अपने दृष्टिकोण को परिमार्जित कीजिए।

April 1960

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अधिकाँश व्यक्ति इस संसार में ऐसे हैं जो अपने आपको बहुत, हैरान, परेशान, अभागा और संकट ग्रस्त मानते हैं। इनकी मनोव्यथा सुनी जाय और ये जी खोल कर अपनी अन्तर्वेदना सुनावें तो ऐसा लगता है मानो भगवान् ने संसार का सारा दुख इन्हीं के मत्थे पटक दिया है, बेचारे रात दिन दुखी दशा पर खिन्न रहते हैं, रात-रात भर रोते रहते हैं, नींद नहीं आती। चिन्ता और वेदना में घुलते रहते हैं। कई बार तो ऐसा होता देखा गया है कि दुखी होकर वे आत्महत्या तक कर लेते हैं। कई घर छोड़ कर चले जाते हैं, साधु बाबा जी बन जाते हैं। उन्हें लगता है कि शायद ऐसा करने से उनकी अन्तर्व्यथा दूर हो जायगी।

संसार में कोई व्यक्ति ऐसा नहीं जिसे सब सुख हों, किसी बात का अभाव न हो, सारी परिस्थितियाँ मनोनुकूल ही हों, कोई कष्ट न हो, कभी असफलता न मिले, कोई जिसका विरोधी न हो, ऐसा मनुष्य इस पृथ्वी पर ढूंढ़े न मिलेगा। जहाँ अनेक सुख साधन मनुष्य को भगवान ने दिये हैं वहाँ कुछ थोड़े अभाव रखे हैं। विवेकशील व्यक्ति जीवन में उपलब्ध सुख सुविधाओं का अधिक चिन्तन करते हैं और उन उपलब्धियों पर संतोष प्रकट करते हुए प्रसन्न रहते हैं और उस कृपा के लिए ईश्वर को धन्यवाद देते रहते हैं। थोड़े से अभाव एवं कष्ट उन्हें वैसे ही कौतूहल वर्धक लगते है जैसे माता अपने सुन्दर बालक के माथे पर काजल की बूँद लगा कर “डिढौरा” बना देती है कि कहीं ‘नजर’ न लग जाय।

इसके विपरीत अनेकों लोग उपलब्ध अनेकों सुख साधनों को तुच्छ मानते हैं और जो थोड़े से कष्ट एवं अभाव हैं उन्हें ही पर्वत तुल्य मान कर अपने आपको भारी विपत्तिग्रस्त अनुभव करते हैं। ऐसे लोग निरन्तर असन्तुष्ट रहते हैं, अपने सभी सम्बन्धित लोगों पर दोषारोपण करते रहते हैं ईश्वर को गाली देते हैं कि उसने हमें अमुक अभाव क्यों दिया? भाग्य को कोसते हैं कि वह इतना दुर्भाग्यपूर्ण क्यों है? माता-पिता और अभिभावक को बुरा कहते हैं कि उन्होंने अमुक साधन नहीं जुटाये जिससे हम उन्नतिशील स्थिति में होते? मित्रों और अफसरों को कोसते हैं कि उन्होंने उन्नति के लिए असाधारण सहयोग देकर बड़ा क्यों नहीं बना दिया? परिस्थिति,ग्रहदशा,दुनिया की बेवफाई, कलियुग का जमाना आदि जो भी उनकी समझ में आता है उसे बुरा भला कहते हैं और अपनी कठिनाईयों का दोष उनके मत्थे मढ़ते रहते हैं।

ऐसे लोगों की अधिकाँश मानसिक शक्ति इस रोने झींकने में ही चली जाती है। उनके बहुमूल्य समय का बहुत सा भाग इस कोसते रहने की प्रक्रिया में नष्ट हो जाता है। जिस समय का उपयोग वे अपनी कठिनाइयों को पार करने का उपाय सोचने और प्रयत्न करने में कर सकते थे उसको वे अपनी खिन्नता बनाये रखने और बढ़ाने में करते हैं। यह तरीका अपने समय और बल को नष्ट करने का ही है इसमें लाभ कुछ नहीं, उलटे उन कीमती शक्तियों के नष्ट होने की हानि ही है जिन्हें यदि बर्बाद होने से बचा लिया गया होता तो वे कठिनाईयों का एक बहुत बड़ा भाग आसानी से हल कर देतीं।

जीवन को शान्तिपूर्ण रीति से व्यतीत करने का तरीका यह है कि हम अपनी कठिनाइयों का मूल्य बढ़ा-चढ़ाकर न आँके। वरन् उतना ही समझें जितनी कि वे वास्तव में है तो हमारी अनेकों दुश्चिंताएं आसानी से नष्ट हो सकती हैं।

एक विद्यार्थी परीक्षा में अनुत्तीर्ण होता है। फेल होने के समाचार से उसका मानसिक सन्तुलन डगमगा जाता है। वह इस असफलता को वज्रपात जैसी मानता है। सोचता है सारी दुनिया मुझे धिक्कारेगी, मूर्ख या आलसी समझेगी, मित्रों के सामने मेरी सारी प्रतिष्ठा धूल में मिल जायगी, अभिभावक कटु शब्द कह कर मेरा तिरस्कार करेंगे, यह कल्पना उसे असह्य लगती है, चित्त में भारी क्षोभ उत्पन्न होता है और रेल के आगे कटकर, नदी में कूद कर या और किसी प्रकार वह अपनी आत्महत्या कर लेता है। घर भर में कुहराम मच जाता है। वृद्ध माता-पिता रो-रो कर अन्धे हो जाते हैं। एक उल्लास पूर्ण हंसते खेलते घर का वातावरण शोक, क्षोभ और निराशा में परिणत हो जाता है। इस विपन्न स्थिति को उत्पन्न करने में सारा दोष उस गलत दृष्टिकोण का है जिसके अनुसार एक छोटी सी असफलता का मूल्य इतना बढ़ा-चढ़ा कर आँका गया।

एक दूसरा विद्यार्थी भी उसी कक्षा में अनुत्तीर्ण होता है। उसे भी दुख होता है पर वह वस्तुस्थिति का सही मूल्याँकन कर लेता है और सोचता है इस वर्ष बोर्ड की परीक्षा फल 43 प्रतिशत ही तो रहा। मेरे समान अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों की संख्या 57 प्रतिशत है। वर्तमान परिस्थितियों में अनुत्तीर्ण होना एक साधारण सी बात है इसमें सदा विद्यार्थी ही दोषी नहीं होता वरन् प्रायः शिक्षकों की उदासीनता बिना पढ़े हुए विषयों के पर्चे आ जाना और नम्बर देने वालों की लापरवाही भी उसका कारण होती हैं। इस वर्ष अनुत्तीर्ण हो गये तो अगले वर्ष अधिक परिश्रम करने से अच्छे डिवीजन में उत्तीर्ण होने की आशा रहेगी आदि बातों से अपने मन को समझा लेता है और अनुत्तीर्ण होने की खिन्नता को जल्दी ही अपने मन में से हटाकर आगे के कार्यक्रम में लग जाता है।

दोनों ही छात्र एक ही समय एक ही कक्षा में अनुत्तीर्ण हुए थे। एक ने आत्महत्या कर ली दूसरे ने उस बात को मामूली मान कर अपना साधारण क्रम जारी रखा। अन्तर केवल समझ का था परिस्थिति का नहीं। यदि परिस्थिति का होता तो दोनों को समान दुख होना चाहिए था और दोनों को आत्महत्या करनी चाहिए थी। पर ऐसा होता नहीं, इससे स्पष्ट है कि परिस्थितियों के मूल्याँकन में गड़बड़ी होने से मानसिक सन्तुलन बिगड़ा और उसी से दुर्घटना घटित हुई।

हमें चाहिए कि अपनी कठिनाइयों को बड़ा चढ़ा कर न देखें, वरन् उनको दूसरे अधिक आपत्ति ग्रस्त लोगों के साथ तुलना करके अपने आपको अपेक्षाकृत कम दुखी अनुभव करें। आपको आर्थिक कठिनाई रहती है, सभ्य सोसाइटी के लोगों जैसा जीवन यापन करने में वर्तमान आर्थिक स्थिति कुछ दुर्बल मालूम पड़ती है। थोड़ा आर्थिक अभाव अनुभव होता है और चिन्ता रहती है। इस स्थिति से छुटकारा प्राप्त करने के कई उपाय हो सकते हैं एक यह कि कुछ अधिक उपार्जन करने का प्रयत्न किया जाय। वर्तमान समय में जितना श्रम, समय और मनोयोग व्यवसाय में लगाया जाता है उससे अधिक लगाया जाए, कोई और सहायक धंधा ढूंढ़ा जाए या वर्तमान व्यवसाय में ही जो आय बढ़ने के उपाय संभव हों और दौड़-धूप करके जुटाया जाए। दूसरा तरीका यह हो सकता है कि अपने खर्चे कम किये जाएं। दुनिया में सभी तरह के गरीब-अमीर लोग रहते हैं, अपनी-अपनी आमदनी के अनुसार जीवन यापन करने की योजना बनाते हैं। यदि अपनी आमदनी कम है तो क्यों न कम खर्च का बजट बनाकर काम चलाया जाए? खर्चा घटा लेने से कुछ सुविधाएं कम हो सकती हैं पर उस कमी का दुख उतना न होगा जितना बढ़े हुए खर्च की पूर्ति न होने पर दिन रात चिन्तित रहने के कारण होता है।

यदि दोनों प्रकार के प्रयत्न करते हुए भी समस्या हल नहीं होती तो किसी प्रकार काम चलाऊ रास्ता निकाल कर उसी में प्रसन्न और संतुष्ट रहने की कोशिश करनी चाहिए। अपने से अधिक दुखी लोगों के साथ अपनी तुलना करने से मनुष्य यह अनुभव कर सकता है कि कुछ कष्ट होते हुए भी भगवान पर उसकी बड़ी कृपा है कि उसने उतना दुखी नहीं बनाया जितने अन्य लोग दुखी हैं। अस्पतालों में पड़े हुए बीमार, अंग-भंग, साधनहीन, संकट जंजालों में फँसे हुए, पारिवारिक उलझनों में बुरी तरह उलझे हुए अनेकों व्यक्ति इस संसार में बहुत ही दयनीय स्थिति में जीवन यापन करते हैं। उनसे अपनी तुलना की जाए तो प्रतीत होगा कि उनकी अपेक्षा अपनी स्थिति हजारों गुनी अच्छी है। यदि पशु पक्षियों, कीट पतंगों से अपनी तुलना की जाए तब तो निश्चय ही यह प्रतीत होगा कि अपने को प्राप्त सुविधाएं इतनी अधिक हैं कि इन थोड़ी सी कठिनाइयों को नगण्य ही माना जा सकता है।

इसी प्रकार जो व्यक्ति अभी हमें बुरे और अपने शत्रु प्रतीत होते हैं, उनके कुछ अपकारों की बात सोचना छोड़कर यदि उनके उपकारों को उनके द्वारा किये हुए सद्व्यवहारों को स्मरण करें तो निश्चय ही वे हमें शत्रु नहीं मित्र दिखाई पड़ेंगे। माता-पिता ने हमें एम.ए. तक नहीं पढ़ाया, यदि वे उतनी शिक्षा दिला देते तो आज हम ऊँची सर्विस प्राप्त करते होते, यह विचार मन में आने पर माता-पिता शत्रु जैसे प्रतीत होते हैं उनके प्रति द्वेष एवं दुर्भाव उत्पन्न होता है। पर यदि हम अपनी विचार धारा बदल दें और उनने जिन आर्थिक कठिनाइयों में रहते हुए उतने बड़े कुटुम्ब का पालन करते हुए, हमारा पालन पोषण किया एवं जितनी संभव थी उतनी शिक्षा व्यवस्था की, तो उनके उपकारों के प्रति मन श्रद्धा से झुक जाएगा और वे मित्र ही नहीं देवता के समान उपकारी प्रतीत होंगे।

दृष्टिकोण में थोड़ा अन्तर कर देने से हम असंतुष्ट और खिन्न जीवन को संतोष में परिणित कर सकते हैं। ईश्वर ने सुर दुर्लभ मानव जीवन प्रदान करके इतनी बहुमूल्य सम्पदा हमें प्रदान की है कि उसका मूल्य लाखों करोड़ों रुपयों में भी नहीं चुकाया जा सकता। जैसा शरीर कुल, सम्मान, विद्या, परिवार आदि अपने को प्राप्त है उसमें से प्रत्येक को विशेषता और सुविधा का चिन्तन करें, साथ ही यह भी सोचें कि यदि यह बातें उपलब्ध न होती तो उनके अभाव में अपना जीवन कितना नीरस होता- तो इस चिन्तन से हमें प्रतीत होगा कि हमारी वर्तमान परिस्थिति दुख दारिद्र से भरी नहीं, वरन् सुख सुविधाओं से सम्पन्न है।

दूसरों के द्वारा अपने प्रति जो उपकार हुए हैं उनका यदि हम विचार करते रहें तो यही अनुभव होगा कि हमारे निकटवर्ती सभी लोग बड़े उपकारी और सेवाभावी और स्वर्गीय प्रकृति के हैं। इनके साथ रहने में अपने को सुख ही सुख अनुभव करना चाहिए। इसके विपरीत यदि उनके दोष ढूँढ़ने लगे और उन घटनाओं को स्मरण किया करें जिसमें उनने कुछ अपकार किये तो हमें अपने सभी स्वजन संबंधी बड़े दुष्ट प्रकृति के, अपकारी, असुर एवं शत्रु प्रतीत होंगे और ऐसा लगेगा कि इन लोगों का संपर्क हमारे लिए नरक के समान दुखदायी है।

इस संसार का निमार्ण सत और तम शुद्ध और अशुद्ध, भले और बुरे तत्वों से मिल कर हुआ है। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो पूर्णतः बुरा या पूर्णतः भला हो। समय-समय पर यह भली-बुरी परिस्थितियाँ दबती और उभरती रहती हैं। धूप-छाँव की तरह प्रिय और अप्रिय अवसर आते जाते रहते हैं। इनमें से किसे स्मरण रखा जाय और किसे भुलाया जाय यही विचार करना बुद्धिमत्ता का चिन्ह है। यदि हम दुखों को, अभावों को, असफलताओं को, दूसरों के अपकारों को ही स्मरण किया करें तो यह जीवन नरकमय दुखों से भर जायगा। हर घड़ी खिन्नता, निराशा और असंतुष्टि चित्त में छाई रहेगी। पर यदि दृष्टिकोण बदल लिया जाय और प्रिय प्रसंगों, सफलताओं, प्राप्त साधन सम्पदा के लोगों और दूसरों के किये हुए उपकारों को स्मरण किया जाय तो प्रतीत होगा कि भले ही थोड़े अभाव आज हों पर उनकी तुलना में सुख दायक वातावरण ही अधिक है, दुर्भाग्य की अपेक्षा सौभाग्य की ही स्थिति अपने को अधिक उपलब्ध है।

जीवन को सुख शान्तिमय बनाने के लिए सुविधा सामग्रियों की आवश्यकता अनुभव की जाती है, सो ठीक है। इसके लिए भी प्रयत्न करना चाहिए। पर यह भी न भूल जाना चाहिए कि जो प्राप्त है उसका सदुपयोग किया जाय। उपलब्ध साधनों का सदुपयोग यदि हम सीख जायं, हर वस्तु का मितव्ययितापूर्वक उपयोग करें, उसका पूरा-पूरा लाभ लें तो जो कुछ प्राप्त है वही हमारे आनन्द को अनेकों गुना बढ़ा सकता है। अपनी धर्मपत्नी जैसी भी कुछ वह है यदि उसे अधिक शिक्षित, अधिक सुयोग्य बनाया जाय और उसके स्वभाव तथा गुणों का अपने कार्यक्रमों में ठीक प्रकार उपयोग किया जाय तो यही पत्नी जो आज व्यर्थ का बोझ जैसी मालूम पड़ती है- अत्यंत उपयोगी एवं लाभदायक प्रतीत होने लगेगी। जितनी आजीविका आज अपने को प्राप्त है यदि उसके खर्च को ही विवेक और मितव्ययितापूर्वक ऐसी योजना बनाई जाय कि प्रत्येक पैसे से अधिकाधिक लाभ उठाया जा सके तो यह आज की थोड़ी आजीविका भी आनंद और सुविधाओं में अनेक गुनी वृद्धि कर सकती है। इसके विपरीत यदि अपना दृष्टिकोण अस्त व्यस्त है तो बड़ी मात्रा में सुख−साधन उपलब्ध होते हुए भी वे कुछ लाभ न पहुँचा सकेंगे वरन् ‘जी के जंजाल’ बनकर परेशानियाँ और उलझनें ही उत्पन्न करेंगे।

सुखी जीवन की आकाँक्षा सभी को होती है। वह उचित और स्वाभाविक भी है पर उसकी उपलब्धि तभी संभव है जब हम अपने दृष्टिकोण की त्रुटियों को समझें और उन्हें सुधारने का प्रयत्न करें। सुधरा हुआ दृष्टिकोण की त्रुटियों को समझें और उन्हें सुधारने का प्रयत्न करें सुधरा हुआ दृष्टिकोण स्वल्प साधनों और कठिन परिस्थितियों में भी शान्ति और सन्तोष को कायम रख सकता है। गरीबी में भी लोग स्वर्ग का आनन्द उपलब्ध करते देखे जाते हैं। पर यदि दृष्टिकोण अनुपयुक्त है, तो संसार के समस्त सुख साधन उपलब्ध होते हुए भी हमें सुखी न बना सकेंगे। अतएव सुखी जीवन की आकाँक्षा करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को उचित है कि अपने दृष्टिकोण को परिमार्जित बनाने के लिए निरन्तर प्रयत्न करता रहे।


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