गान्धी दर्शन पर आधारित एकादश व्रत

April 1960

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(श्री सच्चिदानन्द जी, बी.ए.)

यों तो पुराणों में व्रतों का एक अथाह सिंधु संचित है, किंतु महात्मा गान्धी के संपर्क में आने पर उनमें से बहुतों ने नवीनता का परिधान धारण कर और अधिक गौरवान्वित एवं लोक पूजित हो गये। गान्धी जी के विचार मंथन से निम्नाँकित ‘एकादश व्रत’ राष्ट्र निर्माण की नींव हैं-

अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य असंग्रह,

शरीरश्रम अस्वाद सर्वत्र भय वर्जन।

सर्वधर्म समानत्व स्वदेशी स्पर्श भावना,

नियम व्रत निष्ठा से ये एकादश सेव्य है।

उपरोक्त एकादश व्रतों में प्रारम्भ के दो ‘अहिंसा और सत्य’ संसार में जितने धर्म हैं सबों के दोनों पैर हैं। यही मनुष्य के आदर्श जीवन दर्शन के मूलाधार हैं। भारतीय दर्शन योग शाखा के प्रवर्तक महर्षि पतंजलि के अनुसार सत्य को पहला स्थान मिलना चाहिए किन्तु महात्मा गान्धी ने अहिंसा को पहला तथा सत्य को दूसरा स्थान दिया है। इसमें भी एक दार्शनिक रहस्य है। महर्षि के उपदेशों का लक्ष्य व्यक्ति को असंप्रज्ञात आत्म समाधि का अनुभव कराना था। जहाँ केवल आनन्द है। दुःख का जहाँ पर लेश मात्र भी मिश्रण अथवा चिन्ह नहीं है। गान्धी जी सम्प्रज्ञात समाज समाधि के प्रवर्तक थे। व्यक्ति को अहिंसा के आचरण एवं अन्य अभ्यासों के पुरुषार्थ से समाधिस्थ होकर सत्य का अनुभव कराना था। और समाज सत्य के आचरण और सत्य के चिंतन से अहिंसा की ओर उन्मुख होता है। व्यक्ति सत्य के लिए अहिंसक तथा शान्ति प्रिय समाज की स्थापना के लिए सत्यशील होकर अपने लक्ष्यों की दिशा में अग्रसर होता है। वस्तुतः सत्य और अहिंसा में मतभेद है। मानव जीवन दर्शन एवं समाज दर्शन की युग दृष्टि में ये परस्पर अन्योन्याश्रित हैं।

अहिंसा के स्वरूप का निर्धारण करते समय गान्धी जी ने अपने पूर्वकालिक परिभाषाओं की संकीर्णताओं को तोड़ फेंका है। प्राण हत्या का अर्थ अहिंसा का हलकापन ही प्रगट करता है। गान्धी जी अपनी प्रकृति के अनुसार इस सिद्धान्त की गहरायी में भी उतरे थे। उनका कथन था कि “कुविचार मात्र हिंसा है, मिथ्या भाषण हिंसा है, द्वेष हिंसा है, तथा किसी का बुरा चाहना हिंसा है।” अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण के शब्दों में “आत्मनः प्रतिकुलानि परेवाँ समाचरेत” ही अहिंसा पूर्ण रूप है। संवेगहीनता अंतर्निर्देशनों को न श्रवण कर उनकी अवहेलना कर देना ही सामान्य स्तर पर अहिंसा के रास्ते को छोड़ कर भटक जाना है अहिंसा का बटोही सहिष्णु होता है। बस पास पड़ोस तथा अपनी मित्र मण्डली के आसुरी प्रकृति के वेग को उतारने के लिए चेष्टाशील रहता है। तथा अपने जीवन को नमूना के रूप में समाज को समक्ष रखता है। अगर उस नमूने को देखकर समाज की भीड़ की और से अपशब्दों का पुरस्कार भी पाता है और संतोष एवं अनावेग के लिए यह सोचता है कि अज्ञान में अनेक मनुष्य ईश्वर को भी गाली देते हैं। अहिंसा का यह साधक यह जानता है कि दुष्ट प्रवृत्तियों के नर-नारियों द्वारा उपहास होना ध्रुव निश्चित है। भगवान तथागत बुद्ध ने भी यह स्वीकार किया था कि “इस वसुन्धरा पर कोई ऐसा पुरुष नहीं आया जिसका केवल मान अपमान हुआ हो। मान और अपमान “अहिंसक को भ्रष्ट करने में असमर्थ होते हैं।”

अहिंसा धर्म का मूलाधार है इसलिये कि अहिंसा का सिद्धान्त समाज रूपी शहर की वह बड़ी टंकी है जिसमें पानी की व्यवस्था है। अहिंसा के जल से समाज के प्राणों की तृष्णा बुझाई जाती है। तथा अन्य रूपों में भी शीतलता के लाभ से समाज जीवन की प्रफुल्लता का अनुभव करता है। धर्म उस मान्यता को कहते हैं जिसमें समाज को धारण करने की शक्ति है और यह निर्विवाद सिद्ध है कि अहिंसा ही एक मात्र ऐसा सिद्धान्त है जिसमें समाज के भार को वहन करने का बल है क्योंकि अहिंसा से व्यक्ति की संवृत्तियाँ, सत्प्रवृत्तियां, सद्मान्यतायें एवं आन्तरिक विश्वास अंकुरित होकर एक ऐसे विशुद्ध सामाजिक वातावरण का निर्माण कर देते हैं कि जिसमें सभ्यता और संस्कृति के विकसित होने के सुयोग और संयोग सहज हो जाते हैं। अतः अहिंसा वह ध्वनि है जो मनुष्य के (विकृत और विकास भरे मन और मस्तिष्क से नहीं) शुद्ध अन्तः करण से आती रहती हैं और सच्चा अहिंसक वह है जो दूसरों के प्राणों को अपने प्राणों जैसा मानता हुआ लोक व्यवहार और कर्म में अपने जीवन को व्याप्त रखता है।

अब तक इस बात पर बराबर विवाद होता रहा है कि ईश्वर सत्य है अथवा असत्य है? ईश्वर सत्य अथवा सिद्ध करने के लिये मनुष्य की सीमित मानसिक एवं बौद्धिक शक्ति से जो कुछ पैदा हो सकता था वह किया गया किंतु अथवा असत्य विशेषण संयुक्त ईश्वर नामी वस्तु यथार्थतः है क्या? इसका उत्तर महात्मा गान्धी ने दिया। गान्धी जी ने बताया कि भाई! विवाद बन्द करो। देखो! सत्य ही ईश्वर है। तब से सत्य की परिभाषा परिशोधित होकर मनोविज्ञान विहित एवं आचार प्रधान हो गई क्योंकि लौकिक विशेषणों के आर-पार पारलौकिक सत्ता की कल्पना करना कठिन जान पड़ता था। साथ ही साथ वह हमारे व्यवहार की दुनिया से भी दूर जा पड़ता था। गान्धी जी का जीवन मनुष्य को समाज से दूर जंगल में ले जाकर ईश्वर प्राप्त करना नहीं था। इसलिये उन्होंने ईश्वर को जंगल से लाकर समाज में प्रतिष्ठित किया। ‘सत्य ही ईश्वर है’ इस परिभाषा से हमें यह स्वतः अनुभव होने लगा कि ईश्वर हमारे बीच खड़ा है। अगर हमारी वाणी कर्म और विचारों में अहिंसाव्रत सच्चाई विद्यमान है, तो हमारा अस्तित्व ईश्वर से ओतप्रोत हुआ और इस प्रकार गान्धी जी के इंगित करने पर व्यक्ति एकाकी समाधि से सामाजिक समाधि की ओर आगे बढ़ा। राष्ट्र में नैतिक समानता की भावना जागृत हुई। गान्धी के शब्दों में- “विचार में, वाणी में और आचार में सत्य होना ही सत्य है। इस सत्य को सम्पूर्णतः समझने पर जगत में कुछ और जानना बाकी नहीं रहता।” इसका उत्तर श्री कृष्ण ने दिया है। उन्होंने अर्जुन को कर्म क्षेत्र में नियोजित करते हुये बताया है कि सत्य की प्राप्ति अभ्यास यानी—कर्म वैराग्य—यानी विशेष लगन। गान्धी जी के अनुसार भी सच्चाई के किसी भी कार्य को विशेष लगन से करने पर व्यक्ति ईश्वर को पा सकता है। ईश्वर रूपी सत्य सत्ता से बाहर नहीं है। अपितु समग्रता में अस्तित्व मात्र ही सत्य है और सत्य ही ईश्वर है।

वेद की तरह गान्धी जी के अनुसार भी नैतिक आचारों को मानने वाला व्यक्ति आस्तिक है। गाँधी का ईश्वर विश्वासों के क्षेत्र में “एक नैतिक सत्य” है। इन नैतिक शक्तियों में ही कर्मों के फलों का निश्चय न करने के भाव हैं मनुष्य को पूर्ण सत्य का ज्ञान नहीं होता है। इसे सापेक्ष सभ्यों के ज्ञान के सहारे ही आदर्श की एक एक सीढ़ी पर चढ़ता हुआ सत्यपरता की ओर उन्मुख होता है। इस तरह पूर्ण सत्य का अनुभव ही आत्म जीवन का अन्त है। अष्टाँग योग के व्यक्तिगत मूल्यों को समान में “सत्य ही ईश्वर है” इस मान्यता से उतारा जा सकता है। गान्धी जी का सत्य यथार्थता, मानवता की सीमा में निवास करता है। त्यागमय जीवन से इस सत्य की साधना सहज हो जाती है। भोगमय जीवन गान्धी जी की दृष्टि में इसलिये वाँछनीय नहीं है क्योंकि इससे सत्य का आचरण दुर्लभ हो जाता है ।

एकादश व्रत का तीसरा व्रत अस्तेय है। अस्तेय एक मिथ्या रहित सत्य की भावना है। जो वस्तु हमारे श्रम से अर्जित नहीं है, उसे किसी भी साधन के सहारे अपना लेना स्तेय है। किंतु श्रमार्जित स्वार्थ को ग्रहण करना अस्तेय है। अस्तेय शोषण की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है। बिना किसी परिश्रम के अन्याय द्वारा प्रकाश अथवा अन्धकार में समाज की आँखों के सामने अथवा पीछे अपनायी गयी वस्तु चोरी है और चोरी न करना ही स्तेय व्रत है। इस एक व्रत के पालन में केवल अन्तःकरण ही नहीं शुद्ध हो जाता अपितु सारा मानव समाज आरोग्यपूर्ण हो सकता है । समाज दरिद्रता का बहुत कुछ कारक अस्तेय व्रत को भंग कर देना है। भारतीय प्राचीन संस्कृति के अनुसार दूसरों की वस्तु को बिना उनकी आज्ञा के अपने प्रयोग में ले लेना भी अस्तेय व्रत को भंग कर देना है। वे ‘दूसरे’ अपने भाई बंधु आदि ही क्यों न हों लेकिन आज के साम्यवादी युग में उसकी परिभाषा जरा और अधिक उत्कृष्ट हो गई है। अपनी आवश्यकताओं को सही जानना और उन्हीं की मात्रा में संचय रत रहना ही अस्तेय व्रत का पालन करना है। सर्वोदय के अनुसार आवश्यकता से अधिक अपने पास रखना स्तेय है और उसे समाज को दान कर देना अस्तेय है।

गान्धी जीवन दर्शन के अनुसार सत्य और अहिंसा की खोज में अति व्याप्त रहना ही ब्रह्मचर्य है किंतु यह सामान्यजनों की बात नहीं है। शुद्ध मानस एवं शुद्धाचरण से वीर्य रक्षण के शौर्य नैतिक कर्तव्य को भी हम ब्रह्मचर्य के भीतर गिनते हैं किंतु सूक्ष्म चिंतन से सर्वेंद्रिय संयम ही ब्रह्मचर्य के रूप में आभासित होता है। गान्धी जी उपनिषदों के इस कथन से सहमत हैं कि भोग की इच्छा से ब्रह्मचर्य के व्रत के पालन में नहीं लगा जा सकता सर्वव्यापी प्रेम के लिये ही ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है। जिस समय तक व्यक्ति केवल परिवार अथवा परिवार के सदस्यों में अनुरक्त है तब तक उसका प्रेम सर्वव्यापी नहीं हो सकता और आन्तरिक प्रेम की सर्वव्यापकता ही ब्रह्म विभूति की चर्या है। अपने प्रेम को किसी एक व्यक्ति को सौंप देना ब्रह्मचर्य व्रत को भंग कर देना है। ब्रह्मचर्य व्रत के पालन के लिये अन्तर प्रकृति और बाह्य व्यवहार में एकता का होना आवश्यक है। भगवान श्री कृष्ण के अनुसार मन से स्रडडडडडड रूप का चिंतन करता हुआ शरीर को संयम नियम की फांसी पर चढ़ाये रखना “मिथ्याचरण” है। अतः ब्रह्मचारी वही है जिसने अपने मन को सुसंस्कारों से संस्कृत कर दिया। जिसने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर अपने दुर्जेय मन को भी अधिकृत कर लिया।

ज्ञानतः और विज्ञानतः सब तरह से सूक्ष्म का महत्व स्थूल से अधिक है। उसी तरह ब्रह्मचर्य में भी इसके सूक्ष्म पहलू अधिक महत्वपूर्ण हैं। अतः ब्रह्मचर्य का उद्देश्य शारीरिक स्वास्थ्य के साथ ही मानसिक और आत्मिक स्वास्थ्य की प्राप्ति भी है और इन प्राप्तियों का महत्व शारीरिक स्वास्थ्य से अधिक है क्योंकि इनके अभाव में शारीरिक शक्ति आसुरी कृत्यों में भी अपने को लगा सकती है जिनसे समाज समाधि यानी शान्तिप्रिय सत्यशील समाज की स्थापना नहीं हो सकती । अतः आत्मशक्ति को जागृत करना भी ब्रह्मचर्य का उद्देश्य है।

असंग्रह की चर्चा करते समय आज के विज्ञान विमूढ़ विचारक अपने मन को बहुत कष्ट में पाते हैं। वे असंग्रह व्रत का सम्बन्ध निवृत्ति मार्गों निकम्मे साधुओं के चरित्र से जोड़ देते है। सचमुच ही यह अज्ञानता समाज में बड़ा असंतुलन पैदा कर देती है। असंतुलन का अर्थ अकर्मण्यता नहीं है अपितु आध्यात्म पर आधारित यथार्थ की एक मानवी भावना है। आध्यात्मिकता यह संसार वास्तव में सत्य नहीं है यह व्यवहार में सत्य है। अतः इसकी सभी वस्तुयें नित्य नव नूतन रूप लेती रहती है। इस रूपांतर की क्रिया में फंसा हुआ विश्व अथवा कोई वस्तु अपना कैसे हो सकता है? किसी भी वस्तु पर मनुष्य का शाश्वत संबन्ध नहीं हो सकता। और जब शाश्वत सम्बन्ध अप्राकृतिक एवं अनैसर्गिक है तब संग्रह अथवा परिग्रह का कोई अर्थगत प्रयोजन नहीं दीख पड़ता अतः किसी भी वस्तु में अहंभाव का आरोप अज्ञान है और अहंभाव से प्रेरित होकर किसी भी वस्तु का संग्रह करना एक अज्ञान सिद्ध कर्म है। ज्ञान तो वही है जब हम अपनी वस्तु को अपनी और जो अपनी नहीं है उसे अपनी न मानें। तथा अहंभाव से विवेकच्युत होकर वस्तु संग्रह के लिये उत्कोच, मिथ्याचरण शोषण आदि के रास्ते अपनी ईश्वरीय महनीयता से पूर्ण जीवन को न ले जावें। अतः किसी भी वस्तु में अहं जनित आत्मभाव के प्रतिबिम्ब को न देखना ही असंग्रह व्रत है। यहाँ तक कि शरीर तक को अपना न समझना ही “असंग्रह” व्रत का पालन करना है। अपने शरीर में अहंभाव के शिथिल होने से विषय वासनाओं रूपी गिद्धों के ‘पंख’ कट जाते हैं और मनुष्य का सहज ईश्वरीय जीवन नाना प्रकार के भोग रूपी मगरमच्छों के मुँह में जाने से बच जाता है। यही नहीं सत्य अहिंसा ब्रह्मचर्य और अस्तेय व्रतों के पालन के लिये भी इस व्रत का महत्व अधिक है।

भारत का प्रत्येक हिंदू अथवा हिन्दी भाषी ‘यज्ञ’ शब्द से परिचित है। यज्ञों में आहुति देने के पश्चात् “इदम न मम” कहने की प्रथा है। इस प्रथा अथवा विधान का तात्पर्य केवल यही है कि हे भगवान्! यह हवन सामग्री जो आहुति के रूप में तुझे दे रहा हूँ, “मेरी नहीं है।” अर्थात् अपनी वस्तु को अपना न मानता हुआ व्यक्ति आदान-प्रदान करता हुआ भारतीय आर्य संस्कृति की लपटों को जाज्वल्यमान रखता है। यही असंग्रह व्रत है। इस असंग्रह व्रत का व्यावहारिक तात्पर्य ही यह है कि व्यक्ति अपनी सामग्रियों में अहंभावना न रखे। इस अहंभावना के कारण मानवीय गुणों से पूर्ण दरिद्र अथवा अभावग्रस्त व्यक्ति को नीची नजरों से देखते हुये उससे बचकर चलते देखे जाते हैं। असंग्रह व्रत को समझे तथा उसे अपने जीवन में उतारे बिन मनुष्य मनुष्य से कट जाते हैं, अपरिग्रह दो कटे-कटे रहने वाले मनुष्यों को एक में जोड़ देता है। कर्मयोगियों को असंग्रह व्रत एक ऐसा मार्ग लगा जिससे चलकर सारी मानवता प्रेम के चौराहे पर पहुँच जाय। अपरिग्रही पशुता की केंचुल का परित्याग कर देवत्व की ओर बढ़ चलता।—

(शेष अगले अंक में)


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