गुरु दीक्षा का महत्व

December 1959

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(श्री डाह्याभाई रामचन्द्र मेहता)

वर्तमान समय में हमारे देश में गुरु द्वारा मंत्र दीक्षा की प्रथा प्रायः बन्द हो गई है। इसके अनेक कारण हैं, पर फिर भी ऐसा होने से लोगों में आध्यात्मिकता की कमी हो गई। गुरु का अर्थ यही है कि वह मनुष्य को दिव्य चक्षु प्रदान करके अज्ञान अंधकार में से ज्ञान रूपी प्रकाश में ले जाये। प्राचीन काल में इस प्रथा का पूर्ण रूप से प्रचार था और उसके कारण लोगों का बड़ा कल्याण होता था। जो गुरु अनेक शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करके शिष्यों और भक्तों को ज्ञान-दान करते थे और उनको संसार के माया मोह का रहस्य समझाकर काम, क्रोध, लोभ, मोह के भयंकर जाल में से बचा लेते थे और धर्मनीति के मार्ग पर आरुढ़ कराते थे, वे गुरु आज कहाँ हैं? श्रीराम और श्रीकृष्ण जैसे अवतारी पुरुषों ने भी अपने गुरु के घर रहकर अध्यात्म ज्ञान प्राप्त किया था और उसके पश्चात ही वे गृहस्थ आश्रम में प्रविष्ट हुये थे, वह स्थिति आज कहाँ दिखलाई पड़ती है? बालक, युवा तथा वृद्ध, अवस्थाओं में इसी प्रकार गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम, संन्यासाश्रम में जो-जो मंत्रानुष्ठान और योगाभ्यास की आवश्यकता होती है, उनकी शिक्षा गुरु शिष्यों को उनके अधिकारानुसार देकर उनको जीवन में सफल होने का मार्ग दिखाते थे, वह स्थिति अब कहाँ है? आज इस गुरु और शिष्य की अति उपयोगी प्रथा का लोप होता हुआ दिखलाई पड़ रहा है, यह समय की बलिहारी है। शंकर भगवान ने कलियुग का महात्म्य श्री पार्वती माता को समझाते हुये कहा था कि कलियुग में ब्राह्मण आध्यात्म विद्या से भ्रष्ट हो जायेंगे और अन्य व्यक्ति गुरु बन जायेंगे, वे ही जन समाज को अध्यात्म, धर्म, नीति आदि का उपदेश देंगे। आज हम आश्चर्य पूर्वक देख रहे हैं कि उनके वाक्य बिल्कुल सत्य होते दिखलाई पड़ रहे हैं।

मनुष्य जब से जन्म लेता है तभी से उसे गुरु की आवश्यकता होती है। उस समय माता-पिता उसके गुरु बन कर उसका पालन-पोषण करते है, उसे बोलना चलना, खाना-पीना सिखाते हैं, उसे नीति, धर्म, ज्ञान, विज्ञान की भी थोड़ी-बहुत शिक्षा देते हैं। जब मनुष्य किसी व्यवसाय में लगता है तब उसका स्वामी उसका गुरु बनता है। अथवा यदि वह कोई नौकरी करता है तो उसके ऊपर वाले अफसर उसके गुरु बनते हैं। इस प्रकार प्रत्येक साँसारिक और व्यवहारिक कामों में मनुष्य का कोई न कोई गुरु होता है। फिर अध्यात्मज्ञान और ब्रह्म विद्या जैसी महान चीजों के लिये तो गुरु का होना स्वाभाविक ही है। पर आज शिष्य को इस प्रकार ज्ञान देकर उसे मोक्ष-मार्ग पर पहुँचा देने वाले गुरु कहाँ हैं? आज तो गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होने वाले जीवों को गुरु को आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती। इसी प्रकार उनको अध्यात्म-ज्ञान, धर्मज्ञान की तीव्र इच्छा भी नहीं होती। आज तो आहार-विहार, सम्पत्ति, स्वास्थ्य यही उनके जीवन का ध्येय बन गया है। पर मुक्ति प्रेमी भाइयों! सद्गुरु की आवश्यकता तो संसार की उत्पत्ति के समय से ही होती आई है। सद्गुरु के प्रति शिष्य भगवान की भावना रखे, गुरुदेव के प्रति उसमें अचल भक्ति और श्रद्धा हो, और वह गुरु के वाक्यों को ईश्वर का आदेश समझे, तभी वह अपना समस्त जीवन सुख-शान्तिपूर्वक व्यतीत करके जन्म-मरण से मुक्त हो सकता है।

गुरु की भक्ति कैसी होनी चाहिए। इस संबंध में महाराष्ट्र के महान संत ज्ञानेश्वर महाराज के विचार जानने योग्य हैं। उस समय के ब्राह्मणों ने ज्ञानेश्वर के परिवार को जाति बाहर घोषित कर दिया था, पर आज समस्त महाराष्ट्र और समस्त महा राष्ट्रीय ब्राह्मण उनको एक महान् अवतार के रूप में पूजनीय मानते हैं और नित्य प्रति उनके ग्रंथों का प्रवचन किया जाता है। ज्ञानेश्वर महाराज की वर्णन शैली पुराणों के ढंग पर अत्यन्त प्रभावशाली है-

“हे चतुर श्रेष्ठ, अब मैं तेरे सम्मुख गुरु भक्ति का वर्णन करता हूँ जिसे तू ध्यान से सुन। यह गुरु सेवा सब प्रकार के सौभाग्यों की जन्म भूमि है, क्योंकि वह गृहस्थ आश्रम में संलग्न मनुष्य को भी ब्राह्म स्वरूप बना देती हैं। ऐसी जो गुरु-सेवा है, अब मैं उसके विषय में तुझ से कहता हूं। जिस प्रकार गंगा अपना समस्त जल लेकर समुद्र से मिलती है, अथवा श्रुति जिस प्रकार सर्वज्ञान सहित ब्रह्म पद में प्रविष्ट होती है, अथवा पतिव्रता स्त्री जिस प्रकार अपना जीवन और गुण अवगुण सब कुछ अपने प्रिय पति को अर्पण करती है, उसी प्रकार शिष्य अपना सर्वस्व गुरु कुल को अर्पण करता है। जिस प्रकार विरहिनी पतिव्रता निरंतर पति का ही चिन्तन करती है, उसी प्रकार जिस स्थान में गुरु का निवास हो वहीं पर जिसका मन लगा रहता है, उस दिशा में से आने वाले पवन को भी जो सम्मुख खड़ा होकर नमस्कार करता है, सच्चे प्रेम से पागल बन कर जिस दिशा में गुरु रहते हों, उस दिशा से भी वार्तालाप करता है वही सच्चा शिष्य है। जिस प्रकार बछड़ा अलग खूंटे से बँधा होने के कारण ही गाय से पृथक रहता है, पर उसका ध्यान पूर्णतया अपनी माता की तरफ लगा रहता है, उसी प्रकार सच्चा शिष्य केवल गुरु की आज्ञा के कारण ही दूरवर्ती ग्राम में रहता है, और सदा यही विचार करता है कि कब गुरु की अनुमति मिले और मैं उनसे भेंट करूं। जिसे गुरु से दूर रहने से एक-एक क्षण युग के समान भारी जान पड़ता है, अगर गुरु के ग्राम से कोई आया हो अथवा गुरु ने ही किसी को भेजा हो, तो जो ऐसा प्रसन्न हो जाता है कि मानो जीवन रहित को नवीन आयुष मिल गया हो, अथवा सूखते हुये अंकुर पर अमृत की धार पड़ गई हो, अथवा मछली किसी गड्ढ़े से निकल कर समुद्र में पहुँच गई हो, अथवा किसी कंगाल मनुष्य को धन का खजाना मिल गया हो, अथवा जन्माँध को एक दृष्टि प्राप्त हो गई हो, अथवा भिखारी को इन्द्र पद मिल गया हो। गुरु के प्रति ऐसी प्रीति रखने वाला कोई मनुष्य अगर तुमको मिले तो ऐसा समझ लेना कि उसके मन में गुरु के प्रति सचमुच सेवक की भावना मौजूद है। ऐसा व्यक्ति अन्तःकरण में अत्यन्त प्रेम युक्त होकर गुरु की मूर्ति का ध्यान करता है, अपने शुद्ध हृदय रूपी मंदिर में गुरु की स्थापना करके भावना रूपी मंदिर में गुरु की स्थापना करके भावना रूपी सामग्री से उनकी पूजा करता है, अथवा ज्ञानरूपी किले में आनंदरूपी देवा लय बनाकर उसमें श्री गुरु रूपी शिवलिंग की स्थापना करके उस पर ध्यानरूपी अमृत से अभिषेक करता है।

तनिक उसके प्रेम की अगाधता तो देखो! कभी तो वह बिना आँख और गुरु को पक्षिणी रूपी माता बन कर उसकी चोंच में से स्वयं चारा ग्रहण करता है, अथवा गुरु को तारने वाला मानकर उसका पल्ला पकड़ लेता है। इस प्रकार जैसे समुद्र में ज्वार आने से तरंगों पर तरंगें उत्पन्न होती जाती हैं, उसी प्रकार प्रेम के बल से गुरु के ध्यान के अनेक रूप प्रकट होते हैं। इसी प्रकार गुरु की मूर्ति को अन्दर में धारणा करके वह ध्यान का आनन्द प्राप्त करता है। ...........साराँश यही है कि जिसे इस गुरु भक्ति की इच्छा होगी, और जिसे इस गुरुभक्ति पर प्रेम होगा, उसे गुरु सेवा के सिवाय और कोई चीज कभी प्रिय न लगेगी।”

गुरु से मंत्र की दीक्षा ग्रहण करना क्यों अनिवार्य है, इस विषय में वेद-शास्त्र में लिखा है-

“गुरु से दीक्षा लिये बिना जप, पूजा वगैरह सब निष्फल जाता है, इसलिये साधना में सबसे पहले दीक्षा ही लेनी चाहिये। दीक्षा का अर्थ यह है कि यह मनुष्य को दिव्य ज्ञान प्रदान कर उसके समस्त पाप पुँज का नाश कर देती है।, इसी कारण ऋषि-मुनियों ने इसका नामकरण दीक्षा किया। ब्रह्मचर्य आदि प्रत्येक आश्रम के व्यक्ति के लिये दीक्षा ग्रहण करना आवश्यक है। इस संसार में सब कुछ दीक्षा मूलक है, बिना दीक्षा के जगत का कोई भी सुसम्पन्न नहीं हो सकता। जप, तपस्या आदि सबका आधार इसी पर है। दीक्षा प्राप्त कर लेने पर मनुष्य चाहे जिस आश्रम में रहे, तो भी उसके सब काम सिद्ध हो जाते हैं और दीक्षा प्राप्त किये बिना जो मनुष्य जप, पूजन आदि कार्य करता है वे सब कर्म पत्थर में बोये हुये बीज के समान निष्फल सिद्ध होते हैं। बिना दीक्षा वाले मनुष्य को सिद्ध अथवा सद्गति नहीं मिलती। इससे सब तरह से प्रयत्न करके सद्गुरु देव द्वारा अवश्य मंत्र दीक्षा ग्रहण करनी चाहिये।”

पर यह भी अवश्य देख लेना चाहिये कि गुरु वास्तव में योग्य और शुद्ध चरित्र वाले हों और वे भी शिष्य को उसी प्रकार प्राणों के समान स्नेह करना अपना कर्तव्य समझते हों। आजकल जैसे ढोंगी और स्वार्थी गुरु बनने वालों की भरमार हो गई है उससे तो बिना गुरु के रहना ही अच्छा है। गुरु की सहायता से शिष्य को अध्यात्म मार्ग में अग्रसर होने में निस्संदेह बड़ी सहायता मिलती है और सब सद्गुरु कम योग्यता और अधिकार वाले शिष्यों को भी अपनी शक्ति द्वारा अग्रसर कराके मुक्ति का पथिक बना देते हैं। इसीलिये शास्त्र में कहा गया है-

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्रेव महेश्वरः गुरुरेव परंब्रह्म तस्मै श्री गरुवेनमः


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