मैं इसे नम्रता से स्वीकार करता हूँ कि चाहे मैं उतना सफल न होऊँ लेकिन मैं अपने व्यक्तित्व के रेशे-रेशे को प्रेम की साधना में डुबोना चाहता हूँ। मैं इस साधना द्वारा अपने प्रभु का साक्षात् करने के लिए व्यग्र हूँ।
मेरा प्रभु सत्य स्वरूप है लेकिन अपनी साधना के प्रारंभ में ही मैंने पहिचान लिया था कि यदि मुझे जीवन का चरम सत्य पाना है, तो मुझे प्रेम की हुकूमत के सन्मुख सर झुका देना होगा।
हमें प्रेम का विस्तार करना चाहिये। पहले अपने ग्राम को प्रेम करना चाहिये, फिर अपने जिले को प्रेम करना चाहिये , तत्पश्चात् अपने स्वदेश और अन्ततः विश्व प्रेम में अपने को लीन कर देना चाहिये।
मेरे पास तो प्रेम के अतिरिक्त किसी पर भी किसी प्रकार का अधिकार नहीं है। प्रेम देता है कभी कुछ भोगता नहीं। प्रेम सदा दुःख सहता है, कभी प्रतिशोध नहीं लेता। जहाँ प्रेम है, वहीं भगवान् हैं।—महात्मा गाँधी