प्रेम ही ईश्वर है, ईश्वर ही प्रेम है।

December 1959

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(स्वामी समतानन्द सरस्वती)

मानव जीवन को सुखी और सफल बनाने वाले जो अनेक गुण है उनमें प्रेम अन्यतम है। बड़े-बड़े दार्शनिकों और महाकवियों के कथनानुसार तो इस विश्व का भूल ही प्रेम है। यह तो प्रत्यक्ष है कि प्रेम से ही सब प्रकार की उन्नति, प्रगति और आनन्द की प्राप्ति होती है। जहाँ प्रेम का अभाव होता है वहाँ निराशा और पतन ही दिखलाई पड़ता हैं।

किन्हीं दो व्यक्तियों का प्रेम दोनों को ही लाभप्रद सिद्ध होता है इसका कारण यह है कि मनुष्य में एक शक्ति “ग्राहकता” होती है। वह दूसरे में जिस चीज को देखता है और जिसका चिन्तन करता है, वह उसमें भी आ जाती है। प्रेम के प्रभाव से मनुष्य अपने मित्र के गुणों को ही देखता है, उन्हीं की चर्चा और प्रशंसा करता है, इसलिये उसमें भी उनका आविर्भाव हो जाता है। यह बात मनुष्य के कल्याण की दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण है। प्रेम से मनुष्य का मन शुद्ध और कर्तव्य पर आरुढ़ हो जाता है। बहुत से व्यक्ति बिना प्रेम के केवल कर्तव्य बुद्धि से भी भले काम करते रहें, पर उसमें उनको वह आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता जो प्रेमयुक्त मनोभावना रहने से मिलता है। इसलिये जहाँ एक कार्य उल्लास पूर्ण होता है दूसरा एक भार-स्वरूप हो जाता है।

पर साथ ही यह भी सत्य है कि सच्चे प्रेम उत्पन्न होना भी सहज नहीं है। स्वार्थयुक्त प्रेम को तो प्रेम कहना व्यर्थ है, क्योंकि वह अस्थायी होता है। जब स्वार्थ पूरा हो गया तो प्रेम भी घट गया। अथवा यदि किसी अन्य स्थान पर कोई बड़ा स्वार्थ सिद्ध होता जान पड़ा तो वहाँ प्रेम करने लग गये। इसी प्रकार वासनामय प्रेम भी प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता, वह भी स्वार्थ युक्त प्रेम का ही एक रूप है। जो प्रेम काम-भाव पर आधारित होता है वह आर्थिक स्वार्थ की अपेक्षा कुछ स्थायी होता है तो भी वह अनेक कारणों से परिवर्तनशील ही रहता है। इस कारण मनुष्य को प्रेम, विचारपूर्वक ही करना चाहिये और उसमें से जैसे संभव हो वासना का भाव दूर करते जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में सुपरिचित मनोवैज्ञानिक श्री लाला जी राम शुक्ल ने एक स्थान पर लिखा है -

“प्रेम का विकास धीरे-धीरे होता है। वासनामय प्रेम के स्थान में धीरे-धीरे त्यागमय प्रेम को उत्पन्न किया जा सकता है प्रेम के विकास के लिए गृहस्थ जीवन अच्छा स्थान है। पति-पत्नी का प्रेम आरम्भ में प्रायः वासना पूर्ति के हेतु होता है, परन्तु आगे चलकर एक दूसरे की सहायता और सेवा का रूप धारण कर लेता है। फिर जब सन्तान हो जाती है तो दम्पत्ति का प्रेम बच्चों की सेवा और उनके लाड़-प्यार का रूप ग्रहण करता है। माता-पिता बच्चों को इसलिये नहीं पालते कि वे उनको कमाकर खिलायेंगे, वरन् वे उनको इस कारण पालते हैं कि वे उनके आश्रित हैं और उन्हें प्यार किये बिना माता-पिता सुखी रह ही नहीं सकते। बच्चों का प्रेम माता-पिता की आध्यात्मिक पूर्ति का साधन बन जाता है। जिन लोगों में स्वार्थ बुद्धि अत्यधिक होती है, जो दूसरों के लिये कष्ट उठाना नहीं चाहते, जो अभिमान युक्त हैं, उन्हें या तो संतान होती ही नहीं, अथवा होकर मर जाती है संतान का होना और उसका जीवित रहना मनुष्य की उदारता की मनोवृत्ति पर निर्भर है। बालक के लालन-पालन का कार्य उसी प्रकार का है, जिस प्रकार एक फुलवाड़ी के पौधों की सेवा। जिस प्रकार पौधे को खाद्य, पानी और वायु की आवश्यकता होती है उसी प्रकार बालक को माता-पिता के प्रेम और देख-रेख की आवश्यकता होती है।

“मनुष्य का गृह प्रेम ही विकसित होकर विश्व-प्रेम का रूप धारण कर सकता है। दूसरे लोगों के बालकों के प्रति प्रेम, गरीब लोगों के प्रति प्रेम, रोगियों के प्रति प्रेम-ये सभी प्रकार के प्रेम उसी विकसित प्रेम के रूप हैं। जिस मनुष्य का जीवन जितना विकसित होता है उसका प्रेम उतना ही व्यापक होता है। ऐसा व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को प्रेम अपने किसी लाभ की दृष्टि से नहीं करता, वह उसकी भलाई की दृष्टि से ही प्रेम करता है। मनुष्य की भलाई का मापदण्ड उसकी दूसरों को प्यार करने की सामर्थ्य है। सामान्य पुरुष केवल अच्छे लोगों को ही प्यार कर सकते हैं। संतजन न केवल भले लोगों को प्यार करते हैं वरन् वे अपराधी और विषय लोलुप व्यक्तियों को भी प्यार करते हैं।

“किसी गिरे हुए व्यक्ति को हम प्रेम द्वारा ही उठा सकते हैं। गिरे हुये व्यक्ति में, चाहे वह अपराधी हो या रोगी, प्रेम की कमी होती है। ऐसे व्यक्ति को साधारणतः दुनिया का तिरस्कार मिलता है। इससे उसकी अपराध की मनोवृत्ति अथवा उसका रोग और भी बढ़ता जाता है। जब कोई व्यक्ति ऐसे व्यक्ति को अपना प्यार देता है तो उसके जीवन में कुछ सुधार हो जाता है। मनुष्य के मनोभाव संक्रामक (दूसरों पर असर डालने वाले) होते हैं। क्रोधी, ईर्ष्यालु और स्वार्थी लोग अपने संपर्क में आने वाले अन्य लोगों में भी ऐसे ही बुरे भावों को उत्पन्न करते हैं इसके विपरीत दयालु, परमार्थी और उदार स्वभाव के व्यक्ति अपने संपर्क से दूसरों में अपने ही जैसे भले मनोभावों को जाग्रत करते हैं। संत अपने संपर्क से दूसरों को भी संत बना लेता हैं। वह दूसरों को प्रेम और मानसिक शांति प्रदान करता है और उनकी जीवन धारा को कल्याण की ओर मोड़ देता है।”

प्रेम का वास्तविक स्वरूप यही है कि दूसरों के उपकार, भलाई के लिये जिस प्रकार संभव हो सहायता प्रदान की जाय। जिस व्यक्ति में ऐसी प्रेम भावना विद्यमान होगी, वह स्वयमेव ही अन्य व्यक्तियों के कल्याण के लिए कार्य करेगा। इसके लिये यह आवश्यक नहीं कि हम भौतिक वस्तुओं-धन, सम्पत्ति, भोजन, वस्त्र आदि द्वारा ही किसी की सहायता करें। इनसे भी अधिक सहायता मनुष्य अपने आन्तरिक विचारों और भावनाओं द्वारा कर सकता है। आधुनिक विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिया है कि विचारों की अत्यन्त सूक्ष्म तरंगें (लहरें) होती हैं जो बिजली की लहरों के समान निकट और दूरवर्ती व्यक्तियों पर प्रभाव डालती हैं। जब हम बारम्बार किसी के प्रति भले और उदार विचार मन में लाते हैं तो उससे उस व्यक्ति का हित अवश्य होता है। इसी प्रकार खराब विचारों के मन में लाने से बुरा फल निकलता है। अनेक साधु-महात्मा, भक्तजन इसी प्रकार संसार का कल्याण करते रहते हैं और अधिकाँश लोग उनको जानते भी नहीं। उनका कार्य पूर्णतया निःस्वार्थ होता है और वे स्वभावतः ही सबके साथ भलाई की मनोवृत्ति रखते हैं। जिनमें इस प्रकार की प्रेम शक्ति बहुत अधिक मात्रा में होती है और उसके द्वारा वे केवल दस-पाँच परिचितजनों का ही नहीं वरन् सार्वजनिक रूप से लोगों का कल्याण साधन कर जाते हैं तो वे ही महापुरुष के नाम से विख्यात हो जाते हैं।

प्रेम से जिस प्रकार मनुष्य दूसरों की भलाई करता है उसी प्रकार उसका अपना कल्याण भी होता है। भले और बुरे दोनों प्रकार के विचारों का यह नियम है कि जिसके प्रति वे किये जाते हैं उसे प्रभावित करके फिर वापस आकर विचार करने वाले पर भी प्रभाव डालते हैं। इस लिये जो व्यक्ति सदैव दूसरों के लिये प्रेम युक्त और कल्याणकारी विचार करते रहते हैं, वे परोक्ष रूप से अपना भी हित साधन करते हैं। इतना ही नहीं उनके प्रेम का दायरा दिन पर दिन बढ़ता जाता है। उनकी आत्मिक उन्नति होती जाती हैं और वे इसी मार्ग द्वारा उच्चकोटि के भगवत् प्रेम को प्राप्त कर लेते हैं। किसी मुस्लिम संत का उपाख्यान प्रसिद्ध है कि एक रात को उसने एक फरिश्ते को कुछ लिखते देखा। पूछने पर उसने बताया कि मैं भगवान के भक्तों के नाम लिख रहा हूँ। उक्त संत ने पूछा कि क्या मेरा नाम भी भक्तों में है? फरिश्ते ने देखकर कहा कि इस सूची में तो तुम्हारा नाम नहीं है। तब संत ने प्रार्थना की कि अगर इस सूची में नाम नहीं है तो कोई बात नहीं, आप मेरा नाम भगवान के भक्तों और अन्य जीवों से प्रेम करने वालों की सूची में लिख लीजिए। यह सुनकर फरिश्ता अदृश्य हो गया। दूसरे दिन वह फिर दिखाई दिया और आज उसके हाथ में उन लोगों की सूची थी जिनको भगवान स्वयं प्यार करते हैं। जब देखा गया तो उस सूची में सबसे ऊपर उक्त संत का नाम लिखा था।

इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि आध्यात्मिक उन्नति का सबसे पहला साधन प्रेम ही है। जो लोग केवल जप तप का ही आश्रय लेते हैं उनकी स्थिति बहुत संकीर्ण रहती है और वे आत्मज्ञानी बन जाने पर भी मुक्ति का सच्चा आनन्द प्राप्त नहीं कर सकते। वे महापुरुष अवश्य माने जाते हैं पर वे उस ताड़ के वृक्ष के समान होते हैं जो सब पेड़ों से ऊँचा होने पर भी न किसी को छाया देता है और न अन्य प्रकार का आश्रय। इसके विपरीत दूसरे प्रकार के महापुरुष आम के वृक्ष के तुल्य होते हैं जो पत्थर खाकर भी लोगों को फल, पत्ते छाया-सब कुछ देते रहते है। इसलिये सभी लोग उनके गुन गाते हैं और उन्हें प्यार करते हैं। यही सच्चा आध्यात्मिक मार्ग है। समस्त ज्ञान, शक्ति आदि तभी सार्थक है जब कि उसके द्वारा अन्य लोगों का हित साधन किया जाय और यह तभी हो सकता है जब हमारे भीतर प्रेम की सच्ची भावना हो।


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