गौ रक्षा का आध्यात्मिक दृष्टिकोण

December 1959

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(डॉ. चमन लाल गौतम)

इस पुण्य भारतभूमि में गौ माता को सदा से पूजनीय एवं संरक्षणीय माना जाता रहा है। गाय के रोम रोम में सात्विकता के सूक्ष्म तत्व भरे हुये हैं जिनके सान्निध्य से मनुष्य अपने अन्दर सात्विक सद्गुणों की अभिवृद्धि कर सकता है। प्रत्येक जड़ चेतन पदार्थ में जिस प्रकार एक स्थूल शक्ति होती है उसी प्रकार उसमें एक सूक्ष्मशक्ति भी रहती है। चूँकि स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म तत्व का महत्व हजारों गुना अधिक होता है, इसलिए इस देश के तत्वदर्शी ऋषियों ने प्रत्येक आदर्श एवं सिद्धान्त को निर्धारित करते समय उस सूक्ष्म तत्व की स्थिति का पूरा-पूरा ध्यान रखा है।

आहार विज्ञान को ही लीजिए। यों साधारण रीति से लहसुन और प्याज निर्दोष ही नहीं शरीर के लिए लाभदायक भी हैं। पर उनके अन्दर जो तमोगुणी तत्व अधिक मात्रा में रहते हैं उन्हें देखते हुए अखाद्य घोषित किया गया। क्योंकि इनके खाने से थोड़ा शारीरिक लाभ हो भी जाय तो भी उनमें संव्याप्त तमोगुणी तत्वों की अधिकता से मनः क्षेत्र में तमोगुण बढ़ने पर जो हानि होती है उसकी तुलना में वह शारीरिक लाभ तुच्छ हैं। वही बात वृक्ष और वनस्पतियों के बारे में है। पीपल बरगद आदि को पवित्र इसीलिए माना गया है कि उनकी वायु, छाया, लकड़ी, फूल सभी में सतोगुणी प्रभाव की समीपता प्राप्त करने वाला व्यक्ति भी उन्हीं गुणों से प्रभावित होता है। तुलसी के पौधे में चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से जो गुण है वे करंजवा आदि अन्य कई पौधे में भी मौजूद हैं, पर उन अन्य पौधों की पूजा न होकर केवल तुलसी को ही वह मान इसलिए दिया गया है कि उसमें सूक्ष्म सतोगुणी तत्व अत्यधिक मात्रा में विद्यमान है। जो तुलसी की समीपता प्राप्त करता है, उसकी पूजा करता है उसे वह तत्व अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं।

गाय के बारे में भी यही बात है। यों उसके आर्थिक लाभ भी कम नहीं हैं। बछड़े देकर, दूध गोबर और मूत्र का बहुमूल्य खाद देकर तथा मरने पर चमड़ा हड्डी आदि देकर वह हमारे लिए आर्थिक दृष्टि से बहुत ही लाभकारी सिद्ध होती है, मूल लाभ जो इस आर्थिक लाभ से भी अनेक गुना है यह है कि उसके रोम-रोम से सतोगुण प्रधान प्रभाव बाहुल्य है। जिसके कारण गौ की समीपता से हमारे अन्तः प्रदेश में, मनः क्षेत्र में, दिव्य गुणों की अभिवृद्धि होती है जो मनुष्य को सच्चा मनुष्य बनाने के लिए आवश्यक होते हैं।

धर्म भावना की अभिवृद्धि करने वाले साधनों में गौ का स्थान सर्वोपरि है। गौदान की महिमा प्रसिद्ध है। कन्या का पिता दहेज में और कोई वस्तु दें या न दें पर धर्म व्यवस्था के अनुसार उसे गौदान देना आवश्यक है। यज्ञों में गौ घृत को महत्व दिया गया है। भगवान का प्रसाद पंचामृत के रूप में दिया जाता है। पंचामृत में गाय का दूध, दही,घी ही प्रधान है। प्रायश्चित कर्मों में आत्मशुद्धि के लिए पंचगव्य पिलाया जाता है जिससे दूध, दही, घी के अतिरिक्त गोबर और गोमूत्र भी शामिल है। गाय के गोबर से लिपी हुई भूमि धर्मकार्यों के लिए शुभ मानी जाती है। गौ पालन गोचरण, गोसेवा को भी अन्य धर्म कार्यों के समान ही पुण्य माना गया है।

गौ सेवा के द्वारा अनेक पुण्य फलों के प्राप्ति का वर्णन धर्म ग्रन्थों में मिलता है। राजा दिलीप के संतान नहीं थी, तो गुरु वशिष्ठ ने उन्हें तथा उनकी रानी को गौ चराने का उपदेश दिया। राजा रानी ने वही किया और उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। इसी प्रकार पद्म पुराण में जाबलि मुनि के उपदेशानुसार गौसेवा करने पर संतान होने से राजा ऋतम्भर को सत्यवान नामक पुत्र प्राप्त होने का वर्णन है।

भगवान राम और कृष्ण के अवतार भी गौरक्षा एवं गौवंश का महत्व प्रतिपादन करने के लिए ही हुआ। रामायण में भगवान राम के अवतार का उद्देश्य व्यक्त करते हुये कहा गया है-

“विप्र धेनु सुर सन्त हित लीन मनुज अवतार”

भगवान कृष्ण का तो नाम ही गोविन्द और गोपाल पड़ा। उन्होंने बचपन से आरम्भ में ही गौसेवा को अपनी दिनचर्या का प्रधान अंग बनाकर, गौ के महत्व की और जन साधारण का ध्यान आकर्षित किया। महा पुरुष जो कार्य करते हैं जनता के लिए वही आदर्श हो जाता है। गान्धी जी ने चर्खा स्वयं चलाकर देश भर में चरखे का प्रचार किया। इसी प्रकार भगवान कृष्ण ने भी स्वयं गौ सेवा करके सर्व साधारण को इस महत्वपूर्ण कार्य में संलग्न होने की प्रेरणा दी। यदि लोभवश माता पिता बच्चों को दूध घी न दे तो उन्हें उसके लिए आग्रह करना चाहिए, इसके लिए उनने गोरस लूट कर खाने का उदाहरण अन्य बालकों के सामने उपस्थित किया। गोबर को लोग चूल्हें में जलाते थे, उसके विरुद्ध उन्होंने एक भारी आन्दोलन खड़ा किया। उनने बताया कि गोबर जलाने की वस्तु नहीं वरन् धन है। उनकी उंगली के इशारे से गोबर धन उठाने के लिए इकट्ठा करने के लिए गोपगण जुट गये और उससे एक पहाड़ जमाकर लिया। उसकी पूजा हुई। गोबर की खाद के रूप में उपयोग करने की प्रथा चली और यह गोबर ईंधन न रहकर धन बन गया। यही गोबर धन पूरा है। भगवान कृष्ण की लीलाओं में गौ सेवा को बहुत अधिक स्थान मिला है।

इन अवतारी पुरुषों ने जन समाज के आर्थिक एवं शारीरिक लाभों के लिए ही गौरक्षा को महत्व दिया था, उसका वास्तविक उद्देश्य गौ में सन्निहित उस आध्यात्मिक तत्व की रक्षा करना था जिसकी सेवा समीपता से लोगों की अन्तः भूमिका में धर्म भावनाओं की स्थिति एवं अभिवृद्धि होती है।

ऋग्वेद 8॥ 101॥ 16 में एक मंत्र आता है

माता रुद्राणाँ दुहिता वसूनाँ स्वसादित्या नाम मृतस्य नाभिः। पुनुवोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदिति वधिष्ठ।

अर्थात् गाय रुद्रों की माता, वसुओं की पुत्री, आदिति पुत्रों की बहिन है। इसके थनों में अमृत है। ऐसी महान गौ की कोई विवेकवान व्यक्ति कष्ट न पहुँचावे।

स्कंद पुराण 10।18।20 में लिखा है

त्वं माता सर्व देवानाँ त्वं च यज्ञस्य कारणम् त्वं तीर्थ सर्वं तीर्थाणाँ नमस्ते स्तुसदानद्यो।

अर्थात् गाय सब देवों की माता है, यज्ञ का कारण है, सब तीर्थों का तीर्थ है। उसे नमस्कार है।

इस प्रकार के अगणित अभिवचन शास्त्रों में मिलते हैं। दूध और घी से शरीर पुष्ट होता है यह सर्वविदित है। बछड़ों के बिना भारतवर्ष की कृषि व्यवस्था नहीं चल सकती यह भी स्पष्ट है। खेतों की पैदावार के लिए गोबर और खाद्य कितना आवश्यक है यह भी किसी से छिपा नहीं है। पर यह बातें उतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं जितनी कि गाय में सन्निहित सूक्ष्म शक्ति की उपयोगिता। जिसके बिना हमारी परम्परागत धार्मिक एवं आध्यात्मिक महानता स्थिर रह सकती।

दूध घी के स्थान पर और कोई पौष्टिक पदार्थ ढूँढ़ा जा सकता है। खेती के लिए बछड़ों के स्थान पर मशीनों तथा गोबर की जगह रासायनिक खाद की बात सोची जा सकती है पर गाय के शरीर में जो असाधारण दिव्य तत्व है उसकी पूर्ति अन्य किसी प्रकार नहीं हो सकती। यों डाक्टरों ने अन्य दूध की अपेक्षा गौदुग्ध को स्वास्थ्य के लिए कहीं अधिक उपयोगी तत्वों से युक्त बताया है पर उससे भी बड़ी बात यह है कि गो दुग्ध पीने वाले के स्वभाव में दया का भाव मैत्री, उदारता प्रेम, तितीक्षा संयम शीलता आदि गुणों की अभिवृद्धि होती है।

गाय के घी से किये हुए हवन से देवता अधिक प्रसन्न होते हैं। गोबर से लीपे हुये मकान में निवास करने पर चित्त अधिक शान्त रहता है। पंचामृत या पंचगव्य पीने से दुष्कर्मों के प्रति स्वयं की घृणा भावना उत्पन्न होने लगती है। यह सभी बातें आध्यात्मिक उन्नति में भारी सहायक सिद्ध होती है।

मनुष्य जीवन में शरीर स्वास्थ्य, धन, विद्या आदि का बहुत महत्व है, पर सबसे अधिक महत्व उसकी आन्तरिक स्थिति का है। जिसका अन्तःकरण महान है वही इस पृथ्वी का रत्न है, वही देश का गौरव है, वही इतिहास का उज्ज्वल नक्षत्र है, यह लाभ जिसे प्राप्त हो गया उसका मनुष्य जीवन धन्य हो गया। भारत भूमि का प्रत्येक व्यक्ति किसी समय देव संज्ञा में गिना जाता था, इसका कारण यहाँ के निवासियों की शारीरिक, आर्थिक एवं शिक्षा विशेषता नहीं, वरन् आध्यात्मिक महानता ही थी, उसके अभाव में आज हम दुर्गति की और अग्रसर होते हैं। यदि हमें अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त करना है तो भौतिक उन्नतियों तक ही सीमित न रह कर अपनी आध्यात्मिक उन्नति की और ध्यान देना पड़ेगा।

भारत के प्राचीन आध्यात्मिक उत्कर्ष में गौ का बहुत महत्व रहा है। अब भी उस अवलंबन को पकड़ना उसी प्रकार आवश्यक है जैसा कि प्राचीन काल में था? गाय की रक्षा, गौ सेवा भौतिक दृष्टि से भी आवश्यक है। पर उसकी सबसे अधिक आवश्यकता तो अपनी आत्मिक संपदा की स्थिरता, रक्षा एवं उन्नति की दृष्टि में है।


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