हम दूसरों के गुणों पर ही ध्यान दें।

April 1960

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(श्री रामानन्द तीर्थ)

जब कोई उपयोगी या होनहार आँदोलन उठाया जाता है तभी हमारे देश में दलबन्दी का भाव उत्पन्न होता है और उस आन्दोलन के नेता के चरित्र सम्बन्धी दोषों की चर्चा आरम्भ हो जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि अनेक फल- कली की अवस्था अथवा शैशव काल में ही मसल डाले जाते हैं।

उस दिन एक दूध बेचने वाले लड़के को देखा जो एक घर में दूध से भरी कुछ बोतलें लेकर जा रहा था। संयोग से एक बोतल उसके हाथ से फिसल पड़ी और टूट गई। इस पर उसका क्रोध भभक उठा और बाकी बोतलें भी उसने सड़क पर दे मारीं।

हमारे देश के ये ईर्ष्यालु अथवा छिद्रान्वेषी लोग भी ऐसी ही मनोवृत्ति का परिचय दिया करते हैं। वे किसी व्यक्ति में एक साधारण सी त्रुटि देखकर उसके अन्य समस्त अच्छे लक्षणों की तरफ से आँखें बन्द कर लेते हैं इसका परिणाम यह होता है कि लोगों की जो शक्तियाँ अपना और दूसरों का हित साधन करने में लगनी चाहिये थी, वे अकारण जाती हैं। इतना ही नहीं ऐसी सन्देहात्मक प्रवृत्ति का यह ही प्रभाव होता है कि अनेक अच्छे व्यक्ति श्रेष्ठ कर्म को त्याग कर हानिकारक कार्यों में प्रवृत्त हो जाते हैं क्योंकि जैसी कहावत है कि “किसी को चोर-चोर कहो तो वह सचमुच चोरी करने लग जायगा।”

पर क्या ऐसे लोगों को कोई ऐसा आधार नहीं दिखलाई पड़ता जिस पर खड़े होकर वे सबके साथ मिल-जुलकर काम कर सकें? क्या हमारे पड़ोसियों में कोई प्रशंसनीय गुण नहीं है? ऐसे लोगों से हम पूछना चाहते हैं कि उनको शुद्धता-अशुद्धता के नाम पर अपने मन से “ईश्वर की खुफिया पुलिस” बनने और दूसरे मनुष्यों के निजी (प्राइवेट) चरित्र में झाँकने का क्या अधिकार है? जिस मनुष्य का सार्वजनिक चरित्र देश के लिये उपयोगी सिद्ध हो रहा है उसकी चरित्र सम्बन्धी गुप्त बातों में सर खपाने से क्या लाभ हो सकता है? वह अपने व्यक्तिगत आचरण का हिसाब अपने परमेश्वर को स्वयं ही देगा। हम हस्तक्षेप करने वाले कौन हैं? दूसरों के गुण-दोषों पर विचार करने में हमारी जितनी शक्ति का अपव्यय होता है, उसे यदि हम अपने आदर्शों के अनुसार कार्य करने में लगाया जाय तो कितना लाभ हो सकता है। ये लोग इस बात पर भी ख्याल नहीं करते कि क्या ऊपर से दबाव डालने पर कोई व्यक्ति जरा सा भी सदाचारी बन सकता है? हम तो यह भी मानने को तैयार नहीं हैं कि सर्वसाधारण में जो प्रथायें या भावनायें प्रचलित हो गई हैं तदनुसार आचरण करना ही प्रशंसनीय अथवा शुद्ध है। यह तो एक बड़ी कमजोरी की बात है। काँटों के कारण हम गुलाब को त्याग नहीं देते। एक हलवाई चाहे भूसी खाकर जीवन निर्वाह करता हो, पर इस कारण हम उसकी बनाई हुई मिठाई का त्याग नहीं कर सकते। जो वस्तु किसी एक मनुष्य के पेट के भीतर जाती है,वह दूसरे मनुष्य को भ्रष्ट नहीं कर सकती, इसके विपरीत जो वस्तु उस मनुष्य के भीतर से निकलती है वही दूसरे को बिगाड़ सकती है। यदि स्वामी विवेकानन्द किन्हीं चीजों को खाते और पीते हैं तो क्या हुआ? जब तक उनसे उत्तम उपदेश आते हैं तब तक हमें परवाह नहीं कि उनके पेट के भीतर क्या प्रवेश कर रहा है। शिक्षक के व्यक्तित्व का विचार न करके हमको उसकी शिक्षा-प्रणाली के गुण-दोषों को परखना चाहिये। चित्रकार कुरूप है, तो क्या इस कारण हमको उसके बनाये सुन्दर चित्रों का तिरस्कार करना चाहिये? सर फ्राँसिस बेकन के घूसखोर होने के कारण क्या उनके द्वारा लिखे तर्क-शास्त्र के अनमोल ग्रंथ को फेंक देना चाहिये? अब इस बीसवीं सदी में तो हमको इतनी विवेक बुद्धि जागृत कर लेना चाहिये कि हम मनुष्यों के व्यक्तिगत चरित्र और उनके उपदेशों तथा सत्कार्यों को एक साथ मिलाकर न तोलें। कीचड़ से भरी कच्ची पोखर में उत्पन्न होने के कारण क्या हम सुन्दर कमल का तिरस्कार कर सकते हैं।

तुच्छ समझे जाने वाले बन्दरों को अद्वितीय सेना में परिणित कर देने ही में राम की बड़ाई थी पवित्र और विशुद्ध आत्मा से कौन मिल-जुलकर नहीं रह सकता? किन्तु महात्मा वही है जिसकी विशाल सहानुभूति और मातृवत् हृदय पापियों और नीचों को भी अपने विस्तृत अंक में समेट लेते हैं।

हमारे यहाँ रसोई घर से सम्बन्ध रखने वाली तुच्छ बातों को ही इतना अधिक महत्व दिया जाता है और उसके लिये समय तथा शक्ति का इतना अपव्यय किया जाता है कि हमको आध्यात्मिक और शारीरिक विकास का अवसर ही नहीं मिलता। निस्सन्देह ऐसा “रसोई धर्म” जो अनन्त, अमर आत्मा को निकम्मा बना दे, शोचनीय है । पथभ्रष्ट और सनकी उपदेशक ही अपने पड़ोसियों के व्यक्तिगत आचरणों की निन्दा किया करते हैं। पर हम उनसे पूछते हैं कि क्या स्वयं तुम्हारा उद्धार हो चुका है? वे नहीं जानते कि अपने आन्तरिक जीवन की रक्षा वही कर सकता है जो अपने साँसारिक जीवन को खो बैठे। यदि तुम कहो कि हम ऐसे ही जीवनमुक्त पुरुषों में से एक हैं तो मैं कहूँगा कि उठो और जगत के उद्धारक बन जाओ। बुद्ध भगवान प्रायः एक वेश्या के घर पर अतिथि हुआ करते थे। महात्मा ईसा ने मेरी मेगडालीन नाम की व्यभिचारी दोषी स्त्री को अपने पास बैठाया था। इसलिये जब तक हम दूसरों के दोषों पर जोर देते रहेंगे तब तक लोगों में प्रेम और मेल हर्गिज नहीं हो सकता।

हर व्यक्ति को हर एक दशा में होकर गुजरना पड़ता ही है। जैसे प्रकृति के नियमानुसार प्रत्येक मानव देह को शिशु अवस्था, बाल्यावस्था, युवावस्था आदि को पार करना पड़ता है। ठीक उसी प्रकार नैतिक और आध्यात्मिक जगत में भी शिशुता और बाल्यकाल की अवस्था में अनिवार्य है। पापी कहे जाने वाले हमारे नैतिक क्षेत्र के बच्चे हैं। जिनको भ्राँतिवश तुम “पतित” कहते हो, उनका अभी “उत्थान” नहीं हुआ है। वे अभी विद्यालय के नये विद्यार्थी हैं, जैसे कि कभी तुम भी थे।

कुछ लोग विश्वव्यापी प्रेम के विषय में बहुत होहल्ला मचाते हैं, परन्तु फिर भी अपने नेत्रों को अपने आश्रितों के चरित्र सम्बन्धी दोषों पर गाड़े रखते हैं और इस परस्पर विरोधी भावना को छुपाने के लिए कहते हैं कि “हम पाप से घृणा करते हैं, पर पापी से प्रेम करते हैं।” पर मैं आपको यही बताऊँगा कि जब तक आप किसी में भद्दापन (दोष) देख रहे हैं तब तक आप उससे कभी प्रेम नहीं कर सकते। प्रेम का अर्थ है सुन्दरता का, उत्तमता का देखना व अनुभव करना।

अन्धकार से लड़ाई लड़कर उसे कदापि दूर नहीं किया जा सकता। एक अँधेरे घेरे कमरे में यदि हम सब ओर ढेले फेकें, डंडा फटकारें, दरवाजों के शीशों को चूर-चूर कर दें, मेज और लौट-पौट दें, और और बराबर कोसते रहें, निन्दा करते रहें तो क्या इससे अन्धकार दूर हो जायगा? नहीं, अन्धकार को दूर करने का उपाय एक मात्र यही है कि वहाँ कोई लालटेन, मोमबत्ती आदि जलाओ, अन्धकार स्वयं ही दूर हो जाएगा। इसी प्रकार निषेधार्थक (खण्डन करने वाला) छिद्रान्वेषण, तेज को ठण्डा करने वाली, उत्साह को मन्द करने वाली प्रक्रिया से कभी मामला न सुधरेगा। आवश्यकता है केवल असंदिग्ध, प्रफुल्लित आशाजनक, प्रेमपूर्ण, उत्साह वर्धक भाव की सफाई के उद्देश्य से यदि समस्त कीचड़ नालियों से निकाल कर सड़क पर फैला दिया जाए तो क्या इससे कोई अच्छा परिणाम निकल सकेगा? कदापि नहीं? इसी प्रकार दूसरे के दोषों पर जोर देने से कोई भलाई न होगी। शाँति और सद्भाव रूपी ताजे जल की धारा को नाली में बहने दो तो सारी गन्दगी धुल जाएगी। कहा जाता है कि बादशाह अकबर ने एक लकीर खींचकर अपने बुद्धिमान मन्त्री बीरबल से कहा कि इस लकीर को किसी भी तरफ से बिना काटे या मिटाये छोटा कर दो। बीरबल ने उसके पास दूसरी बड़ी रेखा खींचकर अकबर की रेखा छोटी कर दी। यही ढंग है। बड़ी रेखा खींचना बुद्धिमानी है। जिस तरह बीरबल ने अकबर को भीतर से विश्वास करा दिया कि उसकी रेखा छोटी हो गई, इसी तरह लोगों को भीतर से उनकी त्रुटियों का बोध करा देना ही सच्चा छिद्रान्वेषण या आलोचना है। इसके बजाय निरर्थक गुराना या विलाप करना व्यर्थ है। हमें हरेक वस्तु की सुन्दरता देखनी चाहिए। कहा है कि “बुरों पर भौंको मत, किन्तु भालों की सुन्दरता का बखान करो।” यही सुधार का सच्चा मार्ग है।


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