हमारा भूत और भविष्य

December 1959

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(भगवती देवी शर्मा, धर्मपत्नी पं. श्रीराम शर्मा आचार्य)

इस अंक के साथ ‘अखण्ड ज्योति’ को 20 वर्ष पूरे होकर 21 वाँ आरम्भ होता है। इस लम्बे समय में कितनी यात्रा की जा चुकी इस पर दृष्टिपात करने से परिवार के प्रत्येक सदस्य का मस्तक गर्व से ऊँचा हो सकता है। अखण्ड ज्योति पत्रिका अब से 20 वर्ष पूर्व आरम्भ की गई थी। तब परमपूज्य आचार्य जी के मस्तिष्क में एक ही आकाँक्षा थी कि इस देवभूमि भारत में पुनः देवत्व की अमृतमयी सुरसरी वैसे ही प्रवाहित हो जैसे प्राचीन काल के ऋषि युग में यहाँ प्रवाहित होती थी और उस अकृत जल से अभिसिंचित होकर इस उद्यान का प्रत्येक प्रफुल्लित पौधा-इस देवलोक का प्रत्येक मानव अपने यज्ञ विचारों की सुगन्ध तथा श्रेष्ठ कार्य के सौंदर्य द्वारा सर्वत्र आनन्द एवं उल्लास बखेरता था।

कर्मनिष्ठ की तरह, एक नैष्ठिक तपस्वी की तरह इस उजड़े उद्यान में आचार्य जी ने अपने स्वेद बिन्दु बहाये-फलस्वरूप आज आशाजनक हरियाली की लहलहाती खेती चारों ओर दिखाई देती है। लेखक कितने ही इस देश में मौजूद हैं। अखबार निकालने वालों और पुस्तकों की रचनाएं करने वालों की भी कमी नहीं है, ‘अखण्ड ज्योति’ की या यहाँ के प्रकाशन की उन लोगों की कृतियों से तुलना की जाए तो अपना पलड़ा हर दृष्टि से हलका ही रहेगा। पर बात कुछ और ही थी। पत्रिका निकाली गई केवल विचारों के विस्तार की सुविधा के लिए। वस्तुतः इसके पीछे एक अत्यन्त महत्वपूर्ण मिशन-एक क्रमबद्ध कार्यक्रम था। पत्रिका उसका एक सहायक अंक मात्र थी। जो करना था, किया जाता था तो उस तरह किया गया जिस तरह भागीरथ ने अपना जीवन गला कर किया था। गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिए-तृषित भूभाग के क्रोड़ में, और वनस्पतियों को तृप्त और विकसित करने के लिए जिस तरह भागीरथ चिरकाल तक, एक पाँव से खड़े रहे और अपना लक्ष्य पूर्ण होने तक गंगावतरण होने तक अडिग रूप से अपनी तपस्या में संलग्न रहे उसी का अनुकरण पूज्य आचार्य जी ने किया है। इस लम्बी अवधि में उनकी तपस्या का बहुत कुछ परिणाम दिखाई पड़ने लगा है। यद्यपि यह साधना अभी पूर्ण नहीं हुई। अभी वह और भी तीव्र तत्परतापूर्वक जारी रहेगी और जिस ज्ञान गंगा की अभी फुहारें ही ऊपर से उत्तर सकी हैं उसे अन्ततः देवभूमि में अवतीर्ण होने तक यह महाअभियान जारी रहना ही है।

पिछले बीस वर्षों में ‘अखण्ड ज्योति’ केवल अपने अंक निकालती रही है। पाठकों का मनोरंजन करने वाले लेख ही छापती रही हो ऐसी बात नहीं है। उसने असंख्यों निष्प्राणों में प्राण फूँके हैं और अगणित मनुष्यों का कायाकल्प किया है। ऐसे लोगों की संख्या दसियों हजार हैं जिनके जीवन पहले बहुत ही निम्न श्रेणी के थे- पापों−तापों में, विषय विकारों में, ईर्ष्या तृष्णा में जो निरन्तर जलते रहते थे, पर जब से उनने इस पारस का स्पर्श आरंभ किया तब से उनके शरीर भले ही ज्यों के त्यों ही हो आत्मिक दृष्टि में कायाकल्प ही हों गया। उन्हें गृहस्थ में रहते हुए विरक्त, सादा कपड़े पहनने वाला सन्त कहा जा सकता है। इस आत्मिक कायाकल्प का प्रभाव केवल उन तक सीमित रहा हो सो बात नहीं है, उनके सारे परिवार पर, कुटुम्बी सम्बन्धियों पर भी उसकी छाप पड़ी और उनने भी अपने को पूर्व स्थिति की अपेक्षा सन्मार्ग की दिशा में काफी अग्रसर बना लिया। व्यक्तियों से समाज बनता है। अच्छे व्यक्ति-सन्मार्गगामी व्यक्ति यदि बढ़े तो निश्चय ही हमारा समाज का, राष्ट्र का, धर्म का मस्तक ऊंचा होता है।

समाज सुधार के प्रयत्न दूसरे लोग पत्ते सींचकर कर रहे हैं। अमुक बुराई छोड़ो अमुक कुरीति त्यागो अमुक आदत छोड़ो अमुक काम करो, अमुक मत करो की पुकार चारों ओर से उठ रही है। एक बुराई कम नहीं हो पाती तब तक दूसरी उपज पड़ती है, आदमी से चोरी छुड़ाई जाय तो जब तक चोरी छूटने नहीं पाती कि जुआ खेलना आरम्भ कर देता है। अन्तःकरण गन्दा हो, आत्मलीन हो, भीतर मैल भरा हो तो एक बुराई छोड़ने पर भी वह दूसरी बुराइयों से नहीं बच पाता। इसलिए ऋषियों ने अलग-अलग समस्याओं के अलग-अलग उपाय न बताकर सब समस्याओं का ही एक हल सुझाया था-आस्तिकता, धार्मिकता। इस तत्व को विभिन्न नामों से पुकारा जाता है धार्मिकता, नैतिकता, मानवता, कर्तव्यपरायणता, सामाजिकता आदि-आदि। वस्तु एक ही है नाम अलग-अलग है। ईश्वर की सर्वव्यापकता, न्यायशीलता, निष्पक्षता पर विश्वास करके जब तक मनुष्य पाप के दुष्परिणामों के कठोर दण्ड और पुण्य के सत्परिणामों के आनन्द पर विश्वास नहीं करता तब तक अन्य रीतियों से उसे सन्मार्ग पर चला पाना कठिन होता है। इस महान तत्वज्ञान को जन साधारण के अन्तःकरणों में प्रविष्ट करने की पूज्य आचार्य जी ने गत बीस वर्षों में प्रयत्न किया और उसका सत्परिणाम आज सबके सामने प्रत्यक्ष है। सत्पथ के हजारों पथिक गत बीस वर्षों से आत्म निर्माण की साधना कर रहे थे, जब उन्हें लोक सेवा के लिए-धर्म प्रसार के लिए आह्वान किया गया तो सोते सिंह की तरह उठकर खड़े हो गये और युग निर्माण की पुनीत प्रक्रिया में जूझ मरने की संघ के साथ प्राणपण से जुटे है। नैतिक और साँस्कृतिक पुनरुत्थान योजना का युग निर्माणकारी कार्यक्रम देश भर में चल रहा है उसका बौद्धिक आत्मिक रूप तो आँखों से नहीं देखा जा सकता पर गायत्री यज्ञ आन्दोलन के रूप में लाखों नर-नारी जिस कार्यक्रम को उल्लासपूर्वक अग्रसर करते दिखाई पड़ते हैं उससे यह सहज ही अनुमान हो जाता है कि यह महा अभियान वाह्य प्रक्रियाओं तक ही समिति नहीं है। इसकी गहरी जड़ें के जनसाधारण के अन्तः प्रदेश में भी गहराई तक प्रवेश कर रही है। मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने की पशुता को मानवता में परिणत करने का यह पुण्य आयोजन आशाजनक रीति से सफल हो रहा है, आगे इसकी सफलता के लिए हम सब और भी बड़ी आशाएं कर सकते हैं।

अखण्ड ज्योति लकड़हारे के हाथ की कुल्हाड़ी की तरह आचार्य जी के महान मनोरथों को पूरा करने में भारी योगदान करती रही है। उसने एक हृदय में जलती हुई आम को प्रदीप्त ही नहीं किया वरन् उसकी चिंगारियाँ उड़ाकर अनेकों जगह आम की ज्वालाएं जलाई हैं। यह दीपक एक ही जगह जलता नहीं रहा है वरन् असंख्य दीपक इससे जले हैं उसकी क्रमबद्ध पंक्ति आज जगमग करती हुई दीपावली की तरह चारों ओर दीख रही है। गायत्री परिवार के 10 लाख सदस्यों को एक ऐसी ही दीप मालिक कहा जा सकता है।

गत बीस वर्षों का अतीत बहुत ही उज्ज्वल रहा है पर आगे जो और भी उनके गुनी कठिन मंजिल उपस्थित है उसे पूरा करने में अखण्ड ज्योति का योगदान और भी अधिक मात्रा में अपेक्षित है। पर यकायक जो परिवर्तन इस समय हुआ है उसे देखते हुए मेरी ही तरह अनेकों पाठकों का भी जी कमजोर पड़ता है। परम पूज्य आचार्य जी शारीरिक दृष्टि से बहुत दुर्बल हैं पर उनके रोम-रोम में से शक्ति का श्रोत बहता है। वे जिस कार्य में हाथ डालते हैं वह पूरा होता ही चला जाता है उस खुले रहस्य को हममें से हर कोई भली भाँति जानता है। उनके हाथों में अखण्ड ज्योति का भविष्य और भी अधिक उज्ज्वल होने की हर कोई आशा कर सकता है। पर जब वे अपने उत्तरदायित्व को छोड़ रहे हैं और छोड़ कर मेरे दुर्बल कंधे पर डाल रहे हैं तब तो सहज ही अनेकों आशंका मन में उठने लगती हैं और भय होने लगता है कि गत बीस वर्ष का इतिहास कही आगे धुँधला पड़ जाय। इधर से उधर परिवर्तन में कहीं इस दीपक की लौ मन्द न होने लगे, कहीं बुझ जाने का अवसर उपस्थित न हो जाए।

पिछले दो महीनों में हजारों पत्र पाठकों ने ऐसे अनुरोध भरे पत्र भेजे हैं कि जिनमें मुझसे कहा गया है कि आचार्य जी की संभावित यात्रा को रोका जाय, उन्हें अभी न जाने दिया जाए, अखण्ड ज्योति की जिम्मेदारी से उन्हें मुक्त न होने दिया जाए। परिजनों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हुये मैंने आचार्यजी से यह अनुरोध किया था। पर उनका जो उत्तर है उसके पीछे जो भारी बल है उसे देखते हुए निरुत्तर ही होना पड़ता है।

उन्होंने मुझसे कहा-तुम्हें केवल अखण्ड ज्योति का व्यवस्थापक मात्र बनाया गया है, जो प्रेरणाशक्ति अब तक उसके द्वारा प्रवाहित होती रही है वह हमारे न रहने पर भी यथावत् जारी रहेगी। जो उच्चकोटि के विचार अब तक दिये जाते रहे हैं, उससे एक दर्जे और भी ऊंचे विचार पाठकों को मिलेंगे। अखण्ड ज्योति का भविष्य अन्धकारमय होने का किसी को कल्पना तक नहीं करनी चाहिए। जो लक्ष अभी सामने पड़ा है उसे पूरा होने तक यह दीपक जलता ही नहीं रहेगा वरन् और भी ऊंची बत्ती से, और भी ऊंची लौ के साथ जलेगा।

आचार्य जी ने अपने कार्यक्रम में थोड़ा अन्तर किया है, उसी के अनुरूप यह सब हलचल हो रही है। उनने अपने 2 महापुरश्चरण किये थे उसी के बल पर युग निर्माण का इतना विशाल आन्दोलन बना और पनप सका। यदि केवल प्रचार के बल पर अन्य सभा सोसाइटियों के ढंग से काम किया गया होता तो जितना हो सका है उसका हजार हिस्सा भी अपने दुर्बल साधनों से संभव न हुआ होता। तब की शक्ति प्रचंड है, उसके बल पर ही अध्यात्म जगत के सारे काम चलते हैं। तप की पूँजी जहाँ जितनी हो वहाँ उतनी ही विजय मिलेगी। तप के बिना केवल बाह्य साधनों से कोई बड़ी सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती।

संसार के सामने आज अनेक दुखद प्रसंग बन रहे हैं, भविष्य में यह कठिनाइयाँ और भी बढ़ने वाली है। इनके शमन और समाधान के लिए जो प्रयत्न किये जाते हैं उनमें तप की पूँजी बड़ी मात्रा में अभीष्ट होगी। आचार्यजी उसे ही उपलब्ध करने के लिए बाहर जाने की तैयारी कर रहे हैं केवल नश्वर मोह बन्धनों के कारण इस महान तैयारी को रोकना किस प्रकार उचित कहा जा सकता है? पाठकों को, परिजनों को उनकी जुदाई का दुख होना स्वाभाविक है-उनका सहज वात्सल्य इतने वर्षों से जिन्हें प्राप्त हुआ है उसके वंचित होने के कल्पना से निश्चय ही वे दुखी होंगे। मुझे भी लम्बे समय से उनके चरणों में बैठने का-पाठकों की अपेक्षा भी अधिक समीपता का सौभाग्य प्राप्त करने का अवसर मिला है। मेरे मन में भी उनके प्रति सामान्य भारतीय नारी की अपेक्षा कुछ अधिक ही श्रद्धा भक्ति है, उनकी जुदाई की मुझे भी कम कसक नहीं है। पर भावना से कर्तव्य ऊंचा है। हम लोग उनके भागीरथ प्रयत्नों में बाधक नहीं बनेंगे, उनके गंगावतरण के जीवन लक्ष को विलम्बित करना हमारे लिए किसी प्रकार उचित न होगा।

वे अज्ञान स्थान को तप−साधना के निमित्त आगामी गायत्री जयन्ती ज्येष्ठ सुदी 10 के बाद चले जावेंगे। अभी उनको इस कार्य में एक वर्ष लगने की बात कही है पर वह अवधि पूर्ण निश्चित नहीं है। और भी अधिक समय लग सकता है। देश भर में धर्म भावनाओं का विस्तार करके सच्ची विश्व शान्ति का जो आयोजन गायत्री परिवार द्वारा चल रहा है। इसमें समुचित बल बनाये रखना उनकी इस तप साधना का उद्देश्य है। इसलिए यह सोचना उचित न होगा कि उनके जाने से हम में से किसी की व्यक्तिगत आत्मिक स्थिति या सामूहिक कार्यक्रमों में कोई कमी आवेगी। उनकी तपस्या का बल पाकर तो इस सब में वृद्धि ही होने वाली है।

अखण्ड ज्योति को उन्होंने तप साधना का माध्यम बनाकर उचित ही किया है। युग निर्माण के सामाजिक कार्यक्रमों को अब गायत्री पत्रिका पूरा करेगी। साधना और तपस्या का मार्ग दर्शन अखण्ड ज्योति के जिम्मे छोड़ दिया गया है। आगे से उसमें इसी साधना के तत्वाधान पर आध्यात्मिक लेख रहा करेंगे। वह साधकों के आध्यात्मिक पथ के पथिकों के काम की चीज ही रह जायेगी। जो लोग केवल मनोरंजन के लिये उसे मंगा लेते हैं और मनोविनोद का चटपटा मसाला न मिलने पर कभी आर्थिक स्थिति खराब, होने का कभी पढ़ने की फुरसत न मिलने का, बहाना बनाकर किसी साल मंगाने किसी साल बन्द करने की उथल-पुथल करते रहते हैं उनमें पत्रिका न मंगाने का स्थायी रूप से बन्द कर देने का आदेश किया गया है। यहाँ से हर महीने पत्रिका दो बार जाँच कर सब ग्राहकों के पास भेजी जाती है। फिर भी कई बार बीच में अंक गायब होता हैं। ऐसी दशा में यह व्यवस्था रखी गई है कि सूचना आते ही तुरन्त दूसरी प्रति बिना मूल्य भेज दी जाती है। पर आलसी लोग कई-कई महीने कोई अंक न मिलने की सूचना नहीं देते और महीनों बाद शिकायत करते हैं कि हमें इतने अंक नहीं मिले। इसमें थोड़ी भूल कभी कार्यालय की भी हो सकती है पर समय पर शिकायत भेजकर दूसरी प्रति न मंगाना पाठकों के भी आलस्य का चिन्ह है। केवल इसी बात को लेकर कई पाठक नाराज होते देखे गये हैं। अपना दोष दूसरों पर मढ़ने की यह प्रवृत्ति भी आध्यात्मिक कहलाने वाले लोगों को शोभा नहीं देते। ऐसे लोगों को भी पत्रिका आगे से न मंगाने के लिए आचार्य जी ने कहा है।

वे आगे से कठोर साधना में संलग्न होंगे, साथ ही गंभीर आध्यात्मिक अनुभवों एवं साधना मार्ग के महत्वपूर्ण मर्मों को अधिकारी परिजनों के सामने उपस्थित करेंगे। गत छह वर्षों से संस्था संचालन में उनकी अधिकाँश शक्ति लगती रही इसलिए अध्यात्म विज्ञान के मर्म प्रसंगों को उपस्थित कर सकना उनके लिए संभव न हो सका। अब चूँकि उनका सारा समय ही अध्यात्म साधना में लगेगा इसलिए जून के बाद से योग और आध्यात्म के दक्षिण मार्गों और वाममार्गी साधना के, योग और तंत्र के उन पहलुओं पर स्वयं प्रकाश डालेंगे जो अब तक अज्ञात एवं रहस्यमय ही बने हुए हैं। ऐसे विषयों में केवल अधिकारी लोगों को ही अभिरुचि हो सकती है, इसलिए अगले वर्ष से अखण्ड ज्योति के ग्राहक केवल अधिकारी लोग ही रह जावेंगे।

विषय परिवर्तन की दृष्टि से अगले वर्ष अखण्ड ज्योति के ग्राहक घटना उचित है और आवश्यक भी। इस एक कमी के अतिरिक्त अखण्ड ज्योति का भविष्य सब प्रकार उज्ज्वल है ऐसा आश्वासन पूज्य आचार्यजी को प्राप्त हो चुका है। भारत की इस पुण्य भूमि में धर्म भावनाओं का आवश्यक विस्तार होना है, यह होगा, होकर रहेगा। इस पुण्य श्रेय में अखण्ड ज्योति अगले वर्षों में भी योगदान देगी। पिछले बीस वर्ष उसके बहुत शानदार रहे। आगे भी इस शान में कोई कमी आवेगी ऐसी संभावना नहीं है, यह आश्वासन प्राप्त होने के बाद अब अपनी सारी आशंकाएं दूर हो गई हैं। परिजनों को मेरी व्यक्तिगत कमजोरियों को, अयोग्यताओं को ध्यान में रख कर संभव है, अखण्ड ज्योति के भविष्य में बारे में कुछ चिन्ता हुई हो, पर हम लोग तो बाँस की तुच्छ बंशी मात्र हैं। बजाने वाले की कला अमर है उसकी ध्वनि लहरी में कभी-कभी पड़ने वाली नहीं है। अखण्ड ज्योति अपना विनम्र प्रयत्न वैसा ही जारी रखेगी जैसा गत बीस वर्षों में रखती आई है। अब तक वह सर्व साधारण की भी पत्रिका थी अब वह आध्यात्म मार्ग के जिज्ञासुओं एवं साधना पक्ष के पथिकों के मार्ग दर्शन करने के लिए निकलेगी। इसी लक्ष के आधार पर व्यक्ति का तथा विश्व का सच्चा कल्याण सन्निहित भी है।


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