(पं. शिवशंकरजी शास्त्री)
अष्टा चक्रा नवद्वारादेवानाँ पूरयोध्या। तस्याँ हिरण्ययः कोश स्वर्गोज्योतिषावृतः ॥ अथर्य 31॥
शब्दार्थ- (अष्टाचक्रा) आठ चक्र (नवद्वार) और नौ द्वार वाली (देवानाँ) देवताओं की (पूर) पुरी (अयोध्या) जहाँ युद्ध नहीं होते ऐसी अयोध्या यह है (तस्याँ) इसमें (हिरण्ययःकोषः) अनेक प्रकार के बहुमूल्य एवं आकर्षक चमकीले रत्नों से भरा हुआ भण्डार (स्वर्णां) नाना प्रकार के सुखों से (ज्योतिषाँ) प्रकाश को भी प्रकाशित करने वाला परिमार्जित ज्ञान (प्रावृतः) ढका हुआ उपस्थित है।
भावार्थ-यह अद्भुत मानव शरीर आठ चक्र और नौ द्वारों वाला है। इन आठ चक्रों के नाम तथा स्थान इस प्रकार है। प्रथम मूलाधार चक्र, यह रीढ़ की हड्डी के नीचे पृष्ठ वंस के मूल में होता है (द्वितीय) स्वाधिष्ठान चक्र, ये जननेंद्रिय के पीछे (तृतीय एवं चतुर्थ) मणि पूरक और सूर्य चक्र ये दोनों नाभि स्थान में होते हैं (पंचम) अनाहत चक्र, हृदय में (षष्ठ) विशुद्धि चक्र, गले में (सप्तम) आज्ञा चक्र, भूमध्य में (अष्टम) सहस्रार चक्र मस्तिष्क में होता है। इस प्रकार ये आठ चक्र, अर्थात् नस नाड़ियों के विशेष गुच्छे इस शरीर में मज्जातन्तु के केन्द्र रूप है, इन चक्रों में अनंत शक्तियाँ भरी हैं। इस अद्भुत मानव शरीर के अनेक नाम शास्त्रों में वर्णन किये गये हैं, इसे ब्रह्मपुरी ब्रह्मलोक और अयोध्या भी कहते हैं।
इसमें नौ द्वार हैं, दो आँख, दो कान, दो नाभि का छिद्र, एक मुख इस प्रकार सिर में सात द्वार हुये (आठवाँ) गुद्दा द्वारा और नौवाँ मूत्र द्वार इन प्रसिद्ध नौ द्वारों वाली होने से इस नगरी का द्वारावती द्वार आदि भी नाम है। ये देवताओं या दिव्य गुण युक्त, आत्माओं के ठहरने का स्थान है। इससे रहने वाले समस्त जड़ और चेतन देवता परस्पर एक दूसरे की भलाई के लिये अपने-अपने स्थान पर हर समय सतर्क व जागरुक हैं। यहां अग्निदेव, नेत्र और जठराग्नि के रूप में पवनदेव श्वाँस-प्रश्वाँस व दस प्राणों के रूप में, वरुण देव जिह्वा और रक्त आदि के रूप में रहते हैं। इसी प्रकार अन्य देव भी शरीर के भिन्न-2 स्थानों में निवास करते है।
चैतन्य देवों में आत्मा और परमात्मा का यही निवास स्थान है। ये समस्त देव इस शरीर में सद्भाव और सहयोग से प्रीतिपूर्वक वर्तते हैं। इनमें परस्पर प्रेम की गंगा बहती है, किसी को किसी से द्वेष नहीं, सबके काम बंटे हुये हैं। अपने-अपने कार्यों को सम्पादन करने में सभी सचेष्ट एवं दक्ष हैं। भुजायें सब शरीर की रक्षा के लिये सूचना मिलते ही दौड़ती है। उन्हें ब्राह्मण और शूद्र के बीच भेद मानना ग्राह्य नहीं। सिर पर आई हुई चोट को बचाने में जहाँ उन्हें प्रसन्नता होती है, वहाँ पैरों में लगे हुये काँटों को निकालने में भी उन्हें क्षोभ नहीं होता। अतः यह शरीर परस्पर युद्धों से रहित अयोध्या है।
इस शरीर में 72000 नाड़ियाँ हैं, इनमें इग्ला, पिग्ला और सुषुम्ना तीन नाड़ियाँ विशेष हैं, ये तीन नाड़ियाँ मूलाधार चक्र से प्रारम्भ होकर समस्त शरीर में, अपना जाल सा बनाती हैं। जो पुरुष अपनी केन्द्र शक्तियों को जगाना चाहते हैं उन्हें योग का अभ्यास बढ़ाना चाहिये। योग केवल जंगल में बैठ कर ही नहीं किया जाता, वरन् सब कर्मों में, सर्वत्र आप योग करते हैं। उदाहरण के लिये जब आप पुस्तक पढ़ते हैं, तब आपकी आत्मा और मन का योग पुस्तक से होता है, ऐसा न होने से आप भोजन करते समय भोज्य पदार्थों से आप के मन और आत्मा का योग होना अत्यावश्यक है, ऐसा न करने से भोजन द्वारा प्राप्त होने वाला आनन्द आप को नहीं मिलता।
जिस पुरुष ने जिस शक्ति को जगाया, उसने उसी से मनोवाँछित आनन्द प्राप्त किया। प्राचीन ऋषि, मुनि और देवताओं ने अधिकाँशतया अपनी अध्यात्म शक्तियों को जगाया था, इसीलिये तीनों काल, अर्थात् भूत, भविष्य व वर्तमान की बातों को जान लेना, अपनी इच्छानुसार शरीर बदल लेना, अपनी आयु को इच्छानुसार बढ़ा लेना तथा मोक्षादि सुख प्राप्त कर लेना उन्हें सब सुलभ होता था।
महर्षि वाल्मीकि ने हिंसा को त्याग कर शरीर सुषुप्त अहिंसा को जगाया, कौन जानता था कि घन अज्ञान में फंसे हुये हिंसक वाल्मीकि महर्षि पद प्राप्त करते हुये संस्कृत साहित्य के आदि कवि और धर्मज्ञ बन सकेंगे। ऋषियों के उपदेश ने उनकी सुषुप्त हृदय तन्त्री को इस प्रकार झंकृत किया कि वाल्मिकी दृढ़ विश्वास और साधना से महर्षि पद प्राप्त करते हुये, अनंत सुख को प्राप्त हुये। महर्षि जमदग्नि सहस्रबाहु अर्जुन द्वारा कामधेनु गऊ छीनी जाना व आश्रम भ्रष्ट करने से परशुरामजी की सोई हुयी क्षत्र शक्ति जाग्रत हो गई और प्रतिक्षाबद्ध होकर उन्हें 21 बार पृथिवी को क्षत्रियों से रहित करके ब्राह्मण को पृथिवी का दान दिया। राजा विश्वामित्र व ब्रह्मतेज के समक्ष क्षात्र शक्ति देय प्रतीत हुई अतः राज पाट छोड़ कर ब्रह्मत्व प्राप्ति के लिए कठोर तप करके ब्रह्मत्व प्राप्त किया। जामवन्त के कहने पर हनुमानजी की सोई हुई शक्तियाँ जाग गईं और समुद्र पार करना उन्हें सहज सुलभ हो गया।
संसार में बढ़ती हुई हिंसा प्रवृत्ति को देख कर महात्मा गौतम बुद्ध के हृदय में अहिंसा का उद्घोष हुआ। स्वामी शंकराचार्यजी ने अनेक देवतावाद का विरोध में अपनी आत्मा की आवाज एकेश्वरवाद का जीवन भर प्रचार किया। महर्षि दयानन्द के सच्चे शिव की खोज पर कटिबद्ध करने में जीवन भर आई हुई विघ्न और बाधायें उन्हें अपने दृढ़ निश्चय से डिगा न सकीं। स्वामी रामतीर्थ और श्री विवेकानन्द ने अपनी इच्छित शक्तियों को जगाकर ही करोड़ों मानवों के हृदय में स्थान पाया था। महात्मा गाँधी, लोकमान्य तिलक, पंडित मदनमोहन मालवीय, नेता सुभाषचन्द्रबोस, सरदार पटेल आदि महापुरुषों के प्रत्यक्ष उदाहरण आपके सामने उपस्थित हैं। इन सबने ही अपनी अपनी इच्छा के अनुसार अपनी केन्द्र शक्तियों को जगाया था, तभी वे सामान्य पुरुषों से कुछ ऊँचे उठ सके। यदि अपने दृढ़ निश्चय और पुरुषार्थी भावना से, विघ्न बाधाओं को ढकेलते हुये अपनी सोई हुई शक्तियों को जगायेंगे तो महापुरुष, ऋषि और देवता बनना आपको कठिन न होगा। आपके पूर्व पुरुष जो ऋषि, महात्मा और देवता अब तक बन चुके हैं, उनका शरीर भी आपकी तरह ही हाड़-माँस आदि का बना हुआ था।
आप प्रति दिन यह अनुभव करते हैं कि किसी बात, हृदय या घटना से कभी आपको रोना आता है और कभी हँसना, कभी आप चिन्तित होते हैं तो कभी चिन्ता रहित। आपके शरीर में कभी करुणा का बाहुल्य होता है तो कभी क्रोध, कभी दूसरों की भलाई में जीवन बिताने की चाह होती है तो कभी केवल स्वार्थ की भावना। इसी प्रकार कभी भक्ति और वैराग्य जागता है तो कभी मोह और ममता आप में से बहुत कम ऐसे विचारक होंगे, जिन्होंने इस रहस्य पर गहराई से विचार किया हो। यदि आप विचार करेंगे तो आपको यह प्रतीत होगा कि इस मानवीय अद्भुत शरीर में अनेकों केन्द्र हैं। हर बात एक ही केन्द्र से नहीं टकराती, उनके भिन्न-2 स्थान हैं।
कितनी ही शक्तियाँ तो इस शरीर में ऐसी हैं, जिन्हें बहुत से मानव अपनी पूरी आयु के दौरान में भी जगा नहीं पाते। किसी पुरुष को चुप रहने का अधिक अभ्यास होता है तो किसी को धारावाही घन्टों भाषण देने का। कोई श्री हनुमानजी व भीम आदि का अनुसरण करते हुये दिखाई देंगे, तो कोई रावण और कीचक जैसा। कोई राजा नेता और अधिकारी बनने की कोशिश में हैं तो कोई चोर डाकू और भिखारी। अतः इसी प्रकार की अनेक भिन्नता आप संसार में देखते हैं, यह भिन्नता है? क्योंकि उन्होंने अपने शरीरस्थ पृथक प्रथक केन्द्रों को झंकृत किया है। जिस केन्द्र को जिसने जिस धारणावती बुद्धि से उद्बुद्ध किया उसने उससे वैसा ही लाभ पाया। अच्छा ऊँचा और नीचा बनने के लिए केवल आप ही अपने कारण है। आप जैसा बनने की इच्छा करेंगे वैसा ही साधन और सत्संग आपको संसार में मिल जायेगा। जन्तु जिन कर्मों से सुख बढ़ता और मिलता है उन कर्म संबंधी केन्द्रों को जगाने का प्रयत्न करें।
मंत्र के अन्तिम चरण में यह बताया गया है कि इस अद्भुत ब्रह्मा नगरी में प्रकाश को भी प्रकाशित करने वाला जो आवृत्त परिमार्जित ज्ञान है, अर्थात् जिस ज्ञान के द्वारा, सत्य और असत्य, सुख और दुख, कर्तव्य और अकर्तव्य तथा प्रकाश और अन्धकार को यथार्थ रूप से जान कर वेदोक्त कर्मों द्वारा परमात्मा का प्यार बनना होता है उस ज्ञान को सत्संग और अनुष्ठानों की निरन्तर रगड़ से जाग्रत या निरावरण करो। भ्रमित बुद्धि से भूले हुये राही की भाँति केवल भौतिक ‘सुखों की तृष्णा भरी पगडंडियों में जीवन के अमूल्य श्वाँस नष्ट करना उचित नहीं। तुम्हारा साध्य, अनन्त सुख की प्राप्ति है। यह शरीर उस साध्य को प्राप्त करने का साधन है। साधन को साध्य समझ बैठना ही भारी अज्ञान है। ज्ञान को जाग्रत करें, तभी जन्म जन्मान्तरों के सुकृतों द्वारा प्राप्त किये गये, इस अन्नतः शुद्धि युक्त मानव शरीर या द्वारिका व अयोध्या में आपका रहना सार्थक है।
क्रोध कब? और क्यों?
जब कार्य का कारण तुरन्त समझने में देर होती है, तो क्रोध की सृष्टि होती है।
क्रोध एक तामसिक मनोवृत्ति है जो दुराचारी नीरस, रोगी, असहिष्णु, धैर्य शून्य प्राणियों का प्रश्रय लेती है।
क्रोध सुधार के स्थान पर बिगाड़ करता है।
क्रोधी मानव को तरह-2 की हार्दिक एवं मानसिक व्याधियाँ लग जाती हैं। एक ओर से क्रोध आता है, तो दूसरी ओर से विवेक जाता है।