श्रद्धा और उसकी शक्ति

April 1960

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(कुमारी विमला द्विवेदी वी.ए.)

तत्वदर्शी कन्फ्यूशियस का कथन है कि श्रद्धा पर्वतों को भी चलायमान बना देती है।

उक्त वाक्य में एक गम्भीर तत्व निहित है, जो पर्वत बड़े-2 तूफानों और आँधियों के वेग से विचलित नहीं होते हैं, जो पृथ्वी की अन्तराग्नि के विस्फोट को भी झेल जाते हैं, वे श्रद्धा के बल से किस प्रकार से चल-विचल हो जायेंगे, इस बात को मानने में साधारण बुद्धि सिर हिलाती है। परन्तु यदि भाषा के अलंकार पर ध्यान दिया जाये, तो वास्तव में बाधाओं के पर्वत श्रद्धा के बल के सामने से हट ही नहीं जाते, अपितु चूर-चूर हो जाते हैं। आश्चर्य नहीं यदि श्रद्धा की अटलता पर्वतों की अटलता को भी दूर कर दे। श्रद्धा के बल का अनुमान भी सहज नहीं। इसने ऐसे-2 कार्य कर दिखाये हैं जिसकी कल्पना भी कभी किसी ने न की थी।

एकलव्य व्याध अपनी अटल भक्ति एवं श्रद्धा से प्रकाण्ड धनुर्धर हुआ। श्रद्धा के ही सहारे विज्ञानाचार्य चगदीशचन्द्र वसु ने वृक्षों में जीव की कल्पना को प्रत्यक्ष प्रमाणित कर दिया। उनके द्वारा आविष्कृत यन्त्रों का चमत्कार देखकर योरोप अमेरिका आदि पाश्चात्य देश, ओठों पर अंगुली रख गये। बुद्धि, शंकर, नानक ने संसार की विचार धारा को पलट दिया। कोलम्बस, न्यूटन आदि ने क्या-2 कर दिखाया सो भी सभ्य संसार से छिपा नहीं है। भगवान कृष्ण ने गीता में सत्य ही कहा है-

“श्रद्धा वाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः”

अर्थात् जितेन्द्रिय और तत्पर हुआ श्रद्धावान् पुरुष ज्ञान को प्राप्त करता है। फिर वह ज्ञान किसी प्रकार का क्यों न हो। बड़े-2 दार्शनिक, वैज्ञानिक, आविष्कारक, लेखक, योगी, ऋषि, मुनि, वीर योद्धा ही नहीं चोर डाकू तक श्रद्धाँ के आधार पर ही अपने-2 कार्य में सफल हुए।

सफलता की पहली सीढ़ी श्रद्धा ही है। यदि ध्रुव श्रद्धा अर्थात् अटल विश्वास नहीं, तो हम न तो अपनी शक्तियों को एकाग्र कर सकते हैं और न किसी कर्म में तत्पर वा तन्मय हो सकते हैं। हमारे जीवन का लक्ष्य ऐसा हो कि हमारे समस्त जीवन का समावेश उसमें हो जाय। वह हमारे रोम-2 में से अनुबद्ध हों, उसमें हमारा अनन्य भाव हो, दूसरी बात पर हमारा ध्यान ही न जाय। इतना होने पर उसकी सफलता में हमारा अटल विश्वास हो, कोई शक्ति हमें उसकी पूर्ति में योग देने से न रोक सके। हम उसी के लिये जियें, उसी के लिये मरें। सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते हम उसी का चिन्तन करें।

इस प्रकार का अटल विश्वास होने पर हम आत्मनिर्भरता से काम लें। एक बार बुद्धि के बल से ऊँचा और व्यापक लक्ष्य निश्चित करके हम अपने नियम आप बनायें। संसार हमारी उस लगन पर हँसे या वाह-वाह करे, हमें इसकी चिन्ता न हो। हमारा भाव केवल एक हो कि हमने उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये जन्म लिया है, बिना उसे पूरा किये हमें मरने का भी अवकाश नहीं। उसके बिना हमारा जीवन ही निष्फल है। लोक विरोध का भय हमारे पास न फटकने पावे। हमारा ध्रुव विश्वास रहे कि हमारे महान उद्देश्य की सिद्धि में परमात्मा हमारा सहायक है। पवित्र आत्माओं, शुभ कार्यों और महान उद्देश्यों की रक्षा भगवान स्वयं करते हैं। बड़े-2 कर्तव्यशीलों के सामने ऐसी बाधायें आ जाती हैं कि उनके पाँव डिग जाते हैं। निराशा से उनका कलेजा काँपने लगता है, विपत्ति के बादल उन्हें अन्धकार में डुबा देते हैं। ऐसे समय पर कोई मानवों की सहायता काम नहीं देती। ऐसे समय पर कोई मानवों की सहायता काम नहीं देती। उस समय केवल परमात्मा का, हाथ ही उनके सिर पर रहता और उन्हें घुटने टेक देने से बचा लेता हैं। वे मनुष्यों की सहायता की उपेक्षा करते हुए उसे प्रतिफल अपने समीप पाते हैं। उनकी भावना यही होती है कि हम तो निमित्त मात्र हैं, यदि जय है तो परमात्मा की और पराजय है तो उसी की। उसका दया रूपी जल, श्रद्धा की लहलहाती हुई लतिका को बाधाओं के तप्त झोंकों से सूखने नहीं देता।

इन भावों के साथ श्रद्धा वह अभीष्ट फल देती है, जिसकी शीतलता हमारे परिश्रम की थकावट को क्षणमात्र में हर लेती हैं। उस समय हम उस अपूर्व आनन्द को प्राप्त करते हैं जो कर्तव्य पालन के पश्चात् मिला करता है। हमारी श्रद्धा एवं भक्ति हमें वहाँ जाकर बिठा देती है जहाँ से हम अपने बोये हुये बीजों को फूलता-फलता देखकर फूले नहीं समाते। उस समय जो हमारे मार्ग में रोड़े अटकाते थे, वे ही सतृष्णा नेत्रों से हमारी ओर देखते हैं, अपने कर्मों पर पश्चाताप करते हैं।

स्वामी दयानन्द की श्रद्धा जब फल लाई तो उसकी कटुता में भी कितनी मधुरता थी, गुरु गोविन्दसिंह के पुत्रों और ईसा के प्राण लेने वालों को क्या पता था कि उनका सन्देश इतना पवित्र है जिसके सुनने को एक दिन समस्त विश्व लालायित होगा।

विद्यार्थियों की श्रद्धा ही उन्हें अध्ययन के अनेक कष्टों को सहन कराती है और उन्हें आगे बढ़ाती है। यदि उन्हें सफलता में श्रद्धा न होती, तो वे अपने जीवन को क्यों कष्टमय बनाते? उनमें भी “पो पच्छद़ः स एव सः” जैसी जिस की श्रद्धा है, वह वैसा हो जाता है। अन्तःकरण की प्रवृत्ति पर श्रद्धा का सर्वस्व निर्भर है और श्रद्धा की अटलता पर ही हमारे चरित्र का भवन निर्माण होता है। इसलिये जीवन को सफल बनाने के लिये श्रद्धा पूर्वक कार्य करना हमारा परम धर्म है। इटली के उद्धारक महात्मा मैजिनी का यह उप-उपदेश स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य है :-

अपने हृदयों को श्रद्धा से परिपूर्ण करो। केवल मुँह से श्रद्धा का नाम न लो, वरन् अपने रोम-2 में श्रद्धा भरो। अपने मन और वाणी को एक बनाओ अपने आचरणों को पवित्र करो। अपने लक्ष्य की सिद्धि में तन्मय होकर लग जाओ। अपने जीवन को यहाँ तक धर्ममय बनाओ कि लोग तुम्हें धर्म की निस्पृहता की, लोक सेवा की अनन्यता की सात्विक श्रद्धा एवं भक्ति की चलती फिरती मूर्ति समझने लगें। अटल श्रद्धा का ही दूसरा नाम भक्ति है।


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