कबीर जी के आध्यात्मिक उपदेश

December 1959

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(श्री नारायण प्रसाद बाजपेई, एम.ए.एल.बी.)

भारतवर्ष सदा से धर्मपरायण देश रहा है, जीवन-निर्वाह के लिए भौतिक सम्पत्ति की आवश्यकता पड़ती है, पर यहाँ के लोगों ने उसको कभी सर्वोपरि स्थान नहीं दिया। यहाँ समय-समय पर बराबर ऐसे त्यागी, महात्मा होते आये हैं जिन्होंने धन-सम्पत्ति को तुच्छ समझ कर अपना जीवन परमात्मा के चिन्तन और उसी के ज्ञान का प्रचार करने में लगा दिया। ऐसे महापुरुषों ने परमात्मा और सृष्टि के गूढ़ भेदों को प्रकट करके सर्व साधारण को आध्यात्मिक जीवन का ज्ञान प्रदान किया। इनमें से अनेक संत पुरुष ऐसे भी हुये हैं जिन्होंने कहीं पढ़ने-लिखने की अथवा साहित्यिक शिक्षा प्राप्त नहीं की, पर उनके उपदेश बड़े प्रभावशाली हैं और उन्होंने बहुत साधारण शब्दों में गूढ़ आध्यात्मिक तत्वों को समझा दिया है। ऐसे संतों में कबीर साहब का स्थान बहुत ऊँचा है। शिक्षा की दृष्टि से यद्यपि वे सर्वथा निरक्षर थे और उन्होंने स्वयं कहा है कि “मसि कागद छुयों नहि कलम गहो नहिं हाथ” अर्थात् “मैंने कभी स्याही और कागज को छुआ भी नहीं और न कभी हाथ से कलम को पकड़ा।” पर उनकी वाणी ऐसी सार-गर्भित है कि लगभग पाँच सौ वर्ष बीत जाने पर भी आज तक निरक्षर और साक्षर सब उनको पढ़कर शिक्षा और आनन्द प्राप्त करते हैं। उनके बहुत से पद ऐसे हैं जो असम्भव जान पड़ने वाली उक्तियों से भरे हैं और जिनकी बातें बिल्कुल उल्टी जान पड़ती हैं, पर जब उन पर बारीकी से विचार किया जाता है तो उनका अर्थ बहुत उपदेशप्रद जान पड़ता है। नीचे हम उनकी रचना के कुछ ऐसे नमूने देते हैं-

“धरती बरसे बादल भीजै, भीट भया पैराऊ। हंस उड़ाने ताल सुखाने, चहले बीधा पाऊ”

इस पद में कबीर साहब कहते हैं कि “यह कैसे आश्चर्य की बात है कि धरती से वर्षा हुई और बादल भीग गया और जो भीट और ऊँचा टीला था वह गहरा होकर पानी की झील बन गया, हंसों के उड़ जाने से ताल सूख गया, पर पैर कीचड़ में ही फँसे रह गये।”

इसका वास्तविक तात्पर्य यह है कि मनुष्य की बुद्धि है वही धरती है, क्योंकि सब प्रकार के मतों और सिद्धान्तों का आधार वही है। उससे जो वाणी रूप पानी बरसता है अर्थात् तरह-तरह के धर्म सम्बन्धी सिद्धान्त प्रकट होते हैं उससे बादल रूप जीव भीग रहा है, अर्थात् जीव उन सिद्धान्तों को ग्रहण कर लेता है। चारों वेद ही ज्ञान के सबसे ऊँचे टीले माने जाते हैं, पर उनकी थाह किसी ने नहीं पाई, इसलिये अथाह तालाब या झील की तरह बन गये । साधारण रूप में तो ताल के सूखने पर हंस उड़ कर चले, पर यहाँ शरीर रूपी तालाब से जब जीव रूपी हंस उड़कर चले जाते हैं और यह शरीर सूख जाता है अर्थात् नष्ट हो जाता है। पर जब चौमासे में जल बरसता है तो फिर जैसे का तैसा हो जाता है। इस प्रकार यह जीव जब दूसरे शरीर में जाता है तो फिर पहले के समान ही वासना रूपी कीचड़ में फँसा रह जाता है।

अब एक और शब्द सुनिये-

हाथ न बाके पाउँ न वाके, रूप न वाके रेखा। बिना हाट हटवाई लावे, करै वयाई लेखा॥

अर्थात् “उसके न हाथ है, न पाँव है न उसकी कोई रूपरेखा है तो भी वह बिना हाट (बाजार) के ही लेन देन करता है और बया (तोलने वाले) की तरह एक की जिन्स दूसरे को देता है।”

इसका तात्पर्य है कि जो समष्टि रूप चैतन्य ब्रह्म है उसके न हाथ है न पैर है और न उसका कोई स्वरूप या आकार है। इस हाट रूपी जगत से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है अर्थात् वह देश, काल और निमित्त से परे है। तो भी वह जीव रूप में माया के वश होकर हटवाई (लेन−देन) करने लगता है। अर्थात् जगत के प्रपंच में फँस जाता है और कर्मों के फल को पाने लगता है।

प्रथमै नगर पहुँचतै, पटिगो शोक सँताय। एक अचम्भो हौं देखो, बेटी ब्याहै बाप॥

साधक जब गुरु के समीप गया तो उन्होंने ईश्वर की उपासना का मार्ग बताया जिससे जीव और ब्रह्म की अभेदता का ज्ञान हृदय में उदय हो। इससे पहले देवता की उपासना का मार्ग छूट गया अर्थात् उससे सम्बन्ध विच्छेद होने से प्रथम ही शोक संताप का अनुभव होने लगा। दूसरा आश्चर्य यह हुआ कि गुरु ने जब यह उपदेश दिया कि तुम ही पूर्ण ब्रह्म हो, तो उस दर्जे पर पहुँचना तो सहज नहीं है, इस उपदेश को सुनकर वह अपने को ब्रह्म मान कर धर्म कर्म छोड़ बैठा और ज्ञान-अज्ञान के द्वंद्व में फँस गया और इस प्रकार जीव को माया ने, (जो जीवात्मा अथवा ब्रह्म से ही उत्पन्न होती है और इस दृष्टि से उसी की बेटी है) साँसारिक बन्धनों में बाँध लिया।

वर नहिं वरै ब्याह नहि करई, पुत्र-जन्म हो निहारी। काटे मूड़े यक नहिं छाँड़ै, अवहुँ आदि कुमारी॥

वर अर्थात् श्रेष्ठ जन वे हैं जो ईश्वर के भक्त हैं, उनको संसार की विद्या-अविद्या स्पर्श नहीं कर सकती है और जो इस विश्व का पति अथवा संचालक ब्रह्म है वह ब्याह नहीं करता अर्थात् माया में नहीं फँस सकता। ऐसी अवस्था में माया पुत्र रूप जगत को ही उत्पन्न करती है वह इस जगत में काटे (चोटी रखने वाले हिन्दू) और मूड़े (सिर मुड़ाने वाले मुसलमान) किसी को नहीं छोड़ती अर्थात् सबको अपने वश में करके रखती है फिर भी वह सर्वदा कुंवारी ही बनी रहती है अर्थात् स्वयं किसी के वश में नहीं होती।

उन्दर राजा टीका बैठै, विषहर करे खवासी।

श्वान वापुरा धरनि ठाकुरा, बिल्ली घर में दासी॥

अर्थात् “उन्दुर अर्थात् चूहा तो राजा बना है विष पर अर्थात् सर्प उसका खवास या सेवक बना है कुत्ता उसके भंडारी का कार्य कर रहा है और बिल्ली दासी बनी हुई है।”

इसका तात्पर्य यह है कि उन्दुर रूपी जीव ने शरीर को अपना मान लिया और इस प्रकार वह उसका राजा बन गया। काल (समय) रूपी सर्प है वह “खवास (खाने वाला) होकर उसकी आयु को खाता जाता है अर्थात् प्रतिदिन कम करता जाता है। श्वान अर्थात् साँसारिक विषयानन्द ने जीव को धरिके (पकड़कर) ढक लिया है। अर्थात् जो षद् दर्शनों की बाते हैं वे घर में दासी हो रही हैं अर्थात् जीव को तरह-तरह के मतों में फँसा कर भगवान की भक्ति रूपी गोरस से वंचित कर देती है।

कागज हार कार कुड आगे, बैल करै पटवारी। कहै कबीर सुनो हो सन्तो, भैसै न्याउ निवारी॥

जो गुरु बनने वाले लोग हैं वे कागज लिखकर अर्थात् पोथी बनाकर रखते हैं, उन पोथियों से गुरु लोगों के चेला जो बैल रूप है वे पटवारगीरी करते हैं अर्थात् इस काया नगरी के बने वाले मन, बुद्धि चित्त, अहंकार, पृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश, दश इन्द्रिय आदि का विचार करते हैं कि कौन किसके अधीन हैं और वे पटवारी ज्ञान रूपी द्रव्य वसूल करके आत्मा रूपी राजा के सुपुर्द करते हैं। पर इस तरह के ऊपरी ज्ञान से किसी का उद्धार नहीं हो सकता। क्योंकि जो गुरु लोग हैं वे स्वयं भैंसा की तरह साँसारिक मोह के कीचड़ में पड़े हैं और अपने चेलों को भी यह उपदेश करके कि तुम्हीं ब्रह्म हो, कीचड़ में फँसाते हैं। कबीर साहब कहते हैं कि जैसे भैंसा यम की सवारी है, वैसे ही ये भैंसा भी तुमको यमपुर ही ले जायेगा।


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