दान का उद्देश्य सामाजिक कल्याण होना चाहिए।

July 1958

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(श्री बाड़ीलाल शाह)

दान का अर्थ क्षमा भी है। किसी ने अनजानपन में कोई नुकसान कर दिया हो- शरीर से मन से, वचन से- तो यह उसकी बुद्धि का अपराध नहीं है, ऐसा समझकर उसके प्रति सहज भाव से क्षमादान करना भी दान का ही एक अंग है।

जान-बूझकर कोई शरीर से, मन से, अथवा वचन से नुकसान करे, तो यह उसकी बुद्धि का अपराध है। इस ‘कृत्य’ को अपराध के रूप में समझना चाहिए, पर क्रोध न करना चाहिए। क्रोध करना अपनी बुद्धि की निर्बलता साबित करने के समान है।

अपराधी को यों ही छोड़ देना, इसका अर्थ है मानसिक निर्बलता। पर अपराधी को न छोड़ने का अर्थ यह भी नहीं समझना चाहिए कि कानून को अपने हाथ में ले लिया जाय। अपराधी का फटकारने से वह सुधर जायगा, यह विचार भी भ्रमपूर्ण है। इसलिए उपयुक्त अधिकारी के सामने अपराध को प्रकट कर देना, यही उचित मार्ग है। पर यह कार्य भी बैर या बदले की भावना से नहीं, वरन् इस उद्देश्य से करना चाहिए कि समाज की व्यवस्था में गड़बड़ी न फैले। इस प्रकार का उच्च उद्देश्य ही वास्तविक क्षमा है। ऐसी उदारता से अपने चित्त को भी शाँति मिलती है।

अगर कोई हमारा व्यक्तिगत नुकसान करता है तो उसे क्षमा कर देने का हमको अधिकार है। पर जान-बूझकर समाज अथवा देश का जो नुकसान किया जाय उसे क्षमा करने का अधिकार किसी एक मनुष्य को नहीं है। जो मनुष्य समाज अथवा देश की इच्छापूर्वक की गई हानि को देखकर चुप रह जाते हैं, वे क्षमाशील नहीं हैं, वरन् कायर हैं, संकुचित दृष्टि वाले हैं, स्वार्थी हैं। वे अपने ही घर अथवा कुटुम्ब में समस्त संसार का समावेश मानने वाले होते हैं।

व्यापक बुद्धि का उपयोग करते हुए क्षमा करना ही वास्तविक क्षमा है। छोटी बुद्धि से, अथवा बुद्धि का बिलकुल उपयोग न करके किसी का बुरा काम सहन करना यह क्षमा नहीं है बल्कि अन्तःकरण की कमजोरी है। क्षमा एक वीर का, अन्तःकरण की शक्ति वाले मनुष्य का गुण है। निर्बलों की दिखावटी क्षमा ही जाति और देश का विनाश करने वाली होती है।

दुखी के प्रति मन से करुणा का भाव रखना दान है। किसी का दुःख दूर हो अथवा कम हो सके ऐसी सलाह देना भी दान है। दुःखी को दिलासा मिले, हिम्मत मिले अथवा वह कुछ समय के लिए दुःख को भूल जाय, ऐसा बोलना भी दान है। भूखे-प्यासे को अन्न-जल देना दान है। स्वयं किसी को विद्या देना या दिलवाना भी दान है। मार्ग से भटके हुओं को ठीक रास्ता दिखला देना, लोक हित के सुव्यवस्थित कार्य में द्रव्य से, सिफारिश से, शारीरिक श्रम से मदद करना, बीमार की सेवा-सुश्रूषा करनी या करानी भी दान है। घर, आँगन, मोहल्ला, गाँव को साफ रखना या रखाना सार्वजनिक दान है।

जाति में से हानिकारक रूढ़ियों और अज्ञान दूर हो ऐसा प्रयत्न करना या कराना और ऐसा प्रयत्न करने वालों को यथाशक्ति सहयोग देना दान है। सुखी अथवा ज्ञानी व्यक्ति को देखकर खुशी होना भी दान है। अपने को हर रोज कुछ नया ज्ञान अथवा अनुभव मिले इसका ध्यान रखना यह भी स्वदया अथवा श्रेष्ठ दान है।

दान के लिए सम्पत्तिशाली होने की राह देखनी अनावश्यक है। दान का मूल्य खर्च की गई रकम के आधार पर नहीं समझना चाहिए वरन् इस बात को समझना चाहिए कि कितनी गहरी सहानुभूति से और कितने विवेक से दान किया गया। विवेक का अर्थ है सब अंगों का विचार। ऐसे विवेक के बिना दिया गया दान ‘पाप’ रूप भी हो सकता है। जिस विचार, वाणी अथवा कृत्य से अपने या दूसरों के शरीर, मन, बुद्धि, चित्त अथवा व्यक्तित्व को हानि पहुँचे- किसी प्रकार का पतन हो, वह पाप है। इसके विपरीत जिस विचार, वाणी अथवा कृत्य से अपना या दूसरे का हित हो, निर्मलता प्राप्त हो, उन्नति हो, तो वह पुण्य है।

शक्ति के होते हुए, बुद्धि और हृदय द्वारा दी गई दान की आज्ञा को अनसुना कर देना ‘प्रमाद’ है प्रमाद एक बहुत बड़ा पाप है, क्योंकि उससे व्यक्तित्व दब जाता है। दान-बुद्धि जैसे-जैसे प्रबल होती है, वैसे ही वैसे व्यक्तित्व अधिक विकसित होता जाता है। पूर्ण रूप से विकसित व्यक्तित्व ही देवत्व अथवा दिव्यता कहा जाता है और बिलकुल दबा हुआ व्यक्तित्व ही नरक अथवा पतन का द्योतक है।

जिस समाज में दान-बुद्धि नहीं होती, उस समाज में संगठन, सुव्यवस्था, समझौता और प्रगति कदापि सम्भव नहीं होती। खाना, पीना, पहिनना और देखना- यह आवश्यक है, इसलिए कि इनके द्वारा रक्षा और विकास होता है। पर जो मनुष्य खाना, पीना, पहिनना और देखना, इनके लिए ही जीवित रहता है, वह मन का गुलाम है, उसकी बुद्धि, चित्त, व्यक्तित्व बिल्कुल दबे हैं। वह जानवर है। ‘जानवर’ से दान नहीं हो सकता, दान तो देव-देवी ही कर सकते हैं।

धन की गुलामी, मौज-शौक की गुलामी, हृदय हीन बुद्धि की गुलामी, ये सब बातें दान नहीं करने देतीं। जिसने दान-गुण का विकास नहीं किया है, उससे शील, तप और भावना हो ही नहीं सकते। सहज से सहज गुण दान-गुण है, समस्त गुणों का आधार दान-गुण पर रहता है।

सावधान! धूर्त अथवा पाखण्डी लोगों को दान करोगे तो इससे समस्त मनुष्य समाज के प्रति द्रोह करने का पाप होगा। सावधान! दान का घमण्ड करोगे तो व्यक्तित्व का नाश कर बैठोगे। लाभ के बजाय उल्टी हानि उठानी पड़ेगी। सावधान! दान अथवा शील, तप आदि कुछ करो वह अपने अन्तःकरण की शुद्धि की दृष्टि से, अपने व्यक्तित्व के विकास के उद्देश्य से करो, उसमें ‘परोपकार’ मत समझो।

लोगों की वाह-वाह घड़ी भर की है, पचास की चोरी करके पाँच का दान करने वालों की भी लोग वाह-वाह करते हैं, किसी महत्व के कार्य के लिए सर्वस्व खर्च कर देने वाले की लोग वाह-वाह के बदले उल्टी हँसी भी करते हैं और आज जिसकी वाह-वाह करते हैं कल उसी की निन्दा भी करते हैं। इसलिए लोगों के स्वभाव को समझकर ‘वाह-वाह’ रूपी बला से दूर ही रहना- यही सच्चे विवेक और स्वदया का लक्षण है।

‘दया करो’-’दया करो’ इसी प्रकार तुम चारों तरफ से सुनते रहोगे। पर अपने दिल को मजबूत बनाओ और लोक प्रवाह में बह जाने से रोको। मैं तुमसे कहता हूँ कि स्वदया करो! स्वदया करो! अपने प्रति सच्चे रहो- इसके द्वारा सबकी तरफ सच्चे रहने का प्रयत्न अपने आप हो जायगा।

मेरा कहना यही है कि अगर बुरी भावना वाले व्यक्ति के हाथों में अपनी पतवार दोगे तो समझ लो कि तुम्हारा जहाज डूब गया। खोटी बुद्धि वाले को संचालक बनाने से तुम एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सकोगे। बुद्धि और सहानुभूति की सहायता से ही तुम्हारा जीवन-जहाज सही सलामत यात्रा कर सकेगा।


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