ब्रह्मदेव कृत सामूहिक यज्ञ

April 1960

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(श्री योगेशकुमार जोशी ज्योतिषाचार्य मएड्रेला)

आज किसी ग्राम, नगर या जनपद विशेष में ही नहीं किन्तु अखिल भारतीय स्तर पर ग्राम-ग्राम तथा नगर-नगर में लोक कल्याणार्थ सामूहिक गायत्री यज्ञों से प्रसूत सुगन्धित धूम्र वायु मण्डल में व्याप्त होकर, सूक्ष्माकाश को स्वच्छ करता हुआ संसार को मंत्रभूत शुभ संदेश दे रहा है। दुर्भाग्य से इस प्रकार के शुभ कर्मों की पवित्र परम्परा एक लम्बी अवधि तक अवरुद्ध हो गई थी, क्योंकि विगत सहस्रों वर्षों से वैदिक धर्म पर घातक आक्रमण होते आये हैं। उसी का परिणाम है कि जगद्गुरु भारत समुन्नत सभ्यता, सर्वमान्य सँस्कृति और श्लाघनीय धर्म का रूप इतना अधिक विकृत हो गया कि स्वयं भारतवासी ही उसको सन्देह की दृष्टि से देखते हैं। चिरकाल पर्यन्त परतन्त्र रहने के कारण हमारे विचार शनैः शनैः इतने संकुचित हो गये कि हम भगवती श्रुति के अध्ययन और यज्ञ के करने कराने पर भी एक जाति या सम्प्रदाय विशेष पर ही आधिपत्य मानने लग गये। इसी कारण आज धर्म के ठेकेदार बनने वाले कुछ महानुभावों से सुना जाता है सामूहिक यज्ञ द्विजेतर जातियों की उपस्थिति में वैदिक मन्त्रों का उच्चारण, श्रमदान आदि के सहयोग से यज्ञ में सम्मिलित करना ठीक नहीं। पौराणिक वाङ्मय में विभिन्न स्थलों पर इसके स्पष्ट प्रमाण समुपलब्ध होते हैं कि भारत में विश्व कल्याणार्थ सामूहिक यज्ञों की परम्परा सनातन हैं। विधर्मियों के शासनकाल से धीरे-धीरे इस परम-पुनीत-परम्परा का लोप होता आया है, तत्फलस्वरूप एक समय ऐसा आ गया कि विश्व कल्याणार्थ सामूहिक यज्ञों की परम्परा पर भी कुछ व्यक्तियों ने आश्चर्य करना प्रारम्भ कर दिया। पद्म पुराण से उद्धृत एक सामूहिक यज्ञ का वर्णन प्रस्तुत करते हैं। इसके अध्ययन से प्रमाणित होता है कि यह सामूहिक यज्ञ परम्परा नई नहीं है।

स्थान-स्थान पर आज जिन सामूहिक यज्ञों से हम लाभान्वित हो रहे हैं। उन्हीं यज्ञों के प्रेरणा स्रोतों में से एक का वर्णन पढ़ा करते हैं।, प्रसंगवश चर्चा होने पर महामहिम भीष्म जी ने यज्ञ के विषय में महर्षि पुलस्त्य से पूछा- ब्रह्मन्

कथं यज्ञो हि देवेन विभुना तत्र कारितः।

के सदस्या ऋत्विजश्च ब्राह्मणाः के समागताः॥

के भागास्तस्य यज्ञस्य किं द्रव्यं का च दक्षिणा

का वेदी किं प्रमाणं च कृ तं तत्र विरिंचिना॥

ब्रह्माजी ने यज्ञ कैसे किया? ऋत्विज् और ब्राह्मण कौन-2 थे? उस यज्ञ के विभाग क्या-2 थे? द्रव्य और दक्षिणा क्या थी? वेदी कितने प्रमाण की थी? तथा-

कं च कामम् भिघ्या यन्वेधा यज्ञं चकार ह।

हे महर्षि “ब्रह्माजी ने किस कामना के उद्देश्य से यज्ञ किया?”

महामहिम भीष्म जी द्वारा पूछे गये महान प्रश्नों के उत्तर में महर्षि पुलस्त्य उस कारण को बताते हैं जिस कामना से यज्ञ किया गया था। महर्षि कहते हैं-

हितार्थ सुर मर्त्यानाँ लोकानाँ प्रभवाय च।

देवताओं और मनुष्यों के हित के लिए तथा लोक कल्याण के लिए वह यज्ञ ब्रह्माजी ने किया था। वही लोक कल्याण की उद्धत भावना आज भी भारतीयों के हृदयों में व्याप्त है, क्योंकि आदिकाल से ही भारतवर्ष में लोक कल्याणार्थ कार्य के पाठ पढ़ाये जाते रहे हैं।” सामूहिक यज्ञों द्वारा लोक कल्याण” की जो पुनीत परम्परा हमारे पूर्वजों ने स्थापित की थी, उसी का फल है कि इस कलिकाल में भी हमने सहस्र कुण्डी जैसे विशाल यज्ञ के दर्शन किए जिस प्रकार विश्व कल्याणार्थ हुए सहस्र कुण्डी यज्ञ में दूर-दूर से अनेक विद्वान विचारक और संत महात्मा एकत्रित हुए थे और ऋषियों के नाम पर बनाये हुए नगरों में ठहरे थे इसी प्रकार ब्रह्मदेव द्वारा आयोजित उस यज्ञ में लोक कल्याण की भावना से अनेक ऋषि मुनि आदि एकत्रित हुए थे।

ब्रह्माथ कपिल श्चैव परमेष्ठी तथैव च।

देवाः सर्प्तषयश्चैव त्र्यंबकश्च महायशाः॥

सनत्कुमार श्च महानुभावो,

मनु र्महात्मा भगवान्प्रजा पतिः।

पुराण देवोऽथ तथा प्रचक्रे,

प्रदीप्त वैश्वानर तुल्य तेजाः॥

कपिलजी, अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप, गौतम, भारद्वाज विश्वामित्र और जमदग्नि आदि सप्तऋषि, त्र्यम्बक, सनत्कुमार आदि महानुभाव महात्मा मनु, प्रजापति तथा प्रतीत वैश्वानर तुल्य तेज युक्त पुराण पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु आदि भी उस यज्ञ में पधारे थे।

शुभ कार्यों में आसुरी शक्तियों के प्रकोप की अत्यधिक सम्भावना रहती है, परन्तु भगवान भक्तों की श्रद्धा की परीक्षा करने के उपरान्त उसकी रक्षा का भार अपने जिम्मे ले लेते हैं।

ब्रह्मदेव कृत यज्ञ के प्रतिरक्षणार्थ ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु से अत्यन्त विनम्र शब्दों में प्रणाम पूर्वक निवेदन किया-

उत्फुल्लामल पद्माक्ष शत्रु पक्ष क्षयावह।

यथा यज्ञेन मेघ्वंसो दानवैश्च विधीयते॥

तथा त्वया विधातव्यं प्रणतस्य नमोऽस्तुते॥

हे पद्माक्ष ! शत्रु पक्ष क्ष्यावह! कृपया आप ऐसा कोई प्रबंध करिए जिससे यज्ञ की दानवों से रक्षा हो सके।” इतना सुनते ही भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी को आश्वासन देते हुए कहा-

भयं त्यजस्व देवेश क्षयं नेष्यामि दानवान्।

ये चान्ये विघ्न कर्तारो यातु घानास्तथा सुराः॥

घातयिष्याम्यहं सर्वान्स्वस्ति ते स्तुपितामह।

देवेश! आप निर्भय रहें। मैं दानवों को नष्ट कर दूंगा। पितामह! यातु, धानादि अन्य असुर जो विघ्नकर्ता है उनको भी समाप्त कर दूँगा आप निश्चिन्त रहें।” इस प्रकार आसुरी शक्तियों के आक्रमण की प्रति रक्षा का भार स्वयं भगवान ने ले लिया और सहायतार्थ वहीं स्थित हो गये। मथुरा महायज्ञ में भी असुरों ने कम उपद्रव नहीं किये थे पर भगवान ने उन सब का संरक्षण किया।

जिस प्रकार विभिन्न समाजों और संप्रदायों के लाखों व्यक्ति, मथुरा में इस युग के अपूर्व सहस्रकुंडी यज्ञ के दर्शनों के लिए एकत्रित हुए थे उसी प्रकार के, दानव गंधर्व आदि अनेक जातियों वाले दर्शनार्थी, ब्रह्मदेव कृत उस यज्ञ के दर्शनार्थ वहाँ एकत्रित हुए थे-

ततो देवाः समायाता दानवा राक्षसैस्सह।

भूत प्रेत पिशाचाश्च सर्वेतत्रागताः क्रमात्॥

गन्धर्वा प्सरश्चैव मुनयो वेद पारगः।

ऋषयो ब्रर्ह्मष यश्चैव द्विजा देवर्ष यस्तथा

देव, दानव, राक्षस, भूत, प्रेत, पिशाच, अप्सरा गण, नाग, विद्याधर गण, वनस्पति, औषधि, यज्ञ पर्वत आदि सभी उस यज्ञ में एकत्रित हुए थे।

वह महायज्ञ किसी व्यक्ति या समाज विशेष के लिए न होकर, सकल, चराचर के कल्याण के लिए था। इसी लिए सभी ने उसमें स्वेच्छया अपना-अपना यथोचित सहयोग प्रदान किया था। मथुरा यज्ञ भी सभी के सहयोग से सम्पन्न हुआ।

स्वयं च वरुणो रत्नं दक्षश्चान्नं स्वयं ददौ

उस यज्ञ में स्वयं वरुण ने रत्न दिये तथा दक्ष ने अन्न दिया।

अन्न पाचन कृत्सोमोमतिदाता बृहस्पतिः।

अन्न पाचन का कार्य चन्द्रमा ने एवं सलाहकार का कार्य देव गुरु बृहस्पति ने किया।

धन दानं धनाघ्यक्षो वस्त्राणि विविधानि च।

विविध प्रकार के वस्त्रों और धन का दान धनाध्यक्ष कुबेर ने किया।

विश्व कर्माणमाहूय ब्रह्मणः शीर्ष मुएडनम्।

विश्वकर्मा को बुलाकर और कर्म कराया गया।

विभिन्न विभागों के अध्यक्षों की नियुक्तियाँ इस प्रकार की गई।

द्वाराध्यक्षं तथा शक्रं वरु णं रसदायकम्।

वित्त प्रदं वैश्रवणं पवनं गंध दायिनम्॥

उद्योत कारिणं सूर्यं प्रभुत्वे माधवः स्थितः।

द्वाराध्यक्ष- इन्द्र, रसाध्यक्ष जलादि पेय पदार्थों के वितरक वरुण, कोषाध्यक्ष- कुबेर, सुगन्ध आदि स्वच्छिकरण वस्तुओं के अध्यक्ष- वायु, प्रकाशाध्यक्ष सूर्य तथा सर्वाधिकारी पद पर भगवान विष्णु को नियुक्त किया गया।

विभागाध्यक्षों की नियुक्तियों के पश्चात् सभी ने अपने-2 आसन ग्रहण कर लिए। यथा देवताओं के समीप ही ऋषियों के आसन थे। ब्रह्माजी के दक्षिण पार्श्व में सनातन विष्णु का स्थान था तथा ब्रह्माजी के वाम पार्श्व में पिनाकी भगवान शंकर विराजमान थे। जब सबने अपने-2 स्थान ग्रहण कर लिए तब ऋत्विजों का वरण किया गया।

ब्रह्मणा पूजिताः सर्वे प्रणि पात पुरः सरम्।

अनुगृह्यो भवद्भिस्तु सर्वे रस्मिन क्रताविह

ब्रह्माजी ने सबको प्रणाम कर उनकी पूजा की और कहा कि आप लोगों ने इस यज्ञ में पधारने की कृपा की है इसके लिए मैं आपसे अनुगृहीत हूँ।

देवताओं की तरह चारों वर्णों ने भी निज-निज योग्यतानुसार, विश्व कल्याण के लिए आयोजित उस सामूहिक महायज्ञ में सहयोग दिया था- ब्राह्मणों ने वेद ध्वनि की। क्षत्रियों ने सायुध स्थित होकर प्रतिरक्षा के उत्तरदायित्व में सहयोग दिया। वैश्यों ने विविध प्रकार के सरस व्यंजन आदि के माध्यम से अपना सहयोग दिया। वैश्यों द्वारा कृत कार्य तो इतना अपूर्व और प्रागदृष्ट था कि सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर उनका नाम करण ही “प्राँग्वाट” कर दिया-

जश्रुतं प्रागदृष्टं च दृष्ट्वा तुष्ठः प्रजापतिः

प्रागवाटेति ददौ नाम वैश्यानाँ सृष्टि कृ द्विभुः॥

शुद्र वर्ण ने भी आवश्यक सहयोग देकर अन्य वर्णों के समान पुण्य फल प्राप्त किया था।

उपर्युक्त उद्धरण से यह सिद्ध होता है कि वहाँ “शूद्र” भी उपस्थित थे। और उन्हीं की उपस्थिति में-

महर्षयो वीत शोका वेदानुच्चै वाचयन्।

“वीत शोक महर्षियों ने वेदों को उच्च स्वर से पढ़ा। और वह उच्च स्वर भी इतना अधिक शक्ति सम्पन्न था कि उसका प्रसारण तीनों लोकों में हो गया- तीनों लोकों में स्वर का प्रसारण अलंकारिक हो सकता है किन्तु इसमें कोई अलंकारिता दृष्टिगोचर नहीं होती है कि वेद मन्त्रों का उच्चारण उस स्वर से किया गया।

ब्रह्मघोषेणते विप्रा नाद्यन्तस्त्रि विष्टपम्।

जब वह वेद ध्वनि तीनों लोकों में व्याप्त हो गई तो इसमें कोई सन्देह नहीं है कि वहाँ पर स्थिति शूद्रों ने उसे सुना हो। अर्थात् शूद्रों ने भी वह वेद ध्वनि अवश्य सुनी। इससे सिद्ध होता है कि “ उस स्वर से वेद मन्त्रों का उच्चारण करना, वह भी शूद्रों की उपस्थिति में, यदि शास्त्र विरुद्ध होता तो ब्रह्मदेव द्वारा कृत उस यज्ञ में धर्म शास्त्रों के रचयिता यह कार्य (शूद्रों की उपस्थिति में उच्च स्वर से मन्त्रोच्चारण) कदापि न करते। वहाँ सप्तर्षि आदि सभी ऋषि महर्षि उपस्थित थे, यदि किसी के भी मत में उक्त कार्य अनुचित होता तो उसके विरोध का विवरण भी इस यज्ञ वर्णन में मिलता।

विश्व कल्याण की भावना से अभिप्रेरित होकर अन्य वर्णों की तरह द्विजेतर जातियों ने भी अपना-अपना सहयोग दिया था। यज्ञ प्रबन्धकों ने भी उनका सहयोग आवश्यकतानुसार सहर्ष अंगीकार किया था। तथा उनकी उपस्थिति में ही उच्च स्वर से वेदोच्चारण किया था। द्विजेतर जातियों की उपस्थिति में मंत्रोच्चारण की परम्परा प्रातः स्मरणीय ऋषि-महर्षियों द्वारा ही स्थापित की हुई है। यह गायत्री परिवार को कोई अभिनव प्रयोग नहीं है। यह परम्परा ऋषि-मुनियों द्वारा स्थापित होने के कारण शास्त्रीय है और शास्त्रीय होने के कारण महान है।

ब्रह्माजी द्वारा कृत उस महायज्ञ का कार्य प्रारम्भ होने की बेला सन्निकट आ गई किन्तु तब-तक भी जब ब्रह्माजी की पत्नि सावित्री यज्ञ मण्डप में नहीं पहुँची तो-

सु सत्कृता च पत्नी सा सावित्री च वराँगना।

अर्ध्वयुणा समाहूता एहि देवि त्वरा न्विता॥

सम्यक् प्रकार से सजी हुई सावित्री को अध्वर्यु पुलस्त्य ने बुलाया” देवि यहाँ शीघ्र आओ।” किन्तु

व्यग्रा सा कार्य करणे स्त्री स्वभावेन नागता।

स्त्री स्वभाव से गृह कार्य में व्यग्रा वह सावित्री नहीं आई। गृह कार्यों में व्यस्त रहने के कारण सावित्री न आ सकी. यह मुख्य कारण नहीं था। उसके न आने का मुख्य कारण था अपनी सहेलियों की प्रतीक्षा करना। सावित्री को प्रतीक्षाकाल में भी निःचेष्ट रहना अनुचित प्रतीत हुआ अतः उसने गृह कार्य करना ही प्रारम्भ कर दिया। और पुलस्त्य जी के बुलाने पर उसने कहा-

लक्ष्मी रद्यापिना याता पत्नी नारायणस्य या।

अग्नेः पत्नी तथा स्वाहा धूम्रोर्णातु यमस्यतुः॥

वारुणी वै तथा गौरी वायोर्वे सुप्रभात था।

ऋद्धि र्वे श्रवणी भार्या शम्भो गौंरी जगत्प्रिया॥

मेधा श्रद्धा विभूतिश्च अनसूया घृतिःक्षमा।

गंगा सरस्वती चैव नाद्या याताश्च कन्यका॥

इन्द्राणी चन्द्र पत्नीतु रोहिणी शशिनः प्रिया।

अरु न्धती वसिष्ठस्य सप्तर्षीणाँ च याः स्त्रियः॥

अनसूया त्रिपत्नी च तथान्याः प्रमदा इह।

वध्वो दुहितरश्चैवसख्यो भगिनि कास्तथा॥

नाहमेकाकिनी यास्ये यावन्ना याँ तिताः स्त्रियः।

ब्रूहि गत्वा विरं चिंतु तिष्ठता वन्मुहूर्तकम्॥

नारायण की पत्नी धूम्रोणाँ अभी तक नहीं आई हैं। वरुणी, गौरी, सुप्रभा, ऋद्धि, वैश्रवणी, मेघा श्रद्धा विभूति, अनसूया, धृति, क्षमा, गंगा, सरस्वती, भी अभी तक नहीं आई। मैं अकेली नहीं आऊंगी, अतः आप जाकर ब्रह्माजी से कह दें कि कुछ देर ठहरें।

ऐसा सुनकर पुलस्त्य जी ने ब्रह्माजी से कहा-

सावित्री व्याकुला देव प्रसक्त गृह कर्मणि।

सख्योनाम्यागता यावत्ता वन्ना गमनं मम॥

देव! सावित्री की सखियाँ भी अभी तक नहीं आई हैं तब तक मेरा आगमन भी नहीं हो सकता।

“केवल यजमान की स्त्री ही यज्ञ में सम्मिलित हो सकती है” यदि ऐसा नियम होता तो सावित्री को अपनी सखियाँ, अनसुयादि की प्रतीक्षा नहीं करती और हवन कार्य में सम्मिलित हो जाती।

अनुसूया, अरुंधती, आदि सप्तर्षियों की स्त्रियों, वारुणी गौरी प्रभूति महिलाएँ जब सत्य-युग में ही यज्ञ में सम्मिलित हो सकती थी, तो फिर इस युग में स्त्रियों का यज्ञ में सम्मिलित होना धर्म-शास्त्रों की मर्यादा के प्रतिकूल कैसे हो सकता है। स्त्रियों को वेदाधिकार से वंचित रखना- वेद विरुद्ध है, ऋषि मुनियों द्वारा स्थापित परम्परा के विरुद्ध है। स्त्रियों का यज्ञ में बैठना, वैदिक मन्त्रों का शूद्रों की उपस्थिति में उच्चारण करना, सामूहिक यज्ञ करना आदि-आदि प्रवृत्तियां सदा से ही चलती आ रही हैं। उपरिलिखित कतिपय उद्धरणों से स्पष्ट विदित होता है कि पुरुषों के समान स्त्रियों को भी वेदाध्ययन और यज्ञ करने का अधिकार हैं। प्रस्युत देवता आदर्श ऋषि मुनियों द्वारा प्रमाणित है।

हमारा पवित्र कर्तव्य हो जाता है कि हम भी स्त्रियों को विश्व कल्याण और आत्म कल्याण के लिए वेद विहित कर्मों का पालन करने के लिए अधिक से अधिक प्रोत्साहित करें।” ऐसा करने से वेद-शास्त्र की मर्यादाओं का पालन होगा। देश और समाज के उन्नयन में हम सहयोग देकर अभ्युदय और निःश्रेयस की प्राप्ति करेंगे।


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