों ने अपने कर्तव्यों को तिलाञ्जलि दे दी है। 56 लाख साधु समाज पर बोझ बन रहे हैं। गृहस्थों का कार्य इनकी आज्ञाओं व उपदेशों का अनुकरण कर अपने जीवन का निर्माण करना था। परन्तु पूज्य आचार्यजी ने उन्हें वह शक्ति ओर सामर्थ्य दे दी है कि वह साधारण गृहस्थ होते हुए, छोटा सा व्यापार व नौकरी करते हुए सन्त महात्माओं और ब्राह्मणों जैसे कार्य योग्यता पूर्वक सम्पन्न कर रहे हैं। साधारण बुद्धि से वह आयोजनों की इतनी उत्तम व्यवस्था कर लेते हैं कि देखने पर आश्चर्य होता है। आवश्यकता पड़ने पर वह अच्छे प्रवचन दे लेते हैं। कर्मकाण्डी पंडितों से

धर्म प्रचार का उत्तरदायित्व ब्राह्मणों और साधु महात्माओं पर रहा है। आज ब्राह्मणों ने अपने कर्तव्यों को तिलाञ्जलि दे दी है। 56 लाख साधु समाज पर बोझ बन रहे हैं। गृहस्थों का कार्य इनकी आज्ञाओं व उपदेशों का अनुकरण कर अपने जीवन का निर्माण करना था। परन्तु पूज्य आचार्यजी ने उन्हें वह शक्ति ओर सामर्थ्य दे दी है कि वह साधारण गृहस्थ होते हुए, छोटा सा व्यापार व नौकरी करते हुए सन्त महात्माओं और ब्राह्मणों जैसे कार्य योग्यता पूर्वक सम्पन्न कर रहे हैं। साधारण बुद्धि से वह आयोजनों की इतनी उत्तम व्यवस्था कर लेते हैं कि देखने पर आश्चर्य होता है। आवश्यकता पड़ने पर वह अच्छे प्रवचन दे लेते हैं। कर्मकाण्डी पंडितों से

कंकड़ पारस एक समान

भक्त नामदेव की पत्नी और भागवत नामक व्यक्ति की पत्नी परस्पर सहेलियाँ थीं। भागवत की स्त्री के पास एक पारस मणि थी, वह उसने नामदेव की स्त्री को देकर कहा- ‘इससे तू अपने काम लायक लोहा सोना बना ले और फिर तुरन्त इसे मुझे लौटा दे। सावधान। किसी को यह बात मालूम न हो।’ नामदेव की पत्नी ने बहुत सा लोहा सोना बना लिया। घर आने पर नामदेव को यह बात मालूम हुई तो उसने पारस ले लिया और चन्द्रभागा में स्नान कर पारस मणि को उसमें डाल दिया। भागवत की पत्नी के मणि माँगने पर नामदेव की पत्नी घाट पर पहुँची तब उसे मालूम हुआ कि मणि चन्द्रभागा में डाल दी गई। घर पहुँच कर उसने अपनी सहेली से सब बात कह दी। सहेली ने अपने पति भागवत से सब बात कही तो वह बड़ा रुष्ट हुआ। उसने यह बात उड़ा दी कि नामदेव ने पारस मणि चुरा ली है और वह उसे माँगने के लिए घाट पर गया। देखते देखते वहाँ भीड़ लग गई। नामदेव ने कहा- ‘मणि चन्द्रभागा के अर्पण कर दी। नहीं मानते तो निकाल कर दिखा दूँ।’ लोग हँसने लगे- ‘बोले, नदी के गर्भ से मणि निकाल लाना संभव नहीं।’ नामदेव ने डुबकी लगाई और कुछ कंकड़ लाकर सामने रख दिये। बोले- ‘लो, एक के बदले अनेक पारस मणि।’ व्यंग करते हुए भागवत ने उन कंकड़ों से लोहा लगाया तो तुरन्त सोना बन गया। उपस्थित व्यक्ति नामदेव की जय जयकार कर उठे।

भक्त नामदेव की पत्नी और भागवत नामक व्यक्ति की पत्नी परस्पर सहेलियाँ थीं। भागवत की स्त्री के पास एक पारस मणि थी, वह उसने नामदेव की स्त्री को देकर कहा- ‘इससे तू अपने काम लायक लोहा सोना बना ले और फिर तुरन्त इसे मुझे लौटा दे। सावधान। किसी को यह बात मालूम न हो।’ नामदेव की पत्नी ने बहुत सा लोहा सोना बना लिया। घर आने पर नामदेव को यह बात मालूम हुई तो उसने पारस ले लिया और चन्द्रभागा में स्नान कर पारस मणि को उसमें डाल दिया। भागवत की पत्नी के मणि माँगने पर नामदेव की पत्नी घाट पर पहुँची तब उसे मालूम हुआ कि मणि चन्द्रभागा में डाल दी गई। घर पहुँच कर उसने अपनी सहेली से सब बात कह दी। सहेली ने अपने पति भागवत से सब बात कही तो वह बड़ा रुष्ट हुआ। उसने यह बात उड़ा दी कि नामदेव ने पारस मणि चुरा ली है और वह उसे माँगने के लिए घाट पर गया। देखते देखते वहाँ भीड़ लग गई। नामदेव ने कहा- ‘मणि चन्द्रभागा के अर्पण कर दी। नहीं मानते तो निकाल कर दिखा दूँ।’ लोग हँसने लगे- ‘बोले, नदी के गर्भ से मणि निकाल लाना संभव नहीं।’ नामदेव ने डुबकी लगाई और कुछ कंकड़ लाकर सामने रख दिये। बोले- ‘लो, एक के बदले अनेक पारस मणि।’ व्यंग करते हुए भागवत ने उन कंकड़ों से लोहा लगाया तो तुरन्त सोना बन गया। उपस्थित व्यक्ति नामदेव की जय जयकार कर उठे।

अच्छे यज्ञ करवा लेते हैं। आजकल नवयुवकों को इस ओर लाना ही कठिन है। उनको साधक बना कर प्रचारक व उपदेशक बनाना तो असम्भव सा ही दीखता है। वे अपने घर नौकरी व व्यापार के कार्यों से समय बचाकर मुहल्ले-मुहल्ले और ग्राम ग्राम घूमते हैं, कड़ी धूप में पैदल चलते हैं, भूख प्यास को सहन करते हैं। अपना धन व्यय करके साहित्य वितरण करते हैं, शाखा स्थापित कराने, यज्ञ कराने, व्यसन छुड़वाने, नये गायत्री उपासक बनाने आदि की प्रतिज्ञाएँ लेकर घी, शक्कर, नमक, एक समय का भोजन आदि त्याग कर, ब्रह्मचर्य पालन, भूमि शयन, बाल न कटवाना आदि के व्रत लेकर समाज कल्याण के लिए आपको अर्पित करते हैँ। क्या यह नई सृष्टि की रचना नहीं है?

पूज्य आचार्यजी का जीवन आश्चर्यों से भरा हुआ है। उन्होंने स्वयं एक पुस्तक में लिखा है कि वेद माता की कृपा से उन्हें थोड़े समय में इतना ज्ञान प्राप्त हुआ है जितना एक साधारण व्यक्ति को 100 वर्षों में प्राप्त होना सम्भव नहीं था। गायत्री तत्व ज्ञान के संबन्ध में जितनी खोज उन्होंने की है, उतनी आज तक किसी ने नहीं की होगी। गायत्री संबंधी रहस्यों का उद्घाटन जितना उन्होंने किया है, उतना अभी तक किसी ने नहीं किया। उनके समान गायत्री साधना और तप करने वाला भी कोई दिखाई नहीं देता। आध्यात्म ज्ञान संबंधी डेढ़ सौ से अधिक पुस्तकें उन्होंने लिखी हैं। 1956 में दस हजार साधकों से 24-24 हजार गायत्री जाप के अनुष्ठान करवा कर 105 कुण्डी यज्ञ करवाया था। पाँच वर्ष के थोड़े से समय में देश के कोने कोने में गायत्री, यज्ञ और भारतीय संस्कृति का प्रसार किया। 3000 गायत्री परिवार की शाखायें स्थापित कराकर उन क्षेत्रों में धार्मिक जागृति की गंगा बहा दी। कलियुग के समय में जब लोग धर्म से चिढ़ते हैं, सवा लक्ष साधकों के सवा सवा लाख के गायत्री अनुष्ठान करवाना, उनसे 52 उपवास करवाना, वर्ष भर तक ब्रह्मचर्य का पालन कराना और उसके पश्चात उनके अनुष्ठान की पूर्णाहुति के रूप में एक हजार कुण्डों का गायत्री महायज्ञ सम्पन्न करना क्या कम चमत्कार की बात है जिसमें जनता से एक पैसा भी नहीं माँगा गया हो। सभी लोग दाँतों तले उँगली दबाकर रह गए। कंस ने जब प्रजा पर अत्याचार आरम्भ किया था और ग्वालों से सब दूध लेना शुरू कर दिया था कि प्रजा का कोई व्यक्ति दूध न पिये। भगवान कृष्ण ने उसके विरोध में आन्दोलन खड़ा किया था और ग्वालों का गठन करके उन्हें कहा था कि तुम केवल अपनी अपनी उँगली लगा दो यह गोवर्धन उठ जायेगा अर्थात् तुम्हारी थोड़ी थोड़ी सहायता से यह आन्दोलन सफल हो जाएगा और हुआ भी ऐसे ही। पूज्य आचार्य जी ने भी इतना बड़ा साहस गायत्री परिवार के छोटी सामर्थ्य वाले साधकों पर किया था कि बड़े आयोजन करने के लिए राजा, महाराजा, सेठों और अमीरों के सहयोग की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने यह सिद्ध करके दिखा दिया कि जिस प्रकार से भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पहाड़ उठाने जैसा बड़ा कार्य ग्वालों की सीमित शक्तियों से कर लिया, उसी प्रकार यह गायत्री सहस्र कुण्डी यज्ञ जिसको सभी ने आश्चर्य की दृष्टि से देखा है, गायत्री परिवार के मतवालों की संगठन शक्ति का फल है। सहस्र कुण्डी यज्ञ के पश्चात अब तक 24 हजार कुण्डों के यज्ञों को सम्पन्न कराके घर घर में भगवान के प्रति आस्था व श्रद्धा उत्पन्न करना उनके महान तप का ही परिणाम है। चारों वेदों का प्रकाशन भी कम गौरव की बात नहीं है। अभी तक किसी संस्था ने प्राचीन भाष्यों के आधार पर वेद प्रकाशित नहीं किये हैं। परम पूज्य आचार्य जी हमारे हृदयों के सम्राट हैं। आध्यात्मिक उन्नति के लिए उन्होंने हमारे लिए एक उत्तम मार्ग प्रशस्त किया है। लुप्त प्रायः गायत्री व यज्ञ विद्या का उन्होंने पुनरुत्थान किया है। गायत्री विद्या एक वर्ग विशेष तक सीमित थी। आज सभी लोग उससे लाभ उठा रहे हैं। उनके पथ प्रदर्शन और सहयोग से लाखों व्यक्तियों ने भौतिक व आध्यात्मिक शुभ परिणाम प्राप्त किए और कर रहे हैं। युग निर्माण के क्रान्तिकारी प्रहरी हैं। तप और त्याग की साक्षात मूर्ति हैं। नम्रता और सरलता उनके स्वभाव में कूट कूट कर भरे हुए हैं। अहंकार उनके पास फटक तक नहीं सकता। संयम के महान आदर्श हैं। उनकी नस नस से परमार्थ और सेवा की भावनाओं का उदय होता है। परम पूज्य आचार्य जी का वरद्हस्त सदैव हमारे ऊपर बना रहे, माता से यही कामना है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118