गायत्री का अधिकार और अनाधिकार

April 1960

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(पं. श्रीराम शर्मा आचार्य)

गत अंक में बताया गया था कि गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु गौ है। ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व गायत्री के ऊपर निर्भर है। जो ब्राह्मण गायत्री को त्याग देता है वह ब्राह्मणत्व से च्युत हो जाता है। ऐसे नामधारी ब्राह्मणों की शास्त्रकारों ने कटु शब्दों में भर्त्सना की है और चाण्डाल बताकर ब्रह्मकर्मों से बहिष्कृत करने की घोषणा की है।

ब्राह्मणत्व प्राप्त करने के लिए गायत्री उपासना आवश्यक है। इसी बात को यों भी कह सकते हैं कि गायत्री उपासना करने वाला ब्राह्मणत्व को प्राप्त करता है। सावित्री और सत्यवान की कथा में इस रहस्य को भली प्रकार स्पष्ट किया गया है। सत्यवान की आयु केवल एक वर्ष शेष थी, फिर भी सावित्री ने उसे वरण कर लिया। जब सावित्री ने सत्यवान का वरण कर लिया तो अल्पायु होते हुए भी उसे दीर्घजीवन प्राप्त हुआ। यम, सत्यवान के प्राण को नियत समय पर हरण करने के लिये आये-पर सावित्री के प्रचण्ड प्रताप के आगे उनकी एक न चली और उन्हें सत्यवान का प्राण वापिस करना पड़ा।

सावित्री गायत्री का ही दूसरा नाम है। वह सत्यवान को ही वरण करती है। झूँठे, चोर, लम्पट, छली उसे कभी प्रिय नहीं हो सकते। वे चाहे जितना जप करें सावित्री उनसे रुष्ट ही रहती हैं। उसे तो सत्यवान-सत्य पर आरुढ़-व्यक्ति ही प्रिय हैं उसे ही गायत्री वरण करती है। गायत्री कहते हैं प्राण की रक्षा करने वाली को। गय-प्राण, त्री-रक्षिका प्राणों की रक्षिका गायत्री है, जिसे सावित्री वरण कर ले ऐसा सत्यवान साधक अजर अमर हो जाता है। यम उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते।

गायत्री उपासक यदि सत्यवान है तो ही वह साधना का पूरा लाभ उठा सकेगा। उसी तथ्य को ब्राह्मण की कामधेनु गौ कह कर प्रकट किया गया है। जो सदाचारी है, संयमी, है, परोपकारी है निर्लोभी और निस्वार्थ है ऐसा ब्रह्मपरायण व्यक्ति गायत्री उपासना के उन लाभों को प्राप्त कर सकता है जो अनेक शास्त्रों में वर्णन किये गये हैं।

इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि जो जन्म से ब्राह्मण कुल में पैदा हुए हैं वे ही गायत्री जप करें, अन्य वर्ण के लोग गायत्री उपासना न करें। यह महामंत्र तो मानव मात्र का उपासना मन्त्र है। इसे चाण्डाल अंत्यज नहीं जपते। उनकी प्रवृत्ति ही इस ओर नहीं होती है। आसुरी भावनाओं में उनका मन ऐसा तमसाच्छन्न होता है कि उपासना की बात भी उन्हें बुरी लगती है, उसका उपहास करते हैं, अविश्वास ग्रस्त होने के कारण उन्हें इसके लिए न तो अभिरुचि होती है और न अवकाश ही मिलता है। ऐसे लोग जिन्होंने उपासना और वास्तविकता का बहिष्कार कर रखा है अन्त्यज या चाण्डाल कहे जाते हैं। उनका अधिकार गायत्री में नहीं है। यह अधिकार कोई बाहर का आदमी देता या रोकता नहीं है वरन् उसकी अंतःवृत्ति ही प्रतिबंध लगा देती है। आज भी ऐसे अनेकों व्यक्ति हैं जो उपासना की कितनी ही उपयोगिता बताने पर भी उस ओर आकर्षित नहीं होते। ऐसे लोगों को अनाधिकारी ही कहा जायेगा।

अधिकारी को सफलता मिलती है

ऐसे अनाधिकारी लोगों से उस महान तत्वज्ञान का वर्णन करना भी व्यर्थ है। अशुद्ध मनोभूमि के कारण वे इससे कुछ लाभ तो उठाते नहीं, उलटे उपहास करते हैं और बताने वाले का समय नष्ट करते हैं। इसलिए शास्त्रों में ऐसी आज्ञा भी है कि ऐसे दुष्ट बुद्धि, अनाधिकारी लोगों को धर्मोपदेश न दिया जाय।

इंद ते नातपस्काय नाभक्त य कदाचन।

न चाशुश्रूषसे वाच्यं न चा माँ योऽभ्य सूयति।

गीता 18

जो तप विहीन है, भक्त नहीं, जिन्हें सुनने की जिज्ञासा नहीं, जो गुरु सेवा परायण नहीं, जो उपेक्षा करते हों उनसे इस ज्ञान को न कहना । ईसाई धर्म के “मत्ती सुखमाचार” में कहा गया है-

“ मनुष्यों, तुम्हें ईश्वरीय रहस्यों को जानने की आज्ञा दी जाती है (पर उन्हें नहीं-जो इसके अधिकारी नहीं है”

इसका तात्पर्य यही है कि ऐसे अनुपयुक्त लोगों से जिनकी समझ में यह विषय न आवे, उस चर्चा का करना व्यर्थ है।

जिन्हें धार्मिकता, आस्तिकता एवं मानवता के आदर्शों में आस्था है- जो इस संसार में से अज्ञान अशक्ति और अभाव को दूर करना चाहते हैं वे सभी द्विज हैं- यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य सभी द्विज कहलाते हैं। उन्हें गायत्री का स्वभावतः अधिकार है।

बहुना किमिहोक्तोन यथावत् साधु साधिता

द्विजन्मानामियं विद्या सिद्धिः कामदुधास्मृता

-शारदरा तिलक

अधिक कहने से क्या लाभ? अच्छी प्रकार उपासना की गई गायत्री द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के सम्पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करने वाली है।

सोमादित्यान्वयः सर्वे राघवाः कुरवन्तथा।

पठन्ति शुचयो नित्यं सवित्री परमाँ गतिम्

महा. अनु 15।78

हे युधिष्ठिर सम्पूर्ण चन्द्रवंशी, नित्य ही पवित्र होकर परम गतिदायक ‘गायत्री मन्त्र’ का जप करते हैं।

कुर्यादन्यन्नवा कुर्यादनुष्ठानादिकं तथा।

गायत्री मात्र निष्ठस्तु कृत्य कृत्यो भवेद्विजः।

गायत्री तंत्र

अन्य अनुष्ठान करें या न करे, गायत्री मन्त्र की उपासना करने वाला द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य ) कृत्य-कृत्य हो जाता है।

उपलभ्य च सावित्रीं नोपतिष्ठेत योद्विजः।

काले त्रिकालं सप्ताहात् स पतन्नात्र संशयः।

वृ. संध्या भाष्य

गायत्री मत्रं को जानकर जो द्विज ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ) उसकी उपासना नहीं करता। उसका निश्चय ही पतन हो जाता है।

भगवान राम और लक्ष्मण क्षत्रिय कुल में उत्पन्न थे। वे द्विजों का आवश्यक कृत्य गायत्री जप और हवन नित्य करते थे। देखिए-

कृतोद कानुजप्यः स हुताग्नि समंलकृतः।

महाभारत (उद्योग-94-6)

श्री कृष्णा जी ने स्नान करके जप और हवन पूर्ण किया।

तस्यर्षेः परमोदारं वचः श्रुत्वा नरोत्तमौ।

स्नात्वा कृतादिकौ वीरौ जपेतुः परमं जपम् ॥

—वाल्मिकी रामायण

परम उदार ऋषि के वचन सुनकर राम लक्ष्मण दोनों भाई स्नान आचमन करके गायत्री का परम जप करने लगे।

गुण कर्म स्वभाव के आधार पर चातुर्वर्ण्य

चारों वर्ण गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर निर्भर हैं। केवल जन्म या कुल ही वर्ण व्यवस्था का आधार नहीं है। महाभारत शान्ति पर्व में इस समस्या पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है।

भारद्वाज उवाच

चातुर्वर्णस्य वर्णेन यदि वर्णो विभिद्यते।

सर्वेषाँ खलु वर्णानाँ दृश्यते वर्णसंकरः। 16

कामक्रोधो भयं लोभः शोकश्चिन्ता क्षुधाश्रमः।

सर्वेषाँ न प्रभवति कस्माद्वर्णा विभिघते। 3

स्वेद मूत्र पुरीषाणि श्लेष्मा पित्तं स शोणितं।

तनुः क्षरति सर्वेषाँ कस्मात् वर्णो विभिद्यते॥ 8

भृगु उवाच

न विशेषोऽस्ति वर्णानाँ सर्व ब्राह्ममिदं जगत्।

ब्रह्मणा पूर्व सृष्टं हि कर्माभिर्वर्णताँ गतम्। 10

काम भोगप्रियास्ती क्ष्णाः क्रोधनाः प्रिय साहसाः।

व्यक्त स्वधर्मा रक्त गास्ते द्विजा क्षत्रताँ गताः । 11

गोभ्यो वृत्रिं समास्याय पीता कृष्युप जीविनः।

स्वधर्मान्ननुतिष्ठन्ति ते द्विजा वैश्यताँ गताः। 12

हिंसानृत प्रिया लुब्ध्वाः सर्व कर्मोपजीवितः।

कृष्णाः शौच परिभ्रष्टा स्ते द्विजा शूद्रताँगताः। 13

इत्येतैःकर्मभिर्व्यस्ताः द्विजा वर्णान्तरं गताः।

धर्मोयज्ञक्रिया तेषाँ नित्यंच प्रतिषिध्यते। 14

इत्येते चतुरो वर्णा येषाँ ब्राह्मी सरस्वती।

विहिता ब्रह्मणा पूर्व लोभादक्षानताँ गता॥ 15

-महाभारत शान्ति पर्व अ. 188

भारद्वाज ने पूछा

यदि रंग भेद से वर्णों का विभाजन किया तो सभी वर्णों में सभी रंग के लोग पाये जाते हैं-

-यदि काम क्रोध, भय, लोभ, शोक, चिन्ता, क्षुधा, श्रम आदि मानसिक स्थिति के आधार पर वर्ण विभाजन किया जाय तो यह बात भी सब वर्णों में मौजूद है।

-मल, मूत्र, पसीना, कफ , पित्त, खून भी सब शरीरों में समान हैं फिर वर्ण भेद कैसे हो?

इस पर भृगु ने उत्तर दिया-

-वर्णों की कोई विशेषता नहीं । इस समस्त संसार को ब्रह्माजी ने ब्राह्मण मय ही बनाया है। पश्चात् कर्मों के अनुसार वर्ण बने।

-जो काम भोग में रुचि रखने वाले,तीखे स्वभाव के, क्रोधी, दुस्साहसी प्रकृति के लाल रंग के थे वे ब्राह्मण क्षत्रिय हो गये।

-ब्रह्म कर्म जिनने छोड़ दिये और कृषक, गोपालक बने, पीले रंग के थे वे वैश्य कहलाये।

- जो हिंसा, झूठ, लोभ, सभी कामों से आजीविका कमाने वाले, गंदे और काले रंग के थे वे शूद्र बन गये।

-इस प्रकार इस कार्य भेद के कारण ब्राह्मण ही पृथक-पृथक वर्णों के हो गये। इसलिए धर्म-कर्म और यज्ञ किया उनके लिए विहित है-निषिद्ध नहीं।

-इन चारों वर्णों का वेद विद्या तथा धर्म कार्यों में समान अधिकार है। ब्रह्माजी का यही पूर्ण विधान है। लोभ के कारण ही लोग अज्ञान को प्राप्त होकर इसका विरोध करते हैं।

ऐसा प्रतीत होता है कि किसी समय गोरे, भूरे, बादामी, काले रंगों के आधार पर भी वर्ण माने जाने लगे थे। पर यह निश्चित नहीं कि गोरे रंग के पिता का पुत्र गोरा ही होगा। भारत वर्ष की जलवायु में एक ही वंश में रंग भेद प्रायः होता रहता है। ऐसी दशा में रंग बदलने के साथ-साथ वर्ण बदला जाय तो यह भी एक विकट समस्या उत्पन्न होती।

ब्राह्मणनाँ सितो वर्णः क्षत्रियाणाँ तु लोहितः।

वैश्यानाँ पीतको वर्णः शूद्राणा मसितस्तथा।

महा. शान्ति 188।5

ब्राह्मण का रंग स्वेत, क्षत्रिय का रंग लाल, वैश्य का रंग पीला, शूद्र रंग काला।

अत्रि स्मृति में भी गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर ही वर्ण व्यवस्था का प्रतिपादन है।

संध्या स्नानं जपं होमं देवता नित्य पूजनम्।

अतिथि वैश्व देवं च देव ब्राह्मण उच्यते॥1॥

शाके पत्रे फले मूले वन वासे सदा रतः।

निरतो अहरहः श्राद्धे स विप्रो मुनिरुच्यते ॥2॥

वेदान्तं पठिते नित्यं सर्व संगं परित्यजेत।

साँख्य योग विचारस्थःस विप्रो द्विज उच्यते॥3

अस्त्राहताश्च धन्वानः संग्रामे सर्वसन्मुखे।

आरम्भे निर्जिता येन स विप्रः क्षत्र उच्यते॥4

कृषि कर्मरतो यश्च गवाँ च परिपालकः।

वाणिज्य व्यवसायश्च स विप्रो वैश्य उच्यते॥5

लाक्षालवण संमिश्रे कुसुँभं क्षीर सर्पिषः।

विक्रेया मधुयाँसाना स विप्रः शूद्र उच्यते ॥6॥

चौरश्च तस्करश्चैव सूचको दंशक स्तथा।

मत्स्यमाँसे सदा लुब्धो विप्रो निषाद उच्यते ॥7॥

ब्रह्म तत्वं न जानाति ब्रह्म सूत्रेण गर्वितः।

तेनैव स च पापेन विप्रः पशु रुदाहृतः॥8॥

वापीकूप तडागानाँ आरामस्य, सरः सुच।

निःशंकं रोधक श्चैव स विप्रो ग्लेब्छ उच्यते॥9

क्रिया हीन श्च मूर्खश्च सर्व धर्म विवर्जितः।

निर्दयः सर्व भूतेषु विप्रश्चाँडाल उच्यते॥10॥

-अत्रि स्मृति

-जो नित्य प्रति संध्या जप, होम, देव-पूजन अतिथि सेवा, वैश्वदेव आदि करता है उस ब्राह्मण को ‘देव’ कहते हैं॥1॥

-जो शाक, पत्र, कंद, मूल, फल खाकर वन वास करता है। निरन्तर श्रद्धापूर्वक अपने कर्तव्य पालन में लगा रहता है उस ब्राह्मण को ‘मुनि’ कहते हैं॥2॥

-जो सर्व प्रकार की आसक्ति छोड़कर वेदान्त ज्ञान में निरत है। साँख्य तथा योग की साधना करता है। उस ब्राह्मण को ‘द्विज’ कहते हैं।

-जो ब्राह्मण अस्त्र-शस्त्र लेकर शत्रु से संग्राम करता है उसे ‘क्षत्रिय’ कहते हैं।

-जो खेती करता है, गायें पालता है, वाणिज्य व्यवसाय करता है वह ब्राह्मण ‘वैश्य’ कहलाता है।

-जो लाख, नमक, स्वर्ण, दूध, घी, शहद तथा मास बेचता है उस ब्राह्मण को शूद्र कहते हैं।

-जो चोरी, डकैती, लूट, हिंसा तथा मद्य माँस से प्रीति रखता है वह ब्राह्मण ‘निषाद’ कहलाता है।

-जो ब्राह्मणत्व को तो जानता नहीं, केवल जनेऊ का घमंड करता है, उस ब्राह्मण को पशु कहते हैं। जो बावड़ी, कुँआ, तालाब, बाग, सरोवर आदि को रोकता या नष्ट करता है उस ब्राह्मण को म्लेच्छ कहते हैं।

जो धर्म कर्म से हीन है, मूर्ख है, कर्तव्य रहित है, निर्दय है, सबको दुख देता है ऐसे ब्राह्मण को ‘चाण्डाल’ कहते हैं।

कर्म से वर्ण परिवर्तन

व्रज्र सूची उपनिषद् में अनेकों ऐसे उदाहरण दिये गये हैं जिसमें अन्य वर्णों के घरों में जन्मे बालक अन्य वर्ण को प्राप्त हुए हैं।

-तर्हि जाति ब्राह्मण इति चेतन्न। तन्न जात्यन्तर जन्तुषु अनेक जाति संभवा महर्षयो वहवः सन्ति। ऋष्य श्रंग मृग्याः कौशिकः कुशात जम्बूको जम्बूकात्, वाल्मीको वाल्मीकात्, व्यासः

कैवर्त कन्यायाम्, शश पृष्टात् गौतम,वशिष्ठ

उर्वस्याम्, अगस्तः कलशे जात इति श्रतत्वात।

एतेषाँ जात्या विना अपि अग्रे ज्ञान प्रतिपादिता

ऋषयो वहवः सन्ति। स्मान्नं जातिर्ब्राह्मण इति।

-ब्रज सूचिकोपनिषद्

अर्थ- तो क्या जन्म जाति को ब्राह्मण माने? नहीं। यदि ऐसा होता तो मनुष्यों की भाँति ही अन्य जीव जन्तुओं में भी ऐसा ही जाति भेद होता ! बहुत से ऋषियों का जन्म अन्य जातियों से भी हुआ है। मृगी से ऋष्य शृंग, कुश से कौशिक, जम्बुक से जम्बुक, बाल्मीक से वाल्मीकि, कैवर्त कन्या से व्यास, शशपृष्ट से गौतम, उर्वशी से वशिष्ठ, कुँभ से अगस्त उत्पन्न हुए। हीन जाति से भी बहुत से ज्ञान सम्पन्न ऋषि हुए हैं, इसलिए जाति ब्राह्मण नहीं है।

पुत्रोगृत्समद्स्यापि शुनको यस्य शौनकाः।

ब्राह्मणः क्षत्रियाश्चैव वैश्याः शूद्रास्तथैवच॥

हरिवंश पुराण 15। 19-20

अर्थात्-गृत्समद् के पुत्र शुनक हुए। शुनक से शौनक नाम से विख्यात ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र पुत्र उत्पन्न हुए।

प्राचीन काल में एक ही वर्ण था

वर्ण व्यवस्था का इतिहास बताते हुए भागवतकार ने कहा है कि प्राचीन काल में सभी मनुष्यों का एक ही वर्ण था। महाभारतकार का कथन है कि यह एक ही वर्ण पीछे गुण कर्म स्वभाव से चार प्रकार का बन गया।

एक एव पुरा वेदः प्रणवः सर्वांगमय।

देवो नारायणो न्यान्यः एको ऽग्निर्वर्णों एव च।

-श्रीमद्भागवत् पु. स्कं. 9,14

सर्वप्रथम एक ही वेद एक ही सर्ववान्नमय प्रभाव, एक ही अद्वैत नारायण, एक ही अग्नि और एक ही वर्ण था।

एक वर्णामिदं पूर्व विश्वमासीद युधिष्ठिर।

कर्मक्रिया विभेदेन चातुर्वण्यं प्रतिष्ठितम्।

सर्वे वै योनिजा मर्त्याः सर्व मूत्र पुरीषजाः।

एकेन्द्रियेन्द्रियार्थाश्च तस्माच्छील गुणैर्द्विजः।

शूद्रोऽपि शील सम्पन्नो गुणवान् ब्राह्मणो भवेत्।

ब्राह्मणोऽपि क्रिया हीनः शूद्रात् प्रत्यवरो भवेत्।

महाभारत वन पर्व अ. 180

इस संसार में पहले एक ही वर्ण था। पीछे गुण और कर्म के भेद के कारण चार वर्ण बने। सब मनुष्य योनि से ही पैदा होते हैं, मल मूत्र के स्थान से ही जन्मते हैं, सब में एक सी इन्द्रिय वासनाएं हैं इसलिए जन्म से जाति मानना ठीक नहीं। कर्म की प्रधानता से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य माने जाते हैं यदि शूद्र उत्तम कर्म वाला हो तो उसे ब्राह्मण मानना चाहिए और जो कर्तव्यहीन ब्राह्मण है उसे शूद्र से भी नीचा मानो।

गीता में भगवान् कृष्ण ने भी इसी तथ्य की पुष्टि की है—

चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुण कर्म विभागशः।

गीता 4। 13

मैंने गुण कर्म के विभाग अनुसार ही चार वर्ण उत्पन्न किये हैं।

वर्ण व्यवस्था सनातन नहीं है। इसे तो सामाजिक सुविधा की दृष्टि से शौनक ने प्रचलित किया :-

गृत्समदस्य शौपकश्चातुर्वण्य प्रवर्तयिताभूत।

विष्णु पुराण अ. 4, 8-1

गृत्समद के पुत्र शौनक ने चातुर्वण्य व्यवस्था प्रवर्तित की।

इसी प्रकार के और भी अनेक प्रमाण शास्त्रों में उपलब्ध होते हैं।

सर्वोऽयं ब्राह्मणो लोके वृत्तेन तु विधीयते।

वृत्ते स्थितस्तु शूद्रोऽपि ब्राह्मणत्वं नियच्छति।

ब्रह्मणो वा च्युतोधर्माद्यथा शूद्रत्वमाप्नुते।

-महा. अनु. 143

—सद्आचरण से सभी कोई ब्राह्मण हो सकते हैं। शूद्र भी यदि सच्चरित्र है तो वह ब्राह्मणत्व को प्राप्त होता है ब्राह्मण यदि कर्तव्यच्युत है तो शूद्र हो जाता है।

न शूद्रा भगवद् भक्त विप्रा भगवताः स्मृताः।

—भारत

भगवान् के भक्तों को शूद्र नहीं कहा जा सकता उन्हें तो ब्राह्मण ही कहना चाहिए।

चत्वार एकस्य पितुः सुताश्च तेषाँ सुतानाँ खलु

जातिरेका। एवं प्रजानाँ हिपितैक एवं पित्रैक भा-

वान्न च जाति भेद। भविष्य पुराण 41।42

जिस प्रकार एक ही पिता के चार पुत्रों की जाति एक ही होती है उसी प्रकार एक ही पिता की संतान के यह चारों वर्ण भी एक ही जाति के हैं।

ब्राह्मण गायत्री का विशेष अधिकारी

ब्राह्मण को गायत्री का विशेष अधिकारी माना गया है। इसका तात्पर्य जाति विशेष में उत्पन्न हुए किन्हीं व्यक्तियों को ही गायत्री को सीमित कर देना नहीं है वरन् यह है कि जो व्यक्ति अपनी अन्तरात्मा में श्रेष्ठ, सदाचार, परमार्थ एवं ब्रह्मपरायणता को धारण किये हुए होंगे, वे गायत्री उपासना का अधिक लाभ उठा सकेंगे।

ब्राह्मण की महिमा एवं महत्ता शास्त्रकारों ने पग-पग पर प्रतिपादित की है। उन्हें मनुष्यों में देवता बताया है। इन ब्रह्म गुण सम्पन्न ब्राह्मणों की कीर्ति एवं स्तुति से धर्मग्रन्थों का पन्ना-पन्ना भरा पड़ा है। भगवान राम स्वयं श्री मुख से अपनी विशेषताओं का कारण ब्राह्मण की कृपा को ही बताते हैं :—

विप्र प्रसादात् कमलावरोऽहं,

विप्र प्रसादातु धरणी धरो ऽ हम्।

विप्र प्रसादात् जगती पतिश्च,

विप्र प्रसादात् मम राम नाम॥

अर्थात्-ब्राह्मण के प्रसाद से ही मैं लक्ष्मीपति हूँ, उनकी कृपा से मैं पृथ्वी को धारण किये हूँ, उन्हीं के अनुग्रह से मैं जगती पति कहलाता हूँ और ब्राह्मणों के प्रसाद से ही मेरा नाम राम है।

ब्राह्मणत्व एक अत्यन्त उच्च सामाजिक सम्मान का पद है। जो इस पद के उपयुक्त सिद्ध होकर सच्चे ब्राह्मण होते हैं उनको लोक और वेद दोनों ही ओर से प्रशंसा एवं प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। ब्राह्मणत्व के गौरव का वर्णन करते हुए शास्त्र ने कहा है :—

पृथिव्याँ यानि तीर्थानि तानि सर्वाणि सागरे।

सागरे यानि तीर्थानि पदे विप्रस्य दक्षिणे।

अर्थात्-पृथ्वी तल और समुद्र गर्भ में जितने भी तीर्थ हैं वे सब ब्राह्मण के दाहिने चरण में निवास करते हैं।

विप्रौघ दर्शनात्क्षिप्रं क्षीयन्ते पाप राशयः।

वंदनान्मंगलावाप्तिरर्चनादच्युतं पदम्।

अर्थात्-ब्राह्मण के दर्शन से पाप दूर होते हैं। वन्दन करने से कल्याण होता है और अर्चना से ईश्वर की प्राप्ति होती है।

ब्राह्मण जंगमे तीर्थ निर्मलं सार्वंकामिकम्

येषा वाक्योदकं नैव शुध्यान्ति मलिना जनाः

अर्थात्—ब्राह्मण निर्मल चलते फिरते तीर्थ उनके वचनों से मलीन जनों के मन भी शुद्ध हो जाते हैं।

उत्पत्ति रेव विप्रस्य मूर्ति धर्मस्य शाश्वती।

सहि धर्मार्थमुत्पन्नो ब्रह्म भूयाय कल्पते॥

अर्थात्-ब्राह्मण धर्म मूर्ति के रूप में इस पृथ्वी पर उत्पन्न होता है। उससे धर्म एवं ब्रह्मतत्त्व का अभिवर्धन होता है।

भूतानाँ प्राणिनः श्रेष्ठाः प्राणिनाँ बुद्धि जीविनः

बुद्धिमत्सु नराः श्रेष्ठा नरेषु ब्राह्मणः स्मृताः

अर्थात्-स्मृति में प्राणी श्रेष्ठ है, प्राणियों में मान प्राणी श्रेष्ठ है, बुद्धिमानों में मनु श्रेष्ठ है और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है।

ब्राह्मण की श्रेष्ठता का आधार

ब्राह्मण की इस श्रेष्ठता का कारण उसका उनके चरित्र, संयम, सेवा भाव, त्याग तथा तप है। ब्राह्मण के इन कर्तव्यों का सर्वत्र वर्णन है। इसके अतिरिक्त उसका महान कर्तव्य उपासना भी है उपासना से ही वह आत्मबल प्राप्त होता है जिसके द्वारा देवताओं को आकर्षित करना तथा आत्म कल्याण का आयोजन कर सकना संभव हो सकता है। इसी आध्यात्मिक दिव्य शक्ति से सम्पन्न होने के कारण ब्राह्मण देवता कहलाता है। कहा भी है-

देवाधीनं जगर्त्सव मंत्राधीनाश्च देवताः।

ते मंत्रा ब्राह्मणधीना ब्राह्मणो मम देवतम्।

अर्थात्- देवताओं के अधीन सब संसार हैं। वे देवता मंत्रों के अधीन हैं। वे मंत्र ब्राह्मणों के अधीन हैं। इसलिए ब्राह्मण ही देवता हैं।

वैशेष्यात् प्रकृ ति श्रेष्ठ्यान्नियमस्य च धारणात्।

संस्कारस्य विशेषाच्चा वर्णनाँ ब्राह्मणः प्रभुः।

अच्छी प्रकृति धारण करने की, नियमों का पालन श्रेष्ठ संस्कारों की विशेषता होने के कारण ब्राह्मण चारों वर्णों में श्रेष्ठ कहलाता है।

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्र जन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेयन् पृथिव्याँ सर्व मानवाः।

मनु. 2,20

इस देश के निवासी ब्राह्मण के आदर्श आचरणों का अनुगमन करके पृथ्वी के सब मनुष्य अपने चरित्र को उत्तम बनावें।

ऐसे ब्राह्मण स्वभावतः तेजस्वी और निर्भीक होते हैं वे राजा प्रजा किसी की भी अनीति को सहन नहीं करते जहाँ कहीं भी अनुचित होता है वहाँ डट कर उसका विरोध करते हैं, इसलिए शासक भी ऐसे ब्राह्मणों का अंकुश मानते हैं।

यत्क्रोध भीत्या राजापि स्वधर्म निरतो भवेत्।

शुक्र नीति

उनके विरोध भय से डर कर राजा भी अपने कर्तव्य का पालन करते रहते हैं।

सच्चे ब्राह्मण अपने चरित्र बल और सेवा बल से सारे समाज को अपने प्रभाव क्षेत्र में रखते हैं। उनकी इस आराधना से उनकी आत्मा ही नहीं सारी वसुधा धन्य हो जाती है।

तप्यन्ते लोक तापेन साधवः प्रायशो जनाः।

परमाराधनं तद्धि पुरुषस्याखिलात्मनः।

—श्रीमद्भागवत्

सज्जन पुरुष दूसरों को दुखी देखकर स्वयं दयार्द्र हो जाते हैं। इस संसार के समस्त प्राणियों की सेवा ही उनका परम आराधन होता है।

ऐसे सेवा परायण ब्राह्मण संसार में थोड़े ही होते है :—

मनसि वचसि काये प्रेम पीयूष पूर्णा

स्त्रिभुवन मुपकर श्रेणिभिः प्रीणयन्तः।

परगुणपरमाणून् पर्वती कृत्य नित्यं

निज हृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः

—भर्तृहरि

जो मन से, वचन से, काया से प्रेमामृत से भरे हैं, जिनकी वाणी प्रेम मधुर वचन ही बोलती है, जिनकी प्रत्येक चेष्टा से प्रेम ही टपकता है, अपने उपकारों से दूसरों को स्नान कराते रहते हैं, दूसरों के अणुमात्र गुणों को पर्वत समान मानते हैं और उससे अपने चित्त में मोद मानते हैं, ऐसे सन्त इस पृथ्वी पर कितने हैं?

ऐसे ब्राह्मण बड़े से बड़े धन कुबेर से भी अपने को अधिक सम्पन्न मानना है। गायत्री उपासना से उसका ब्रह्म तेज निखर आता है। और इस संसार का समस्त ऐश्वर्य जिस ब्रह्म शक्ति गायत्री का एक चरण मात्र है, वह जब उसे अपने अन्तःकरण में कामधेनु के समान प्रत्यक्ष विराजमान दिखाई पड़ती है तो उसे किसी वस्तु का अभाव अपने में दिखाई नहीं पड़ता।

याचे न कञ्चनं न कञ्चन वञ्चयामि

पेवे न कञ्चन निरस्तसमस्त दैन्यः।

श्लक्ष्णं बसे मधुरमद्मि भजे वरस्त्रीं

देवी हृदि स्फुरति में कुल कामधेनुः।

किसी से न मैं माँगता हूँ, न किसी को ठगता हूँ न किसी की दासता करता हूँ, तो भी दीनता मुझसे सदा दूर रहती है। क्योंकि सुन्दर वस्त्र, भोजन, स्त्री, आदि जिसके तुच्छ प्रसाद है। वह मेरी कुल कामधेनु (गायत्री) मेरे हृदय में ही सदा निवास करती है।

ब्राह्मणत्व का अधः पतन

किन्तु आज तो स्थिति ही बड़ी शोचनीय हो रही है। ब्राह्मणों ने अपने ब्रह्म तेज का अवलम्बन छोड़कर लोभ, इन्द्रिय परायणता और हीन कोटि के आचरणों का आश्रय ले लिया है। फलस्वरूप उनकी वे विशेषताएं नष्ट हो गई और दीन-हीन भिक्षुकों की जो दशा होती है वही उनकी हो रही है।

जिह्वा दग्धा परान्नेन करौ दग्धौ प्रति ग्रहात्।

मनो दग्धं परस्त्री भिः कथं सिद्धिर्वरानने॥

वादार्थं पठ्यते विद्या परार्थं क्रियते जपः।

ख्यार्त्यथं क्षीयते दानं कथं सिद्धिर्वरानने॥

अर्थात्-पराया अन्न खाने से जिव्हा की शक्ति नष्ट हो गई, दान दक्षिणा लेते रहने से हाथों की शक्ति चली गई, पर नारी की ओर मन डुलाने से मन नष्ट हो गया फिर हे पार्वती, (शंकर जी कहते हैं) इन ब्राह्मणों को सिद्धि कैसे प्राप्त हो?

वाद-विवाद के लिए विद्या पढ़ी, दूसरों से दक्षिणा लेने के लिए जप किया, कीर्ति के लिए दान दिया। ऐसे लोगों को हे पार्वती सिद्धि कैसे मिल सकती है?

अनध्यापन शीलं च सदाचार विलंघनम्।

सालसं च दुरन्नादं ब्राह्मणं वाधते यमः।

स्वाध्याय न करने से, आलस्य से और कुधान्य खाने से ब्राह्मण का पतन हो जाता है।

स्वयं साधना तपस्या करके अपना आत्मबल बढ़ाने की अपेक्षा आज जिह्वा लोलुप ब्राह्मण मधुर भोजनों के लोभ में धान्य-कुधान्य का विचार न करके निमंत्रणों के लोभ में फिरते रहते हैं। ऐसे निमंत्रण भोजी ब्राह्मण यदि कुछ जप-तप करते भी हैं तो उनका आधा पुण्य उस अन्न खिलाने वाले को ही चला जाता है। यदि अपने पुरुषार्थ से आजीविका कमा कर साधना की जाय तो ही उसका समुचित लाभ ब्राह्मण को मिल सकता है।

यस्यान्ने तु पुष्टांगौ तपं होमं समाचरेत।

अन्न दातुः फलस्यार्घं चार्धं कर्तुर्न संशयः।

—कुलार्णव

यदि कोई साधक किसी दूसरे का अन्न खाकर जप, तप, होम आदि करता है। तो आधा फल उस अन्नदान देने वाले को चला जाता है। शेष आधा फल ही उस साधक को मिलता है।

आज कल कुपात्र साधु ब्राह्मण बहुत बढ़ रहे हैं, इस वृद्धि को रोका जाना आवश्यक है क्योंकि जिस देश में ब्राह्मणत्व का दंभ करने वाले लोग बढ़ जाते है वह राष्ट्र पतित हो जाता है। वशिष्ठ स्मृति में लिखा है कि जिस ग्राम में अविद्वान, अनुचित रीति से भिक्षा प्राप्त करने वाले ब्राह्मण रहते हों, राजा को चाहिए कि उन कर्तव्यहीन ब्राह्मणो को ही नहीं, आश्रय देने वालों उन सारे ग्राम वासियों को भी चोरों की तरह दंड दे। देखिए—

आवृत्ताश्चाघीयान् यत्र भैक्ष चरा द्विज।

तं ग्रामं दंडयेत् राजा चोर भक्त प्रदंडवत्॥ —वशिष्ठ स्मृति

कितने दुख की बात है कि आज ऐसे ही ब्राह्मणों की भरमार हो रही है। और यही लोग कहते हैं कि हम गायत्री के अधिकारी हैं। इस प्रकार विवाद करने की अपेक्षा यदि वे अपने ब्रह्म बल को उपार्जित करें तो उन्हें स्वयं विदित हो जाय कि यह कितनी महान वस्तु है।

ब्रह्म तेज की जननी गायत्री

वशिष्ठ के ब्रह्मबल से परास्त होकर राजा विश्वामित्र ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि बाहुबल, शस्त्रबल तुच्छ है। महान् तो ब्रह्मबल ही है।

घिग्वलं क्षत्रिय बलं ब्रह्म तेजो बलं बलम्।

एकेन ब्रह्म दंडेन सर्वास्त्राणि हतानि में।

क्षत्रिय का बल धिक्कार है- तुच्छ है- ब्रह्मबल ही वास्तविक बल है। एक ही ब्रह्म दंड ने मेरे सारे अस्त्रों को नष्ट कर दिया।

प्रभावेणैव गायञ्याः क्षत्रियः कौशिको वशी।

राजर्षित्वं परित्यज्य ब्रह्मर्षिपदमीयिवान्॥

सामर्थ्य प्राय चात्युच्चै रन्य द्भुवन सर्जने।

किं किं न दद्यात् गायत्री सम्यगेवमुपासिता॥

—स्कंद पुराण

अर्थात्—क्षत्रिय विश्वामित्र ने राजर्षि पद से उन्नति करते हुए ब्रह्मर्षि पद गायत्री मंत्र की उपासना से ही प्राप्त कर लिया तथा दूसरी सृष्टि रच डालने की भी शक्ति प्राप्त की थी । भली प्रकार साधना की हुई गायत्री भला कौन सा ऐसा अभीष्ट लाभ है जिसे प्राप्त नहीं करा सकती?

ऐसे ब्रह्म बल सम्पन्न व्यक्ति केवल अपना ही आत्म कल्याण नहीं करते वरन् दूसरों का भी कल्याण कर सकते है। सारे संसार का उद्धार कर सकते हैं।

यै शान्त दान्ता श्रुतिपूर्ण कर्णाः

जितेन्द्रियाः प्राणिवधान्निवृताः।

प्रतिग्रहे संकुचिताग्रहस्ता

स्ते ब्राह्मणास्तारयितु समर्थाः।

जो ब्राह्मण, शान्त, दान्त, वेद ज्ञान से पूर्ण, जितेन्द्रिय, दयालु, प्रतिग्रह लेने में संकोची हैं वे ही ब्राह्मण दूसरों का उद्धार कर सकते हैं।

कामान्माता पिता चैनं यदुत्पादयो मिथः

संभूतिं तस्य ताँ विद्यात् यद्योनाभिजायते।

आचार्यम्त्वस्य याँ जाति विधिद्वेदपारगः।

उत्पादयति सवित्र्या सा सत्या सा ऽजराऽमरा।

-मनु 2।147,48

अर्थात्- माता पिता कामवश होकर जो संतान उत्पन्न करते हैं वह तो वैसे अपने माता-पिता के समान ही अंगों वाली होती है पर वेदज्ञ आचार्य जिस बालक को विधिवत गायत्री मन्त्र देकर जिस जाति का बना


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