पौहारी बाबा की “पूर्णाहुति”

December 1959

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(श्री गिरिजा सहाय व्यास)

हिन्दू समाज में “साधु” की पदवी बड़े सम्मान की और पवित्र मानी जाती है। यद्यपि वर्तमान समय में अधिकाँश साधु नाम धारी व्यक्तियों ने अपने वास्तविक कर्तव्य से मुख मोड़ लिया है और एक प्रकार से निकम्मा जीवन व्यतीत करते हैं, तो भी लोगों में उनके प्रति प्रायः श्रद्धा की भावना ही देखने में आती है। कारण यह है कि इस देश के अनेक बड़े साधु भी अपने को इस प्रकार अप्रकट रखते हैं कि अनजान व्यक्तियों को उनकी महानता का पता ही नहीं लग पाता। इसी प्रकार कितने ही साधु परोपकार का कार्य स्थूल शरीर से न करके मन अथवा भावना द्वारा करना ही अधिक श्रेष्ठ मानते हैं, उनको भी थोड़े से निकटवर्ती लोगों के सिवाय और कोई नहीं जानता। गाजीपुर (संयुक्त प्राँत) के पौहारी बाबा इसी श्रेणी के एक महापुरुष थे।

पौहारी बाबा का जन्म आज से 120 वर्ष पहले जौनपुर के प्रेमापुर गाँव में हुआ। उनकी एक आँख शीतला के कारण बाल्यावस्था में ही जाती रही थी, जिससे उनके माता-पिता दुलार में उन्हें शुक्राचार्य कह कर पुकारते थे। उनके एक चाचा लक्ष्मीनारायण थे जो थोड़ी ही उम्र में घरबार त्याग करके कुटी में रहते थे और अपना समस्त समय भगवत् भजन तथा योगाभ्यास में लगाते थे। एक बार बीमारी के कारण लक्ष्मीनारायण के दानों पैर खराब हो गये और आँखें भी जाती रही, तब उन्होंने इन्हीं “शुक्राचार्य को अपनी सेवा के लिये पास में रख लिया। वहाँ रहने से इनको भी भजन और साधना का अभ्यास हो गया और कुछ ही वर्षों में संस्कृत भाषा में भी पंडित हो गये।

जब इनकी अवस्था लगभग 17 वर्ष की हुई और लक्ष्मीनारायण का देहान्त हो जाने से इनकी जिम्मेदारी जाती रही तो आश्रम की देखभाल का काम अन्य शिष्यों को देकर ये तीर्थयात्रा को निकल पड़े। अनेक तीर्थों में भ्रमण करते हुए गिरनार पर्वत पर पहुँचे जहाँ इनकी भेंट एक सिद्ध योगी से हो गई। उसने योग-साधना की गूढ़ विधियाँ बतलाई जिनसे इस विद्या में इनको अच्छा ज्ञान हो गया। तीन वर्ष बाद ये फिर आश्रम में आ गये और एक गुफा खुदवा कर उसी में भजन करने लगे। अपने आहार के सम्बन्ध में भी वे बड़े कड़े नियमों का पालन करते थे। वैसे वे पाक-विद्या में बहुत निपुण थे और आराध्य देव रामचन्द्र जी की मूर्ति को भोग लगाने के लिये उत्तमोत्तम पदार्थ नित्य तैयार करते थे। इस भोग को वे अपने परिचित और दीन−दुःखियों को बाँट देते थे। रात होते तक वे ऐसे ही अभाव ग्रस्त लोगों की सेवा में लगे रहते थे। जब सब लोग सो जाते तो गंगा जी में तैर कर दूसरे तट पर चले जाते और वहीं पर समस्त रात भजन-साधना में बिता देते। प्रातःकाल होने के पहले फिर आश्रम में लौट कर नित्य-कर्म में लग जाते।

ऐसा करते-करते उनका आहार दिन पर दिन कम होने लगा। उनके परिचितों का कहना है कि अंतिम वर्षों में वे केवल एक मुट्ठी नींबू के या बेल के पत्ते अथवा कुछ मिर्च ही खाकर रह जाते थे। इसके बाद उन्होंने गंगाजी के पार जाना छोड़ दिया और अपना अधिक समय गुफा के भीतर योगाभ्यास में ही बिताने लगे। कहते हैं कि वे महीनों तक गुफा में बैठे हुये ही ध्यान करते रहते और बाहर नहीं निकलते थे। यह कोई नहीं जानता कि इतने समय तक वे क्या खाकर रहते थे, इसलिए लोग उनको “पौहारी” (पवन अथवा हवा का आहार करने वाले) के नाम से पुकारने लग गये। एक समय वे गुफा में इतना ज्यादा समय तक रहे कि लोगों ने निश्चय कर लिया कि वे मर गये। जब वे बाहर निकले तो उनको देख कर सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। उस अवसर पर उन्होंने हजारों साधु संतों तथा अन्य लोगों का भंडारा किया।

देश पूज्य स्वामी विवेकानन्दजी कुछ समय तक इस योगी के पास रहे थे और उनसे कुछ शिक्षा ग्रहण की थी। स्वामी जी ने उनसे कहा था कि आप अपनी गुफा से बाहर निकल कर किन्हीं लोकोपकारी कार्यों का संचालन क्यों नहीं करते ? पर पौहारी बाबा इतने विनयशील और निरभिमानी थे कि उन्होंने अपने को इसके योग्य ही नहीं समझा और उत्तर में एक दृष्टान्त सुनाया कि “एक व्यक्ति कुछ दुष्कर्म करते पकड़ा गया जिसके दण्ड़ स्वरूप उसकी नाक काट ली गई। बहुत लज्जित होकर वह किसी निर्जन स्थान में साधु का रूप बनाकर और व्याघ्र चर्म बिछा कर उस पर बैठ गया। अनजान लोग उसे एक बड़ा साधु समझकर उसके पास आने लगे। अनेक लोग इस एकान्तवासी मौनी “महात्मा” से कुछ उपदेश सुनने को लालायित हुये।

एक नवयुवक तो उससे दीक्षा लेने को व्याकुल हो उठा। जब उसने देखा कि अब अधिक विलम्ब करने से उसकी प्रतिष्ठा घट जायगी तो एक दिन उसने उस उत्साही युवक से कहा -”बेटा, कल एक तेज धार वाला उस्तरा साथ में लेकर आना।” इस आशा से कि अब उसकी मनोकामना शीघ्र पूरी होगी, वह युवक दूसरे दिन सवेरा होते ही उस्तरा लेकर वहाँ आ पहुंचा। साधु उसे दूर जंगल के एक निर्जन स्थान में ले गया और वहाँ उस्तरे के एक ही आघात से युवक की नाक काट ली और गम्भीर आवाज से बोला-”बेटा, इस सम्प्रदाय में मेरी दीक्षा इसी प्रकार हुई थी और वैसे ही मैंने आज तुम्हें दी। अवसर पाते ही तू भी दूसरों को इसी दीक्षा का दान देना। “ लज्जा के कारण युवक इस “दीक्षा” का रहस्य किसी से कह नहीं सका और अपने गुरु के आदेश का पूर्ण रूप से पालन करने लगा। इस प्रकार होते-होते उस देश में नाक कटे साधुओं का एक पूरा सम्प्रदाय बन गया, तुम्हारी क्या ऐसी इच्छा है कि मैं भी इसी प्रकार के एक सम्प्रदाय की स्थापना करूं?” इसके बाद फिर वही प्रश्न करने पर उन्होंने कहा-”क्या तुम्हारी ऐसी धारणा है कि केवल स्थूल शरीर द्वारा ही दूसरों की सहायता हो सकती है? क्या शरीर के क्रियाशील हुये बिना केवल मन ही के द्वारा दूसरे मनों की सहायता नहीं की जा सकती?”

पौहारी बाबा को आस-पास के किसानों तथा भक्तों से जो अनाज और अन्य खाद्य सामग्री मिलती थी उसमें उन्होंने एक सदावर्त कायम कर दिया जिसमें कुछ समय बाद बहुसंख्यक साधु, संन्यासी, अभ्यागत आने लगे। एक दिन वहाँ एक पागल सा मनुष्य आया और साथ में पौहारी बाबा को मारने के लिए एक मोटी सी लाठी लाया। वह गालियाँ देता हुआ उनकी गुफा की तरफ चला। उसका ऐसा व्यवहार देखकर अन्य लोगों ने उसे पकड़ कर आश्रम से बाहर निकाल देना चाहा। इस धक्का-मुक्की में पागल जोर से चिल्ला उठा। उसे सुनकर पौहारी बाबा बाहर आ गये और उस व्यक्ति को अपने पास बुलाया। आश्रमवासी उसे पकड़ कर उनके पास लाये जिससे वह उन पर प्रहार न कर बैठे। पौहारी बाबा ने स्थिर दृष्टि से थोड़ी देर तक उन्मत्त पुरुष की तरफ देखा और लोगों से कहा कि “इसे छोड़ दो, यह तो एक बड़ा साधु है।” उसी समय से उसका पागलपन बिल्कुल जाता रहा और वह भले प्रकार सब कार्य करने लगा।

इस घटना के कुछ समय बाद एक संन्यासी वेषधारी पुरुष इनके आश्रम में आया और कहने लगा कि “तुम तो साधु हो, योगी हो फिर यह तमाम माया क्यों संग्रह कर रखी है? इसे त्याग क्यों नहीं सकते? तुम्हारे ठाकुर जी के ऊपर जो सोने के आभूषण हैं, उनकी तुमको क्या जरूरत है? वे सब मुझे दे दो। पौहारी बाबा ने कहा- “बाबा, तुम्हारी इच्छा हो, तो इस सबको खुशी से ले जाओ।”

संन्यासी ने फिर कहा कि इस धन, सामग्री, अन्न से भरपूर आश्रम की माया का त्याग तुमसे क्यों नहीं होता। मैं कहता हूँ कि तुम इसी क्षण यहाँ से चले जाओ।” यह बात सुनकर पौहारी बाबा ने उत्तर दिया “बाबाजी, अगर मैं इसी समय आश्रम छोड़कर चला जाऊँ तो तुम्हारा काम सिद्ध नहीं हो सकेगा। आश्रमवासी सेवक मुझे ऐसा करने से रोक देंगे? इसलिए मेरी सलाह यह है कि रात्रि हो जाने दो, जब मैं चुपचाप चला जाऊँगा।” जब भली प्रकार अन्धकार हो गया और सब लोग सो गये तो पौहारी बाबा ने गुफा के द्वार पर ताला लगा दिया और ताले की चाबी उस संन्यासी को देकर आश्रम छोड़ कर चले गये। दूसरे दिन सवेरा होने पर जब शिष्यों ने कुटी में ताला लगा देखा तो उनको बड़ा आश्चर्य हुआ और यह समझ कर कि हो न हो यह सब इसी संन्यासी की करतूत है वे उसे मारने लगे। आश्रम का मालिक बनने के बजाय जब संन्यासी की वहाँ इस प्रकार “पूजा” होने लगी तो वह जल्दी से नौ दो ग्यारह हुआ। पर पौहारी बाबा बहुत ढूँढ़ने पर भी कहीं न मिल सके। अंत में एक वर्ष के बाद उनके एक भक्त ने उनका पता लगा पाया और बहुत समझा बुझा कर उनको फिर आश्रम में लाया गया।

एक बार कोई चोर उनके आश्रम में चोरी करने को घुसा और जो कुछ मिला उसे गठरी में बाँधकर जाने लगा। इतने में पौहारी बाबा जाग गये। इनको देखकर वह भयभीत होकर गठरी फेंक कर भाग गया। ये भी गठरी उठाकर उसके पीछे दौड़े और चिल्लाकर कहने लगे कि यह गठरी तुम्हारी ही है ले जाओ। बहुत दूर तक दौड़ने पर ये उसके पास पहुँच गये और पोटली को उसके पैरों के पास रखकर विनयपूर्वक कहने लगे- “तुम यह सब सामान ले जाओ, क्योंकि यह तुम्हारी ही है, मेरा नहीं!”

किसी समय काले साँप ने उनको काट लिया, जिससे वे बेहोश हो गये। उनके पास में उपस्थिति लोगों ने तो समझा कि वे मर गये। पर थोड़ी देर बाद होश में आकर उठ बैठे। जब लोगों ने उनसे इस घटना के विषय में पूछा तो तो कहने लगे कि “वह नाग तो हमारे प्रियतम का दूत था।”

अपने जीवन के शेष दस वर्षों में वे लोगों को दिखाई नहीं पड़े। उनके दरवाजे के पीछे कुछ आलू और थोड़ा सा मक्खन रख दिया जाता था और रात को किसी समय जब वे समाधि से उठते थे तथा ऊपर वाले कमरे में आते थे तो इन चीजों को ले लेते थे। पर जब वे गुफा के भीतर चले जाते थे, तब उन्हें इन चीजों की भी आवश्यकता नहीं पड़ती थी। उन दिनों में अगर वे किसी से बात भी करते थे तो बीच में दरवाजा बन्द करके भीतर बैठे-बैठे ही बात कर लेते थे।

एक दिन अँधेरी रात्रि में पौहारी बाबा गंगा स्नान करके नदी तट पर कुछ योग क्रिया कर रहे थे। दैव योग से उनकी क्रिया में कोई विघ्न पड़ गया। इससे उनकी तबियत बिगड़ गई और उन्होंने इस शरीर के अन्त करने का निश्चय कर लिया। सन् 1896 की गर्मी की ऋतु में एक दिन आश्रमवासियों ने देखा कि पौहारी बाबा की कुटी से सफेद रंग का धुआँ बहुत अधिक निकल रहा है और उसमें से माँस के जलन की गंध आ रही है। उन्होंने दरवाजा तोड़ डाला और कुटी के भीतर घुसकर देखा कि पौहारी बाबा का देह हवन कुण्ड में जल रहा है। इस प्रकार उस महायोगी ने स्वयं को ही पूर्णाहुति के रूप में होमाग्नि को अर्पण कर दिया। कुछ ही देर में उनके प्राण ब्रह्म रन्ध्र को भेद कर अन्य लोक को चले गये।


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