गायत्री साधना की पृष्ठ भूमि

August 1960

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(पं. श्रीराम शर्मा आचार्य)

यह मानव शरीर सुर दुर्लभ है। 84 लाख योनियों में भ्रमण करने के पश्चात लाखों वर्ष बाद यह प्राप्त होता है। एक बार इसे व्यर्थ गँवा देने के पश्चात लाखों वर्ष बाद ही फिर ऐसा अवसर आने की सम्भावना होती है। इसलिए दूरदर्शी और विवेक शील लोग इन्द्रिय विषयों और तृष्णा जँजाल में फँसकर इस जीवन रूपी बहुमूल्य सम्पत्ति को व्यर्थ नष्ट करने की अपेक्षा आत्म कल्याण की बात ही सोचते हैं और उसी में अपनी भावना एवं शक्ति का अधिकाधिक उपयोग करने का प्रयत्न करते हैं।

शास्त्रकारों ने पग पग पर मनुष्य को यही शिक्षा दी है कि इन अमूल्य क्षणों को बाल क्रीड़ा में-शरीर की गुलामी में बर्बाद न करके अनन्त काल स्थिर रहने वाली सद्गति को उपलब्ध करने में ध्यान दिया जाए। इसी में उसका सच्चा हित, स्वार्थ, लाभ एवं कल्याण सन्निहित हैं।

इस आत्मकल्याण की साधना को योग कहते हैं। योग साधन द्वारा मनुष्य अपना वास्तविक स्वरूप तथा जीवन का लक्ष समझ सकता हैं। परम आत्मा को प्राप्त कर सकता है और जो कुछ इस संसार में प्राप्त करने योग्य है उसे प्राप्त कर सकता है। कहा गया है कि-

आत्मा वा अरे दृष्टव्य श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मको वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्चा विज्ञानेनेद œ सर्वं विदितम।

वृहदारण्यक 2।4।5

आत्मा ही देखने, सुनने, मनन और निदिध्यासन करने योग्य है। हे मैत्रेयी, उसे देखने, सुनने, समझने और अनुभव करने से इस संसार में जो कुछ है वह सब जाना जा सकता है।

अयं तु परमोधर्मो यद्योगेनात्म दर्शनम्।

याज्ञवलक्य

मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म कर्तव्य यही है कि योग के द्वारा आत्मदर्शन करें।

योगाग्नि र्दहति क्षिप्रयशेषं पाप पुञ्रजम्।

प्रसन्नं जायते ज्ञानं ज्ञानाग्नि न्निर्वाण मृच्छति॥

-कर्म पुराण

योग अग्नि में पापों का समूह जल जाता है। तब निर्मल ज्ञान प्राप्त होता है और उससे ब्रह्म निर्वाण मिल जाता है।

योगेन रक्षयते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते।

-विदुर नीति

योग से ही धर्म की रक्षा होती है और योग से विद्या की रक्षा होती है।

द्वाविभौ पुरुषौ लोके सूर्य मण्डल भेदिनौ।

परिव्रां योग युक्तश्च रणेचाभि मुखेहतः॥

दो प्रकार से ही मनुष्य सूर्य मण्डल बेधता हुआ परमपद पास सकता है- एक योग युक्त होकर दूसरे धर्म रक्षा के लिए लड़ता हुआ मरने पर।

तपसा ब्रह्म विजिज्ञासत्व, तपों ब्रह्मेति।

तप ही ब्रह्म है। तप द्वारा ही वह ब्रह्म जाना जाता है।

जीवन में अनेक प्रकार के कष्ट और क्लेश है, उनकी निवृत्ति साधारण उपचारों से नहीं हो सकती। किसी की कृपा एवं सहायता से भी उनकी क्षणिक निवृत्ति ही हो सकती है। दुखों का समूल निवारण योग साधना से ही सम्भव है लिखा है-

दुःसहा राम संसार विष वेग विषूचिका।

योग गारुड़ मंत्रेण पावने नोपशाम्यति॥

हे राम। संसार की विष वेदना सर्पिणी दुःसह है। यह योग रूपी गरुड़ से ही निवृत्त होती है।

न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः।

प्राप्तस्य योगाग्नि मयं शरीरम्॥

श्वेता. 2।12

शरीर के योगाग्नि मय होने पर उसे कोई रोग नहीं होता, बुढ़ापा नहीं आता, मृत्यु भी नहीं होती।

योग साधना का स्वरूप

आत्मकल्याण की योग साधना के वास्तविक स्वरूप से अपरिचित होने के कारण लोग उसे कष्ट साध्य मानते हैं और ऐसा सोचते हैं कि इस मार्ग पर चलने से उनकी लौकिक उन्नति में बाधा पड़ेगी। पर वास्तविकता यह नहीं है। आध्यात्मिकता के मार्ग को अपना कर साधना पथ पर चलने में केवल परलोक एवं परमार्थ ही नहीं सधता वरन् इस लोक में सुख शान्ति के साधन उपलब्ध होते हैं। योग साधना गृहस्थ में रहते हुए भी सुविधा पूर्वक हो सकती है, उसके लिए घर त्याग कर विरक्त भ्रमण करना आवश्यक नहीं। साधना से लोक और परलोक दोनों की सफलता मिलती है और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों ही पदार्थ प्राप्त होते हैं।

साघयेद्या चतुर्वर्गं सैवास्ति ननुसाधना। मनु॰

जिससे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों ही सधते हों वही सच्ची साधना है।

लेकिन आज मनुष्यों में दूरदर्शिता का अभाव हो रहा है, आज थोड़ी कठिनाई उठाकर भविष्य को उज्ज्वल बनाने पर लोग विश्वास नहीं करते। वे इतना ही चाहते हैं कि आज इसी क्षण हमें अधिकाधिक मौज मजा करने का अवसर मिले। इस आतुरता में वे कर्म कुकर्म करते हैं और तुच्छ कार्यों को बहुत महत्वपूर्ण मानकर उन्हीं में उलझे रहते हैं। मनुष्य के इस मूर्खता पूर्ण भुक्कड़पन पर खेद प्रकट करते हुए अष्टावक्र ऋषि कहते हैं-

वुभुक्षुरिह संसारे मुमुक्षुरपि दृश्यते।

भोग मोक्ष निराकाक्षीं विरलो हि महाशयः॥

-अष्टावक्र

इस संसार में भोले लोग बहुत हैं मुमुक्षु भी दिखाई पड़ते हैं। पर योग और मोक्ष की इच्छा छोड़कर परमार्थी लोग संसार में कोई विरले ही दीखते हैं।

योग साधना जो आत्मा का सच्चा कल्याण कर सके गायत्री ही है। इस उपासना से बढ़कर और कोई तप, योग, साधन, ध्यान नहीं हैं। समस्त प्रकार की योग साधनाओं का आधार गायत्री ही मानी गई है।

गायत्र्येव तपो योगः साधनं ध्यान मुच्यते।

सिद्धीनाँ सामता माता नात् किंचिद् वृहत्तरम्॥

गायत्री साधना लोक न कस्यापि कदापि हि।

याति निष्फलता मेतत् ध्रुवं सत्यं हि भूतले।

योगिकानाँ समस्तानाँ साधनानाँ तु वरानने॥

-गायत्री मंजरी

गायत्री ही तप है, योग है, साधना है, ध्यान है, यह ही सिद्धियों की माता मानी गई है। इससे बढ़ कर श्रेष्ठ तत्व इस संसार में और कोई नहीं है। कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती। समस्त योग साधनाओं का आधार गायत्री ही है।

मनोनिग्रह और आत्म संयम

गायत्री द्वारा आत्म कल्याणकारी योग साधना करने के लिए सर्व प्रथम साधक को चरित्रवान बनने की आवश्यकता होती है। अपने अन्दर जो दोष हैं उनको आत्म निरीक्षण के द्वारा पता लगा कर परित्याग करना चाहिये। मन बार बार उनकी ओर फिरे तो प्रायश्चित के दण्ड विधानों द्वारा तथा वैसे अवसर न आने देने की व्यवस्था करके उस पर अंकुश लगाना चाहिए। मन सीधे वश में नहीं आता, वह जन्म−जन्मांतरों से संचित कुसंस्कारों को भी आसानी से नहीं छोड़ता। इसके लिए उससे संग्राम ही करना पड़ता है। इसलिए साधना को एक संग्राम भी कहा गया है। आसुरी और दैवी शक्तियों का जो निरन्तर संग्राम हमारे मनः क्षेत्र में होता रहता है, उसी का दिग्दर्शन गीता में कौरव पाण्डवों के महाभारत युद्ध के रूप में कराया गया है। मन को निर्विषय, शान्त और स्थिर बनाना गायत्री उपासक के लिए आवश्यक है। इसमें सफलता प्राप्त करने के लिए मार्ग दर्शन इस प्रकार मिलता है :-

वन्धाय विषयासंगि मुक्त्यै निर्विषयं मनः।

विष्णु पुराण 6।7।28

विषयों में बन्धन और विषय त्याग देने से मुक्ति है।

यत्र यत्र मनोयाति ब्रह्मणस्तत्र दर्शनम्।

जहाँ जहाँ मन जाए वहाँ वहाँ परमात्मा के दर्शन करे।

दृष्टिं ज्ञान मयीं कृत्वा पश्येद् ब्रह्म मयं जगत्।

दृष्टि को ज्ञान मयी बनाकर सारे संसार को ब्रह्म मय देखना चाहिए।

वितर्क वाधने प्रतिपक्ष भावनाम।

योग दर्शन 2।33

दुर्भावनाएं मन में आने पर उनके विरोधी सद्भावनापूर्ण विचार करके कुविचारों को काटें।

मैत्री करुणामुदितोयेक्षाणाँ सुख दुःख पुण्या पुण्य विषयाणाँ भावनाताश्चित प्रसादम।

गी. सू. 1।33

मैत्री, करुणा, मुदिता, इन चार प्रकार के सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा, पापियों के बारे में चिन्तन करने से चित्त प्रसन्न रहता है।

चित्त की स्थिरता बड़ी चीज है पर वह गायत्री उपासक के लिए सरल भी है। इस मनोनिग्रह के द्वारा महत्वपूर्ण सिद्धियों का द्वार खुलता है :-

आविभूर्त प्रकाशानाम नुपद्रुत चेतसाम।

अतीतानागतज्ञानं प्रत्यक्षान्त विशिष्यते॥

-वाक्य प्रदीप

चित्त जब सत और तम से रहित होकर दीप्तिमान होता है और फिर रज को भी त्याग कर स्थिर हो जाता है तो भूत और भविष्य की प्रत्येक बात स्पष्ट दिखाई देने लगती है।

श्रद्धा और सदाचार की आवश्यकता

चित्त की चंचलता और कुमार्ग गामिता पर जैसे जैसे अंकुश लगता जाता है वैसे वैसे दुष्कर्मों से घृणा होती जाती है बुराइयाँ घटती जाती हैं, पाप छूटते जाते हैं और संयम सदाचार का जीवन बनता जाता है। श्रद्धा बढ़ती है और भ्रम सन्देहों का निवारण होता है। सच्चे ज्ञान का उदय अपने आप होने लगता है और सत्कर्मों में प्रवृत्ति बढ़ जाती है। यही ब्राह्मणत्व है। इस स्थिति के प्राप्त होने से आत्म कल्याण का मार्ग तीव्र गति से प्रशस्त होता है। इस अन्तःस्थिति से भगवान भी प्रभावित होते हैं और साधक की श्रद्धा के अनुरूप उस पर अनुग्रह करने लगते हैं। इस स्थिति का वर्णन इस प्रकार मिलता है :-

श्रद्धामयोऽयं पुरुषः यो यच्छद्ध स एव स।

-गीता

मनुष्य श्रद्धामय है। जिसकी जैसी श्रद्धा है वह वैसा ही है।

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।

ज्ञानं लब्ध्वा पराँ शन्ति मचिरेणाधिगच्छति॥

गीता 4।39

श्रद्धावान, इन्द्रियों को जीतने में तत्पर व्यक्ति सच्चे ज्ञान को प्राप्त करता है और ज्ञान को प्राप्त करते ही तुरन्त परम शान्ति प्राप्त कर लेता है।

समोऽहं सर्वभूतिषु न में द्वेषोऽस्तिन न प्रियः।

ये भजन्ति तु माँ भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥

गीता 9।99

मेरे लिए सभी प्राणी समान हैं। न कोई मुझे प्यारा है, न किसी से द्वेष है। जो जिस भाव से मुझे भजता है मैं उसी रूप में उपस्थित होता हूँ।

भगवान सद्विचारों और सत्कर्मों से प्रभावित एवं प्रसन्न होते हैं। ऐसे सुकर्मी आस्तिक व्यक्ति ही ब्राह्मण माने गए हैं।

शमोदमस्तपः शोचं क्षान्तिरार्जव मेव च।

ज्ञान विज्ञान मास्तिक्यं ब्रह्म कर्म स्वभावजम्॥

शम, दम, तप, पवित्रता, शान्ति, सरलता, ज्ञान, ब्रह्म ज्ञान, आस्तिकता यह ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।

जो व्यक्ति इन पवित्र कर्तव्यों को त्याग देता है, उसका सारा साधन भजन फूटे बर्तन में भरे गये पानी की तरह नष्ट हो जाता है :-

ब्राह्मण समद्दक् शान्तो दीनानाँ समुपेक्षकः।

स्रवते ब्रह्म तस्यापि भिन्न भाण्डात् पयोयथा।

जो ब्राह्मण समदर्शी, शान्ति आदि का बहाना लेकर दीनों की उपेक्षा करता है, सेवा से जी चुराता है, उसका ब्रह्मज्ञान वैसे ही नष्ट हो जाता है जैसे फूटे बर्तन में से पानी टपक जाता है।

साधना मार्ग में संयम और सदाचार का अत्यधिक महत्व है। जो इस पर दृढ़ता पूर्वक आरुढ़ है, वह अधिक कष्ट साध्य साधनाएँ न कर सके, केवल गायत्री माता की साधारण उपासना करता रहे तो भी प्रशंसनीय सफलता प्राप्त कर लेता है।

सावित्री मात्र सारोऽपि वरं विप्र सुयंत्रितः।

मनु. 2-116

संयमी ब्राह्मण गायत्री मात्र जानता हो तो भी वह श्रेष्ठ है।

साधना पथ का मार्ग दर्शन

जो साधना में विधि व्यवस्था का, शास्त्र मर्यादा का ध्यान नहीं रखते, मनमानी चलाते हैं, उनका योग कुयोग बन जाता है और थोड़ा बहुत उन्हें प्राप्त होता है, वह भी इन्द्रिय प्रलोभनों या साँसारिक तुच्छ प्रयोजनों में खर्च हो जाने का खतरा बना रहता है। बहुधा ऐसे उच्छृंखल, नियंत्रण विहीन साधक पथ भ्रष्ट होकर उस उपलब्ध हुई नवोदित शक्ति का दुरुपयोग करते देखे गये हैं। इसलिए साधना काल में सतर्कता और आत्म नियन्त्रण की बड़ी आवश्यकता है।

कुयोगिनो ये विहिताद्यन्तरायैर्मनुष्यभूतौस्त्रिदशी य सृष्टैः।

-भागवत 2

कुयोगी जो विधिपूर्वक आत्म साधना नहीं करते, उन्हें नवोदित शक्तियाँ लुभाकर विषय भोगों में डाल देती हैं।

चित्त की स्थिरता एवं आत्म संयम पर पूरा ध्यान रखते हुए गायत्री उपासक को विधि पूर्वक साधना पथ पर अग्रसर होना चाहिए। गायत्री परा विद्या है, उसकी उपासना एक बहुत ही सुव्यवस्थित विज्ञान है। विज्ञान की शिक्षा को कोई शिक्षार्थी बिना किसी मार्ग दर्शक के अपने आप पूर्ण नहीं कर सकता। जब डाक्टरी, इंजीनियरिंग, रसायन, साइंस आदि साधारण कार्य बिना शिक्षक के नहीं सीखे जा सकते तो फिर आध्यात्म विद्या जैसे महान विज्ञान को अपने आप किसी सक्रिय मार्ग दर्शन के सफलता पूर्वक प्राप्त कर सकना कैसे सम्भव हो सकता है?

यों आत्म कल्याण की सभी साधनाओं में गुरु की आवश्यकता है पर गायत्री उपासना में तो यह आवश्यकता विशेष रूप में है। क्योंकि इस साधना का प्रधान आधार प्राण तत्व है। गायत्री शब्द के अक्षरों में स्पष्ट है कि- गय=प्राण, त्री=त्राण करने वाली अर्थात् प्राणों की रक्षा शक्ति ही गायत्री उपासक को अपने में विशेष प्राण बीज धारण करके आगे बढ़ना होता है और यह प्राण किसी प्राणवान साधना निष्णात गुरु से ही प्राप्त हो सकता है। जिस प्रकार गन्ने के, गुलाब के बीज नहीं होते, उसकी लकड़ी काट कर दूसरी जगह बोई जाती है, उसी प्रकार जिसने कम से कम सवा करोड़ जप किया हो ऐसे परिपक्व साधन वाले अनुभवी गुरु के प्राणों का एक अंश अपनी प्राण भूमिका में बोने से ही नवीन साधक का साधना वृक्ष बढ़ता और फल−फूलों से सुशोभित होता है। दीक्षा गायत्री उपासना का महत्वपूर्ण अंग है। साधना की सफलता चाहने वाले और शास्त्र की महत्ता को स्वीकार करने वालों के लिए तो वह अनिवार्य ही है। देखिए :-

दीक्षा मूलं जपं सर्वं दीक्षा मूलं परं पतः।

दीक्षामाश्रित्य निवसेधत्र कुत्राश्रमे वसन्॥

दीक्षा ही जप का मूल है, दीक्षा ही तप का मूल है। किसी भी साधना में दीक्षा का आश्रय लेकर ही प्रवेश करना चाहिए।

मंत्र विहीनस्य न सिद्धिर्नय सद्गतिः।

तस्यार्त्सव प्रयन्नेन गुरुणा दीक्षितो भवेत्॥

दीक्षा विहीन मन्त्र से सिद्धि प्राप्त नहीं होती इसलिए प्रयत्न पूर्वक गुरुदीक्षा लेनी चाहिए।

तद्विज्ञानार्थ स गुरु मेवामि गच्छेत्।

गुरुमेवाचार्य शम दमादि सम्पन्नभिगच्छेत्॥

शास्त्रज्ञों ऽपि स्वातंत्रेण ब्रह्म ज्ञानयन्वेषणं न कुर्यात।

-मुंडकोपनिषद्

साधना का मार्ग जानने के लिए गुरु की सेवा में उपस्थित होवें। शम, दम आदि सद्गुणों से सम्पन्न गुरु एवं आचार्य के पास जाना चाहिए। स्वयं शास्त्रज्ञ हो तो भी ब्रह्म विद्या की मनमानी साधना न करे।

आज के कृत्रिमता प्रधान युग में नकली चीजों की बाढ़ आ गई है। असली वस्तुओं का मिलना दुर्लभ होता जा रहा है। गुरु भी नकली ही अधिक हैं। जिनने शिष्य के भी गुण प्राप्त नहीं किये वे गुरु बनते हैं। जिनके पास अपनी साधना की पूँजी कुछ भी नहीं है, जिनसे अपना प्राण विकसित नहीं हुआ है, वह दूसरों को क्या प्राण दान देगा। उसकी दीक्षा में शिष्य का क्या हित साधन हो सकेगा? इस कृत्रिमता प्रधान युग में नकली से बचने तथा असली ढूँढ़ने की भारी आवश्यकता है।

गुरवो वहवस्तात शिष्य वित्तापहारकाः।

विरला गुरुवस्ते ये शिष्य सन्तापहारकाः॥

संसार में ऐसे गुरु बहुत हैं जो शिष्य का धन हरण करते हैं पर ऐसे गुरु कोई विरले ही होते हैं जो शिष्य का सन्ताप दूर करें।

गुरु कैसा हो? इसकी कुछ परीक्षाएँ नीचे श्लोक में बताई गई हैं। जो इन परीक्षाओं में खरा उतरे, उसे ही गायत्री उपासक अपना गुरु वरण करके साधना क्रम आगे बढ़ावें।

मातृतः पितृतः शुद्धः शुद्ध भावों जिनेन्द्रियः।

सर्वागमानाँ मर्मज्ञः सर्वशास्त्रार्थ तत्व वित्॥

परोपकार निरतो जप पूजादि तत्परः।

अमोघ वचनः शान्तो वेद वेदार्थ पारगः॥

योग मार्गानुसन्धायी देवताहृदयंगमः।

इत्यादि गुण सम्पन्नो गुरुरागम सम्यतः॥

-शारदा तिलक 2।142-144

जो कुल परम्पराओं से शुद्ध हो, शुद्ध भावनाओं वाला, जितेन्द्रिय, जो शास्त्रों को जानता हो, तत्वज्ञ हो, परोपकार में संलग्न, जप पूजा में परायण, जिसके वचन अमोघ हों, शान्त स्वभाव का, वेद और वेदार्थ का ज्ञाता, योग मार्ग का अनुसंधानकर्ता जिसके देवता हृदयमय हो, ऐसे अनेक गुण जिसमें हों, वही शास्त्र सम्मत गुरु कहा जा सकता है।

मंत्र साधन की विधि व्यवस्था

गुरु मुख से दीक्षा पूर्वक ग्रहण करने पर ही गायत्री की ‘मन्त्र’ संज्ञा होती है। इसके बिना वह साधारण प्रार्थना कही जाती है। जिस प्रकार अपनी दैनिक भाषा में कोई प्रार्थना कहना एक सामान्य बात है उसी प्रकार बिना दीक्षा की गायत्री भी एक साधारण पूजा प्रक्रिया है। गायत्री को मन्त्र रूप में ग्रहण करके उसकी साधना द्वारा आध्यात्म मार्ग पर बढ़ते हुए सच्चे विज्ञान को प्राप्त करना चाहिए। ऐसे मन्त्र योग से ही सिद्धि प्राप्त होती है।

मंत्राभ्यास योगेन ज्ञानं ज्ञानाय कल्पते।

न योगेन बिना मंत्रो न मंत्रेण विनाहीसः॥

द्वयोरभ्यास संयोगो ब्रह्म संसिद्धि कारणम्।

मन्त्राभ्यास और योग साधना से ही ज्ञान, ज्ञान कहा जाता है। न मन्त्र के बिना योग हो सकता है, न बिना योग के मन्त्र साधना हो सकती है। दोनों के सम्मिश्रण से ही सिद्धि प्राप्त होती है।

साधना की सफलता के लिए निम्न सोलह बातों का ध्यान रखना होता है। यह सभी बातें नियमित रूप से विधि पूर्वक करने से सफलता का मार्ग प्रशस्त होगा। इन सभी बातों पर अगले किसी अंक में विस्तृत प्रकाश डालेंगे। 16 स्मरणीय नियम इस प्रकार हैं-

भवन्ति मंत्र योगस्य षोडशांगानि निश्चितम्।

यथा सुधाँशोजयिन्ते कलाः षोडम शोभनाः॥

भक्ति शुद्धिश्चासनंच पञ्चांगस्यापि सेवनम।

आचार धारणे दिव्य देशसेवनमित्यापि॥

प्राण क्रिया तथा मुद्रा तर्पणं हवनं वलिः॥

यागो जयर तथा ध्यानं समाघिश्चोति षोडश॥

चन्द्रमा की सोलह कलाओं की ही तरह मन्त्र योग के भी सोलह सोपान हैं। (1) भक्ति (2) शुद्धि (3) आसन (4) पञ्चाँग सेवन (5) आचार (6) धारण (7) दिव्य देश सेवन (8) प्राण क्रिया (9) मुद्रा (10) तर्पण (11) हवन (12) बलि (13) त्याग (14) जप (15) ध्यान (16) समाधि।

इन सभी के सम्बन्ध में सतर्कता रखी जानी चाहिए पर आहार शुद्धि एवं इष्ट देव का निरन्तर ध्यान यह दो बातें तो अनिवार्य ही हैं। साधक अभक्ष्य कुधान्य से वैसे ही बचे जैसे विष से बचा जाता है। सोते जागते, चलते फिरते हर समय से माता का ध्यान रखना ही शीघ्र सफल बनने का अमोध साधन है।

आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः।

सत्व शुद्धौ धवा स्मृतिः॥

स्मृतिलाभे सर्व ग्रन्थीनाँ विप्र मोक्षः।

-उपनिषद्

अर्थात्-शुद्ध आहार ग्रहण करने से अन्तःकरण शुद्ध होता है। शुद्ध अन्तःकरण से स्मृति (ध्यान) निश्चित होता है और निश्चित ध्यान लगाने से सिद्धि प्राप्त होती है।

लघु साधन और पूर्ण पुरश्चरण

जिनके पास समयाभाव है, स्वल्प श्रद्धा है, उन आरम्भिक साधकों के लिए 9 दिन में 24 हजार का लघु अनुष्ठान बताया गया है। थोड़ी अधिक श्रद्धा बल है, जिनको कुछ अधिक समय लगाने में भी संकोच नहीं है, उन मध्यम स्थिति उपासकों को 40 दिन का सवा लक्ष अनुष्ठान कराया जाता है। पर पूर्ण पुरश्चरण 24 लक्ष का होता है। इस महामन्त्र की शक्ति परीक्षा करनी है तो कम से कम 24 लक्ष का एक पूर्ण पुरश्चरण करना चाहिए। इस सम्बन्ध में शास्त्रों का निर्देश इस प्रकार है-

भूयस्त्वक्षर लक्षं गायत्रीं संयतात्मको जप्त्वा।

-प्रपंच सार

गायत्री के एक एक अक्षर का एक एक लाख के कारण चौबीस लक्ष जप मनोनिग्रह पूर्वक करें।

लभतेऽभियताँ सिद्धिं चतुर्विशति लक्षतः।

-याज्ञवलक्य स्मृति

अर्थात्-चौबीस लाख जप का महापुरश्चरण करने से गायत्री की सिद्धि मिलती है।

साधना ग्रन्थों में ऐसा उल्लेख है कि सतयुग में जबकि वायु मण्डल शुद्ध था और साधकों के शरीर तथा मन सतोगुण से परिपूर्ण थे उस समय 24 लक्ष का पुरश्चरण पूर्ण माना जाता था। पर अब स्थिति बदल गई है। व्यक्तियों के शरीरों में तथा वातावरण में तमोगुण और रजोगुण व्याप्त हैं। स्थिति की शुद्धता अशुद्धता में सैंकड़ों गुना अन्तर आ गया है इसलिए साधना की मात्रा में भी उसी हिसाब से परिवर्तन करना उचित है। मामूली बुखार दो चार दिन दवा खाने से ही ठीक हो जाता है, यदि जीर्ण ज्वर हो तो बहुत दिनों तक दवा लेनी पड़ती है। इसी प्रकार मन कम अशुद्ध हों तो थोड़ी साधना से ही आत्म शक्ति निखर आती है पर दूषणों की अधिकता होने पर देर तक प्रयत्न करने की आवश्यकता होती है।

इसी सिद्धान्त के अनुसार सतयुग में 24 लक्ष पुरश्चरण पूर्ण माना जाता था तो अब इस युग की कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए चौगुना प्रयत्न करना उचित ही है। इसलिए ऐसा उल्लेख है कि 24 लक्ष के 4 पुरश्चरण करना एक पूर्ण पुरश्चरण माना जाए।

कल्पोक्तैव कृते संख्या त्रेतायाँ द्विगुण भवेत्।

द्वापरे त्रिगुण प्रोक्ता कलौ संख्या चतुर्गुणा॥

-वैशम्पायन

अर्थात्-जो जप संख्या शास्त्रों में कही गई है वह सतयुग के विचार से है। त्रेता में उससे दूना, द्वापर में तीन गुना और कलियुग में चार गुना जप करना चाहिये।

षठणवति लक्ष संख्या जपं कलौ पुरश्चरणम्।

-गायत्री पुरश्चरण पद्धति

कलियुग में 96 लाख जप संख्या करने पर एक गायत्री महापुरश्चरण होता है।

कलौचतुर्गणं प्रोक्तं मंत्रानुष्ठान माचरेत्।

कलियुग में मंत्रानुष्ठान चार गुना करना चाहिये।

यदि 24 लक्ष के 4 अनुष्ठान किये जा सकें तो सर्वोत्तम अन्यथा गायत्री शक्ति का प्रत्यक्ष स्वरूप देखने के इच्छुकों को कम से कम एक 24 लक्ष पुरश्चरण विधि पूर्वक करना चाहिए। यों तो जिससे जितना बन पड़े उतना ही उत्तम है। सवा लक्ष और चौबीस हजार के मध्यम तथा लघु अनुष्ठानों का भी अपना अपना महत्व है। ये भी कल्याणकारी ही हैं।

परम कल्याण का मंगलमय मार्ग

गायत्री उपासना में कोई त्रुटि रह जाने से कोई अनिष्ट होने की सम्भावना स्वप्न में भी नहीं रहती। अधिक से अधिक इतनी ही हानि हो सकती है कि लाभ कम मिले। माता अपने पुत्रों का कभी किसी प्रकार का अनिष्ट नहीं करती।

कुर्वन्नापि त्रुटी र्लोके बालको मातरं प्रति।

यथाभवति कश्चिन्न तस्याँ अप्रीति भाजनः।

कुर्वन्नपि त्रुटीर्भक्तः कश्चिद् गायत्र्युपासने।

न तथा फल माप्नोति विपरीर्त कदाचन॥

-गायत्री संहिता

जिस प्रकार संसार में माता के प्रति भूल करने पर भी कोई माता बालक से शत्रुता नहीं करती उसी प्रकार उपासक से कोई भूल हो जाने पर भी गायत्री माता कुपित नहीं होती और न उसका कोई अनिष्ट ही करती है।

जप योग की महिमा अत्यधिक है फिर गायत्री जप तो सर्वोपरि है। उसकी महिमा का तो कहना ही क्या हैं?

जपात् सिद्धि-जपात् सिद्धि, जपात् सिद्धिर्न संशयः।

अर्थात्- जप से ही सिद्धि होती है, जप से ही सिद्धि होती है। जप से ही सिद्धि होती है। इसमें संशय नहीं। तीन बार एक ही वाक्य की पुनरावृत्ति करके शास्त्रकार ने यह बताया है कि जप की महानता कितनी अधिक होती है।

गायत्री को ‘ब्रह्मास्त्र’ कहा गया है। इस हथियार को हाथ में लेकर जीवन संग्राम में अड़ने वाला व्यक्ति कभी नहीं हारता। इस शस्त्र की चोट वह जिस मोर्चे पर करता उसमें उसे विजय ही प्राप्त होती है।

एकं ब्रह्मस्त्र मादाय न्यं गण्यतः क्वचित्।

आस्ते न धीर वीरस्य भंगः संकार केलिषु॥

-खंडन खाद्य

अन्य शस्त्रास्त्र न होने पर भी जो वीर ब्रह्मास्त्र को हाथ में लेकर संग्राम में खड़ा हो जाता है वह विजयी ही होता है, पराजित नहीं।

संसार में जितने भी महामन्त्र हैं उनमें गायत्री को सर्वोपरि माना गया है। मनुष्य ही नहीं देवता भी इसी की उपासना करते हैं और इसी के बल पर अपना देवत्व सुरक्षित रखते हैं। यदि मनुष्य श्रद्धा पूर्वक वेद माता की शरण को अपनाये रहे तो भी अपनी मनुष्यता सुरक्षित रख सकता है।

सप्त कोटि महामन्त्रा गायत्री नायकाः स्मृताः।

आदि देव मुपासन्ते गायत्री वेदमातरम्॥

अर्थात् सप्त कोटि महामन्त्रों में गायत्री सर्वोपरि सेना नायक के समान है। देवता इसी की उपासना करते हैं। वही चारों वेदों की माता हैं।

गायत्री योग साधना का केन्द्र बिंदु हैं। योगेश्वर भगवान शंकर की उपासना तपस्या भी गायत्री द्वारा होती थी।

गायत्री वेद मातास्तिसाद्या शक्तिर्मताभुवि।

जगताँ जननी चैव ताम्रपासेऽहमेंवाहि॥

-गायत्री मंजरी

भगवान शंकर कहते हैं-गायत्री वेद माता है। यही आदि शक्ति कहलाती है। वही विश्व जननी हैं। मैं उसी की उपासना करता हूँ।

माता की अनुकम्पा से साधक क्या प्राप्त कर सकता है? इसकी एक झाँकी देखिए :-

सायमद्यीयान्तो दिवसकृतं पापं नाशयति।

प्रातरद्यीयान्तों रात्रि कृतं पापं नाशयति।

सायं प्रातः प्रयुञ्जानों अपापों भवति।

निशीथे तुरीय संध्यायाँ जप्त्वा वाक् सिद्धिर्भवति। नूतनायाँ प्रतिमायाँ जप्त्वा देवता सान्निध्यं भवति।

प्राण प्रतिष्ठायाँ जप्त्वा प्राणानाँ प्रतिष्ठा भवति। भौमाश्विन्याँ महादेवी सन्निद्यौ जप्त्वा महामृत्युँ।

तरन्ति स महामृत्युँ तरति एवं वेद।

-देव्यथव शीर्ष

सायंकाल उपासना करने वाले के दिन में किए हुए पाप नष्ट होते हैं। प्रातः उपासना करने वाले के रात्रि में किए पाप नष्ट होते हैं। दोनों समय उपासना करने वाला सर्वथा निष्पाप होता है। मध्य रात्रि में तुरीय संध्या करने से वाक् सिद्धि होती है। नई प्रतिमा से देव सान्निध्य प्राप्त होता है। भौमाश्विनी योग में जप करने से महामृत्यु से तर जाता है। जो इस विद्या को जानता है वह मृत्यु से पार होता है। यही अविद्या नाशिनी ब्रह्मविद्या है।

ऐसी महा महिमामयी माता के चरणों में सब प्रकार नत मस्तक होना और शरण में जाना ही हमारे लिये श्रेयस्कर है।

त्वं माते सर्व देवनाँ सर्व सिद्धि प्रदायता।

तेन सत्येन में सिद्धि देहि मातर्नमोस्तुते॥

हे माता। तुम सब देवताओं की सब सिद्धियों को प्रदान करने वाली हो। मुझे भी सिद्धि प्रदान कीजिए, हे माता। आपको प्रणाम है।


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