आत्मनिरीक्षण का स्वभाव बनाइए

April 1960

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(श्री भगवानसहायजी वाशिष्ठ)

कस्यं मृजाना अतियन्तिरिप्रमायुर्दधानाः प्रतरंनवीय॥

आप्यायमानाः प्रजया धनेनाध स्याम सुरभयो गृहेषु॥

अ. 18। 31।17॥

“आत्मनिरीक्षण रूपी छलनी में शुद्ध बन कर अपनी अशुद्धि, मल अथवा अपमृत्यु को साफ कर दूर करते हैं। और नव दीर्घ आयुष्य धारण करते हैं। तत्पश्चात् हम धन और प्रजा के साथ अभ्युदय को प्राप्त होते हुए अपने घर में सुगन्धि रूप बन कर रहें।”

उक्त वेदमंत्र में आत्मसुधार के लिए बहुत ही सरल और स्पष्ट राजमार्ग बताते हुए आत्मनिरीक्षण की प्रेरणा दी गई है। मंत्र के प्रारम्भ में आया है आत्मनिरीक्षण रूपी छलनी में शुद्ध बनकर अपनी अशुद्धि व भल अथवा अपमृत्यु को साफ करते हैं। इसके अनुसार आत्मनिरीक्षण करते रहने से सारे दोष, बुराइयाँ, दुर्व्यसन आदि ठीक उसी प्रकार अलग-अलग हो जाते हैं जैसे छलनी में किसी पदार्थ को छानने पर उसका खराब अंश अलग रह जाता है और वस्तु शुद्ध और मल रहित बन जाती है। आत्मनिरीक्षण का अवलम्बन लेने पर मनुष्य के दोष अशुद्धि, बुराइयाँ आदि भी ठीक इसी प्रकार दूर हो जाती हैं।

मानव स्वभाव की कमजोरी के कारण उसमें कुछ न कुछ दोष, बुराइयाँ आदि अपना घर बनाये रहती हैं। किन्तु इन्हें स्वच्छन्दतापूर्वक पनपने देना मनुष्य के लिए बहुत घातक सिद्ध होता है। उस समय मनुष्य की वही हालत होती है जैसे उस खेत की, जो मालिक की देखभाल आदि से वंचित झाड़ झंखाड़, अनावश्यक कूड़ा, घास-पत्ता आदि से अनुपयोगी बन जाता है। ऐसे मालिक की देखभाल के अभाव में घर की दुर्दशा होती है। ठीक उसी प्रकार मानव जीवन बंजर जमीन, सफाई और निरीक्षण के अभाव में घर की तरह बेढंगा, दोषपूर्ण, अशुद्ध और विकृत बन जाता है। एक छोटे से अवगुण दोष के कारण जीवन में बट्टा लग जाता है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि थोड़ी सी खराबी होने पर चाँदी का सिक्का बेकार हो जाता है, अच्छे से अच्छे भोजन को एक मक्खी अथवा कीड़ा घृणा युक्त बना देता है। घड़े में छोटा सा छेद होने पर उसको खाली कर देता है, एक छोटा सा फोड़ा जानलेवा बन जाता है। ठीक उसी प्रकार किसी भी सुपात्र की उपयोगिता एवं महत्ता उसके एक अवगुण एवं दोष से नष्ट हो जाती है। एक दोष से मनुष्य का सम्पूर्ण व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है पचास वर्षों की बहुत बड़ी नेकनामी को कुछ क्षण की बदनामी नष्ट कर देती है।

मनुष्य के चरित्र व्यवहार, स्वभाव, विचार, जीवन यापन दृष्टिकोण आदि में कुछ न कुछ कमी रह जाना स्वाभाविक है किन्तु जैसा कि ऊपर व्यक्त किया जा चुका है, एक छोटी सी बुराई भी जीवन की समस्त अच्छाइयों पर पानी फेर देती है। जिस प्रकार एक हल्के से धब्बे से किसी भी चित्र की सुन्दरता नष्ट हो जाती है उसी प्रकार किसी भी दोष से दूषित मनुष्य का जीवन कलंकित हो जाता है। चन्द्रमा के छोटे दो धब्बे उसके सौंदर्य में कितने बड़े बाधक हैं जो हर देखने वाले की आँखों में खटक जाते हैं। किसी मशीन का एक भी पुरजा बिगड़ जाने पर सारी मशीन का संतुलन और तत्परता नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार मनुष्य जीवन व्याप्त दोष, बुराइयों, अशुद्धियों आदि को दूर करके पूर्णता व अभ्युदय की ओर अग्रसर होने के लिए आत्म निरीक्षण रूपी छलनी की आवश्यकता है।

आत्म निरीक्षण के पथ पर चलते हुए मनुष्य को अपने जीवन एवं तत्सम्बन्धित विषयों को सूक्ष्म दृष्टि से देखते रहना चाहिए और उनका सुधार करना चाहिए। जिस प्रकार मुनीम अपनी रोकड़ को बड़े ध्यान से मिलाता है और एक पैसे की भूल हो जाने पर उसको निकाल कर ही पीछा छोड़ता है, उसी प्रकार हमें भी अपने दोषों का पूरा-पूरा निरीक्षण करके उन्हें दुरुस्त करना चाहिए। यही आत्म निरीक्षण रूपी छननी है जिसमें चरित्र व्यवहार, स्वभाव आदि की सारी अशुद्धियाँ बुराइयां दूर हों जाती हैं।

इसके लिए मनुष्य को दोषज्ञ बनना चाहिए। इसका तात्पर्य यह नहीं पर दोष दर्शन की वृत्ति अपनाई जाय वरन् स्व छिद्रान्वेषण की आदत डाली जाय। दोषज्ञ का अर्थ है अपने दोषों का जानकार होना। लेकिन स्वदोष दर्शन और उन्हें दूर करने के पथ पर बहुत ही कम व्यक्ति बढ़ पाते हैं। कई तो अपने आप के स्तर एवं दोषों को जानते भी नहीं।

स्वदोष दर्शन परक बुद्धि आत्म निरीक्षण की क्षमता प्राप्त करने में सर्वप्रथम अपने दोषों को लोक शास्त्र के आधार पर देखना चाहिए अधिकतर लोग मनुष्य के सम्मुख, उसकी बुराइयों तथा दोषों का बखान नहीं करते इसलिए लोक व्यापी आधार पर उन्हें पहचानना चाहिए जब लोक में किसी भी बात पर दोष मिलता हो, अपनी असफलता, हानि के कारण दूसरे लोग जान पड़े, दुख कठिनाई अपने पर विधाता को दोष दिया जाए, ऐसे समय अपने अंतर को ढूँढ़ना चाहिए। अपनी आन्तरिक स्थिति को टटोल कर देखने पर पता चलता है कि इन सबका कारण हमारे स्वयं के अन्तर में ही मौजूद है। ऐसी परिस्थितियों में सूक्ष्म अन्तः निरीक्षण करने पर पता चलता है कि मनुष्य की मानसिक कमजोरी के कारण ही वह अपनी हानि दोष का कारण दूसरों को बताता है। अपनी परिश्रम हीनता एवं आलस्यवश ही असफलतायें मिलती हैं। लोक व्यवहार की कुशलता मिलनसारी के अभाव में ही सामाजिक अवहेलना, तिरस्कार सहना पड़ता है। सहनशीलता के अभाव में संसार कठोर जान पड़ता है। इस प्रकार बहुत कुछ बाहर दीखने वाली बुराइयां कमजोरियाँ अपने अन्तर में ही छिपी रहती हैं। ढूंढ़ने पर उन्हें पहचाना जा सकता है। अपने अन्तर को टटोलते हुए ठीक ही कहा है-

बुरा जो ढूँढन मैं चला मुझसा बुरा न कोय-

इस प्रकार अपने अंतर को खोजने पर अपनी कमजोरियाँ स्पष्ट दिखाई देंगी।

आत्मनिरीक्षण एवं दोष दर्शन में दूसरे लोगों से भी काफी लाभ उठाया जा सकता है। उदाहरणार्थ अन्य लोगों से घृणा करने, फटकारने, विश्वास न करने, व्यक्तित्व का कुछ भी मूल्य न समझने, तरह-तरह के दोष लाँछन लगने पर नाराज एवं उत्तेजित न होकर यदि यह देखने की कोशिश की जाय कि आखिर लोग ऐसा क्यों करते हैं । कहीं वास्तव में तो इनकी जड़ें स्वयं में नहीं जमी हुई हैं। इस प्रकार दूसरे लोगों की निगाह के अनुसार अपने अन्तर को टटोलना चाहिए। इससे अपने कई दोषों का पता लग जायगा। मनुष्य के फूहड़पन से ही लोग उससे घृणा करने लगते हैं, स्वान वृत्ति होने के कारण ही फटकार मिलती है। अपनी बेईमानी एवं स्वार्थ परायणता के कारण ही दूसरे अविश्वास करते हैं । अपनी अयोग्यता एवं व्यक्तित्व के प्रति सजग नहीं रहने पर ही दूसरों द्वारा तिरस्कार मिलता है। इस प्रकार दूसरों के अपने प्रति विचार, दृष्टिकोण आदि से लाभ उठाकर भी आत्मनिरीक्षण में सफलता मिल सकती है और अपने दोष बुराइयां आदि समझ में आ जाती है। निन्दा करने वाले से स्वदोष दर्शन में आत्म निरीक्षण में काफी सहयोग मिलता है। निन्दक की उपयोगिता एवं उसे हितकारी बताते हुये रहीम जी ने ठीक ही कहा है।

“निन्दक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय।

बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय।

इस प्रकार नित्य आत्मनिरीक्षण का अभ्यास डाल लेने पर अपनी बुराइयां दोष अशुद्धियाँ, विकार समझ में आने लगते हैं। मनुष्य एक सुयोग्य सर्जन की भाँति आत्मनिरीक्षण रूपी सूक्ष्म दर्शक यंत्र द्वारा अपने अन्तर में छिपे हुये उन दूषित तत्वों को सरलता से देख सकता है जिनकी शिकायत अक्सर बाह्य वातावरण के सम्बन्ध में की जाती है। सूक्ष्म निरीक्षण करने पर अन्तर में आत्म प्रवंचना, आत्म क्षुद्रता, व्यग्रता, अव्यवहारिकता, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अन्धविश्वास, आलस्य, उदासीनता, फूहड़पन, कटुभाषण, मिथ्या आश्वासन देना, चाटुकारिता, हठ, दुराग्रहता, खीजना, व्यवहार का खोखलापन, अनुचित साहस, असावधानी, फैशन आदि अनेकों दोष विकार, अशुद्धियाँ नजर आयेंगी। आत्मनिरीक्षण रूपी छलनी से ये दूषित तत्व अलग-2 दिखाई दें जिनसे मनुष्य का जीवन असफल हो जाता है और उसका कारण दूसरों को बताया जाता है।

जब आत्मनिरीक्षण द्वारा अपनी बुराइयां, दोष विकार समझ में आ जायँ तो उन्हें विवेक बुद्धि, आत्मबल से दूर करने के लिए ठीक उसी प्रकार प्रयत्न करना चाहिए जिस प्रकार एक शल्य चिकित्सक तटस्थ भाव से रोगी के शरीर के दूषित तत्वों को बाहर निकाल फेंकता है उनसे उसका निजी कोई सम्बन्ध नहीं होता । अक्सर कई व्यक्ति अपनी बुराइयों को जानकर भी दूर करने का प्रयत्न नहीं करते क्योंकि उनसे वे अपना मोह द्वारा सम्बन्ध बनाये रखते हैं। इसलिए तटस्थ और निष्पक्ष भाव से अपनी बुराइयों, दोषों को दूर करना चाहिए, आखिर बुराइयां तो बुराइयां ही हैं उनसे लगाव रखना सभी तरह अहितकर होता है। महापुरुषों की जीवन गाथाओं से पता चलता है कि उनमें जो भी कमजोरियाँ थीं उन्हें स्वयं ही नहीं देखा वरन् जन साधारण के समक्ष भी अपनी वास्तविक स्थिति को रखा, फलतः एक दिन वे पूर्ण निर्विकार एवं शुद्ध हृदय बन गये। अपनी बुराइयों को छुटाने का सरल मार्ग यह भी है कि अपने वास्तविक स्वरूप को जन साधारण के समक्ष रखना चाहिए ऊपर से कलई चमक-दमक, विज्ञापन बाजी से अपने असली रूप को छिपाना नहीं चाहिए। इससे अपनी बुराइयों को छिपाने की आदत पड़ जाती है और वे बुराइयाँ चिपकी ही रहती हैं। यदि सच्चे हृदय से अपनी बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न किया जाय तो एक दिन उनसे छुटकारा पाया जा सकता है। सूर, तुलसी, महात्मा गाँधी आदि महापुरुषों का जीवन हमारे समक्ष है। अपनी बुराइयों को समझते हुए उन्हें दूर करने का विनम्र प्रयत्न करते रहने से उन्होंने एक दिन पूर्ण रूपेण इनसे छुटकारा पाया और शुद्ध परिष्कृत स्वरूप प्राप्त किया।

अपने विकारों को दूर कर देने पर नव जीवन, दीर्घ आयु, महान प्रतिभा, विवेक, सामर्थ्य की प्राप्ति होती है जैसा कि वेद मंत्र में आया है। “आत्म निरीक्षण रूपी छलनी में शुद्ध बनकर अपनी अशुद्धि और मल को दूर करते हैं और नया दीर्घ जीवन धारण करते हैं।” यह निभ्रांति सत्य है कि निर्विकार शुद्ध बुद्ध, दोषरहित बन जाने पर मनुष्य को दीर्घ आयु, व नवजीवन की प्राप्ति होती है। वह शक्ति और सामर्थ्य का केन्द्र बन जाता है, उत्साह और साहस उसमें फूट-फूट कर निकलता है। सिद्धि सफलता उसके समक्ष हाथ जोड़े खड़ी रहती है।

वेद मन्त्र में आगे आया है कि “तत्पश्चात् हम धन और प्रजा के साथ अभ्युदय को प्राप्त होते हुए अपने घर में सुगन्धि रूप बनकर रहें।” आत्मनिरीक्षण द्वारा अपने दोषों को दूर कर देने से आत्मा का शुद्ध परिष्कृत सत् चित् आनन्द स्वरूप विकसित हो उठता है, उसमें जब सात्विकता, सौंदर्य, शक्ति, साहस, स्फूर्ति, सौजन्य की कलिकायें विकसित होती हैं तो एक मधुर गन्ध यत्र-तत्र फैल उठती है जिसके प्रभाव से धन सत्सन्तति, ऐश्वर्य, वैभव आदि एकत्रित हो जीवन में स्वर्गीय वातावरण का निर्माण करते हैं। अभ्युदय, प्रगति, उत्थान, विकास का सहज क्रम तीव्र हो उठता है। आत्म पवित्रता की मधुर गंध से लोक मानस आकर्षित हो उठता है और अपना अगुवा मान कर पीछे-पीछे चलने में अपना सौभाग्य मानता है।

वेदमन्त्र से प्रेरणा लेते हुए सूक्ष्म आत्म निरीक्षण करके अपने विकारों, दोषों, बुराइयों को ढूंढ़ना चाहिए और उन्हें दूर करना चाहिए। जब इससे जीवन परिष्कृत शुद्ध-बुद्ध स्वरूप बन जाता है तो परमात्मा का दिव्य प्रकाश स्वतः सहज रूप से प्रस्फुटित हो उठता है और लोक एवं परलोक में कल्याण की प्राप्ति होती है। ऋषियों के बताते हुये उक्त मार्ग पर चलकर ही मनुष्य जीवन के वास्तविक लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है।


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