ब्राह्मणत्व का उच्च आदर्श

December 1959

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(पं. देवेन्द्रकुमार शास्त्री एम.ए.)

प्राचीन काल में हमारे सामाजिक जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए कर्म, व्यवसाय, योग्यता आदि की दृष्टि से वर्ण व्यवस्था की गई थी। व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन की दृष्टि से ऐसा करना उचित ही था। हमारे पूर्वज मनीषियों ने दूरदर्शिता से काम लेकर वर्ण-व्यवस्था की जो सुरुचिपूर्ण योजना बनाई, विश्व संस्कृति के लिए महान देन है।

वर्ण-व्यवस्था की सुरुचिपूर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण को समाज में सर्वोपरि स्थान दिया गया। साथ ही साथ समाज की महान् जिम्मेदारियाँ भी ब्राह्मण पर छोड़ी गईं। राष्ट्र एवं समाज के नैतिक स्तर को कायम रखना उन्हें प्रगतिशीलता एवं विकास की ओर अग्रसर करना, जन जागरण एवं अपने त्यागी तपस्वी जीवन में महान् आदर्श उपस्थित कर लोगों को सत्पथ का प्रदर्शन करना ब्राह्मण जीवन का आधार बनाया गया।

ब्राह्मण का जीवन त्याग अथवा बलिदान का जीवन होता है। उसका प्रत्येक कार्य अपने लिए नहीं वरन् समाज के लिए होता है। ब्राह्मण स्वयं के लिए कुछ नहीं करता। इसी कारण उसे समाज में विशेष सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा। अपनी साधारण सी आवश्यकता रख कर ज्ञान-विज्ञान की अनवरत साधना, और उससे समाज को उन्नत एवं स्वस्थ बनाने का परम पुनीत कर्तव्य एवं महान जिम्मेदारी ब्राह्मण पर ही है। किसी भी समाज एवं राष्ट्र का तथा ब्राह्मण का पहला सम्बन्ध होता है। वेद भगवान भी कहते हैं “हरातत् सिच्यते राष्ट्र ब्राह्मणो यत्र जीयते” जिस देश का ब्राह्मण हारता है वह देश खोखला हो जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि राष्ट्र की जागृति, प्रगतिशीलता एवं महानता उसके ब्राह्मणों पर आधारित होती है। ब्राह्मण राष्ट्र निर्माता होता है, मानव हृदयों में जागरण का संगीत सुनाता है, समाज का कर्णधार होता है। देश काल पात्र के अनुसार सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन करता है और नवीन प्रकाश चेतना प्रदान करता है। त्याग और बलिदान ही ब्राह्मणत्व की कसौटी है।

ब्राह्मण का जीवन साधारणतया दो सूत्रों पर आधारित होता है :- स्वयं का आत्म विकास और आदर्शमय जीवन का निर्माण। इसके लिए जीवन पर्यन्त ज्ञान विज्ञान की सतत साधना, तपश्चर्या, खोज आदि। ये जीवन पर्यन्त चलते रहना आवश्यक है।

(2) अपने अनुभवों, सत्य सिद्धान्तों एवं नैष्ठिक जीवन के अनुसार समाज सेवा। जिसके अंतर्गत समाज के बौद्धिक स्तर को उच्च बनाना, अन्धविश्वास, अन्ध परम्पराओं को समाप्त करना, कुरीतियों एवं बुराइयों को मिटाना, समाज का नैतिक एवं कल्याणकारी पथ प्रदर्शन करना उसे विकास एवं प्रगतिशीलता की ओर प्रेरित करना आदि महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ हैं।

ब्राह्मण के दूसरे कर्तव्य के अनुसार समाज की बौद्धिक एवं आध्यात्मिक सेवा का उत्तरदायित्व महान है। भारतीय तत्वदर्शियों ने ज्ञान दान की इस पुनीत योजना के लिए दो मार्ग अपनाये थे। जो प्रत्येक ब्राह्मण के लिए आवश्यक हैं। ज्ञान दान के अंतर्गत अपने विचारों, अनुभवों, सिद्धान्तों एवं सुधारात्मक प्रक्रियाओं को वाणी और लेखनी द्वारा विस्तृत मानव समाज तक क्रियान्वित करना और उनका प्रसार करना आवश्यक कर्तव्य है। वाणी के द्वारा धर्मप्रचार, कथा उपदेश, प्रवचन, सत्संग आदि हैं। अपने विचारों को कहकर समाज को ज्ञान लाभ पहुँचाने के साथ-साथ ही पत्र लिखना, विद्वानों के लिखित ग्रंथों का लिखित विचारों का विस्तार कर यदि सुविधा हो तो स्वयं भी साहित्य निर्माण करना ब्राह्मण के लिए उचित है। सद्विचार, सत्य सिद्धान्त, अनुभवगम्य ज्ञान लेखनबद्ध कर देने पर काफी समय तक ये मानव समाज का हित करते हैं।

हमारे पूर्वज ऋषियों का पवित्र जीवन इन्हीं तत्वों पर आधारित था। उनका आदर्श एवं महान कर्तव्य-परायण जीवन समाज को निरन्तर प्रगति विकास एवं उत्थान की ओर अग्रसर करता रहता था। यही कारण था कि उस समय हमारा देश ज्ञान वान कला कौशल, व्यापार उद्योग-धन्धे, नैतिकता, सच्चरित्रता धार्मिकता आदि में बढ़ा-चढ़ा था। मनुष्यों तक ही नहीं वरन् हमारा सम्बन्ध इतर प्राणियों से भी घनिष्ठता एवं आत्मीयता के सूत्रों में पिरोया हुआ था। ज्ञान वान के अगाध भण्डार स्वरूप नाना शास्त्र, पुराण, उपनिषद्, मीमाँसा, दर्शन कलाओं का विकास आज भी भारत के गौरव को बढ़ा रहा है। आज भी उस समय के ब्राह्मणों का पवित्र एवं मर्यादापूर्ण जीवन हमें प्रकाश की ओर मार्ग प्रदर्शन कर रहा है और भविष्य में करता रहेगा।

खेद है कालान्तर में ब्राह्मणत्व की उन महान् जिम्मेदारियों एवं उत्तरदायित्वपूर्ण कठोर कर्तव्यों को अधिकाँश रूप में भुला दिया गया है। आज केवल जाति अथवा वंश परम्परा के आधार पर ही ब्राह्मण जीवन की इतिश्री मान ली गई है। इतना ही नहीं इस रूढ़िवाद में अधिकाँश रूप में घुसी हुई लोभ, संचय, स्वार्थवृत्ति आदि ने तो ब्राह्मणत्व के महान आदर्श को प्रायः भुला दिया है। बहुत से लोगों ने तो ब्राह्मण जीवन को स्वार्थपूर्ति, धन संचय, ऐश्वर्य, वैभव आदि का ही उद्देश्य बना लिया है। इतना ही नहीं अपने स्वार्थ के लिए भिन्न-भिन्न गलत परम्पराओं, सिद्धान्तों, अन्ध विश्वास आदि का प्रतिपादन किया है। इनसे भोली भावुक एवं श्रद्धालु जनता को गलत निर्देश भी मिला है जो देश और समाज के लिए पतन, अवनति, एवं दुर्भाग्य का सूचक है।

महान जिम्मेदारी एवं कठोर कर्तव्य पालन के अनुसार ब्राह्मण का समाज से जीवन निर्वाह मात्र की सामग्री लेकर ज्ञानदान सत्शिक्षण नैतिक जागृति धर्म प्रसार आदि प्रक्रियाओं को चलाते रहना ही जीवन उद्देश्य होता हैं। किन्तु आज देखा जाता है कि अधिकाँश रूप में ब्राह्मण नाम पर अनधिकृत दान दक्षिणा लेने का पेशा बना लिया गया है। इस प्रकार की धन संचयवृत्ति, स्वार्थ भावना, ब्राह्मणत्व के विपरीत है। ब्राह्मण नाम पर एक कलंक है।

अपनी अवास्तविक एवं गलत स्थिति का सूक्ष्म निरीक्षण कर उसे सुधार लेना ही हितकर होता है। उस पर अड़ना “चोरी और सीनाजोरी” करना ही है। ब्राह्मण नाम की आड़ में होने वाले मर्यादा विरुद्ध अंधपरम्परा युक्त, कर्तव्य विरुद्ध पतन कारी दुष्कर्मों, आडम्बरों, ढोंग, स्वार्थ एवं संचयवृत्ति, आदि इस युग में अधिक नहीं टिकने वाले।

इस समय परिवर्तनों का युग है, जिसमें कई राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक परिवर्तन हो रहे है। इससे देर तक पोल खाता नहीं चल सकता। जिन्हें ब्राह्मणत्व से प्रेम है उनका कर्तव्य है कि उन महान आदर्शों का पालन किया जाय जो इस महान पद के लिए उचित एवं आवश्यक है।

आज कई धर्मसेवी, समाज सेवी व्यक्ति ब्राह्मणत्व की महान् मर्यादाओं का पालन करते हुए देश के नैतिक तथा साँस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए कठोर श्रम कर रहे हैं। ऐसे ब्राह्मणों को, धर्मसेवकों को इस पवित्र उद्देश्य की ओर बढ़ने में सहयोग देना, देश वासियों का परम कर्तव्य है ताकि राष्ट्र की धार्मिक चेतना पुनः जाग उठे।

आज सूक्ष्म लोक से ऋषियोँ की आत्मायें हमारे अन्तःकरणों में “वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहिता” हम ब्राह्मण इस राष्ट्र को जगाये रखें, का दिव्य संदेश झंकृत कर रही है। इस गम्भीर उद्घोष को साकार रूप देने के लिए हमें आज साँस्कृतिक एवं नैतिक पुनरुत्थान के लिए तैयार हो जाना है। ब्राह्मण जीवन की उच्च तथा कठोर मर्यादाओं का पालन करना ही सच्चे धर्म प्रेमियों के लिए इस युग की साधना है, तपश्चर्या है।


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