सविता की महान शक्ति सावित्री

December 1959

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(श्री शम्भूसिंह कौशिक)

महर्षियों द्वारा विचरित प्राचीन ग्रंथों में सावित्री अथवा गायत्री को परमब्रह्म की महाशक्ति प्राप्त करने का सर्व सुलभ साधन बतलाया गया है। इस मंत्र में जो ‘सवितु’ शब्द दिया गया है उसका अर्थ भौतिक सूर्य मंडल से नहीं समझना चाहिये, वरन् उसका अर्थ विश्व की प्रेरक शक्ति अर्थात् परमात्मा से ही मानना ठीक है। ‘सविता” और “सावित्री” का रहस्य प्रकट करने वाले वचन भिन्न-भिन्न उपनिषदों में स्थान-स्थान पर मिलते हैं। उनके अर्थ पर सम्मिलित रूप से ध्यान देने पर गायत्री सर्व व्यापकता स्पष्ट प्रकट हो जाती है। इस प्रकार एक उदाहरण यहाँ दिया जाता है-

कः सविता का सावित्री?

अग्नि रेव सविता पृथिवी सावित्री

कः सविता का सावित्री?

बरुण एव सविताऽऽपः सावित्री।

कः सविता का सावित्री?

वायु रेव सविताऽऽकाशः सावित्री

कः सविता का सावित्री?

आदित्य एव सविता द्योः सावित्री।

भावार्थ यह कि सविता और सावित्री कौन हैं? इस प्रश्न के उत्तर में उपनिषद्कार कहते हैं कि अग्नि, वरुण, वायु, यज्ञ, पर्जन्य, सूर्य, चन्द्र, मन आदि सविता के रूप हैं और इनकी शक्ति स्वरूपा पृथ्वी, जल, आकाश, विद्युत, द्यौः, नक्षत्र, वाक् आदि सावित्री हैं।

अब यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि अगर गायत्री मंत्र निराकार, अचिन्त्य परमात्मा का निर्देश करता है तो फिर उसकी उपासना में सूर्य मंडल को क्यों सम्मिलित किया गया? इसका उत्तर यही है कि यद्यपि हम सबमें गर्मी का अस्तित्व है, पर जो वस्तु या व्यक्ति हमसे अधिक गरम होता है उसे छूने से गरमी का अनुभव होता है। इसी प्रकार ईश्वरीय शक्ति सब वस्तुओं में है, पर जिनमें उसका परिणाम अधिक होता है। उन्हीं में हमको उसका प्रत्यक्ष दर्शन हो सकता है और उन्हीं का उदाहरण देते हैं। इससे अतिरिक्त चीजों का आकार नहीं होता। उनके गुणों को समझाने के लिये कोई भौतिक वस्तु ही बताई जाती है। जैसे हम अगर मीठा या चरपरा स्वाद किसी अनजान व्यक्ति को समझाना चाहें तो उसके लिये गुड़ और मिर्च की सामने रखने से ही काम चल सकता है।

यहाँ जो सूर्य मंडल को प्रतीक माना गया है वह बहुत उपयुक्त है। यह तो सभी जानते हैं कि हमारी पृथ्वी सूर्य का एक छोटा सा अंश (ग्रह) है। साथ ही यह भी विदित है कि पृथ्वी पर समस्त प्राणियों और वनस्पति की उत्पत्ति और पालन बिना सूर्य किरणों के सम्भव ही नहीं है। योरोप के वैज्ञानिकों ने तो अब सन् 1700 के लगभग यह पता लगाया था कि सूर्य की किरणों में सात रंग शामिल है, पर हमारे देश में हजारों वर्ष पहले शास्त्रों में लिख दिया गया था-

भ्राजते दीप्यते यरमाज्जगदन्ते हरत्यापि।

कलाग्नि रूप मास्थाय सप्तार्चि सप्तरश्मिभिः॥

इसमें याज्ञवलक्य जी ने स्पष्ट कह दिया है कि “सूर्य की सात किरणें” हैं। इन्हीं सात किरणों को पुराणों में सूर्य के रथ में जुते हुये सात घोड़े कह दिया गया है। अब अनेक वैज्ञानिक इन रंगों को रंगीन कांचों द्वारा पृथक करके उनसे व्याधियों की चिकित्सा करने लग गये हैं। इधर भारतीय चिकित्सा ग्रंथों में “आरोग्य भास्करादिच्छेत्” आदि वाक्य पहले से ही मौजूद हैं। जिनसे विदित होता है कि इस देश की चिकित्सा प्रणाली में भी सूर्य किरणों को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया था।

गायत्री की सर्वव्यापकता

कुछ लोग यह शंका करते हैं कि जब गायत्री मंत्र शब्द रूप है और मंत्र में जिस विषय को प्रतिपादित किया गया है वह भर्ग (तेज) स्वरूप है, तो यह दोनों पदार्थ भिन्न-भिन्न प्रकृति के हैं। “भर्ग को तो सर्वव्यापक स्वीकार किया जा सकता है, पर शब्द स्वरूप गायत्री किस प्रकार सर्वव्यापी हो सकती है ?

इस शंका के समाधान के लिये हमें वाक्(वाणी) और अर्थ के सम्बन्ध को भली प्रकार समझना पड़ेगा। दो दालों से बने चना, मूँग आदि पदार्थों को जब उगाया जाता है तो उनके सदैव दो पत्ते ही निकलते हैं। इसी प्रकार जगत में भी पिता और माता का शुक्र शोषित घटित बीज गर्भ में स्थापित होता है और उसी से चैतन्यता युक्त मानव का विकास होता है।

वाक् भी आत्मा की एक अमृत कला है। इसी प्रकार चिद् ब्रह्म की अभिव्यक्ति के दो पहलू हैं एक अर्थानुभूति और दूसरा वाक् स्फुरणा। ये दोनों एक ही हैं। जिस प्रकार मंत्र और देवता में कोई अंतर नहीं है उसी प्रकार वाक् और अर्थ भी एक ही हैं। ये एक ही आत्मा की अभिव्यक्ति है, इन दोनों का तादात्म्य होना स्वाभाविक ही है। इसी प्रकार गायत्री मंत्र और उसका देवता ‘भर्ग’ ये दोनों समान रूप से सर्वत्र व्याप्त हैं।


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