वेदान्त और मनुष्य मात्र की समता का सन्देश

July 1958

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(स्वामी विवेकानन्द)

हम लोगों को संसार के लिए-योरोप और सम्पूर्ण संसार के विचारशील व्यक्तियों को एक बड़े तत्व की शिक्षा देनी होगी। इस महान सनातन तत्व की आवश्यकता उच्च जातियों की अपेक्षा निम्न जातियों को शिक्षितों की अपेक्षा साधारण लोगों को अधिक है। भारतीय वेदान्त ने सिद्ध कर दिया है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एकमात्र आत्मा की विराजमान है, वही एकमात्र सत्ता है सारे ब्रह्माण्ड के मूल में यही एकमात्र तत्व समाया हुआ है। मैं जानता हूँ कि इस महान तत्व को सुनकर बहुत से लोग चौंक पड़ेंगे। अन्य देश वालों की क्या बात, हमारे देश में भी बहुत से लोग इस अद्वैतवाद से भयभीत होंगे। कुछ भी हो मैं आप लोगों से यही कहूँगा कि संसार को जीवन प्रदान करने वाली कोई शिक्षा देनी है, तो वह यही अद्वैतवाद है। भारत की मूक साधारण जनता की उन्नति के लिये इस अद्वैतवाद के प्रचार की आवश्यकता है। इस अद्वैतवाद को कार्य रूप में परिणित किये बिना हमारी इस मातृ-भूमि के उद्धार का और कोई उपाय नहीं है।

पश्चिमी जातियों के युक्तिवादी लोग अपने सभी दर्शनों और नीति-विज्ञान का कोई एक मूल आधार ढूँढ़ रहे हैं। लेकिन कोई व्यक्ति विशेष चाहे वह कितना ही बड़ा, या ईश्वर के समान ही क्यों न हो उसका कोई दर्शन या नीति-विज्ञान प्रमाण-स्वरूप नहीं माना जा सकता। संसार के बड़े-बड़े विचारशील लोगों के सामने उनकी नीति व दर्शन प्रामाणिक नहीं हो सकते। वह लोग किसी मनुष्य के द्वारा अनुमोदित दर्शन को प्रामाणिक न मानकर, सनातन तत्वों के ऊपर आधार रखने वाले दर्शन को ही स्वीकार करना चाहते हैं। यह सनातन आधार इसके सिवा और क्या हो सकता है कि एकमात्र अनन्त सत्य, तुम्हारे, हमारे और अन्य सभी की आत्मा में वर्तमान है। आत्मा की अनन्त एकता ही सब तरह की नीति का मूल कारण है। तुम में और हम में केवल भाई-भाई का ही सम्बन्ध नहीं है, लेकिन वास्तव में हम और तुम ही हैं। भारतीय दर्शनों का यही सिद्धान्त है। सब प्रकार की नीति और धर्म-विज्ञान का मूल आधार यही एकत्व हो सकता है।

हम लोगों के देश की सामाजिक अत्याचारों से पिसी हुई निम्न जातियाँ जिस प्रकार इस सिद्धान्त से लाभ उठा सकती हैं, वैसे ही योरोप, अमरीका आदि के लिये भी इसका प्रयोजन है।

जिस समय मैं अमेरिका में था उस समय मेरे ऊपर कुछ लोगों ने यह आक्षेप किया था कि “मैं केवल अद्वैतवाद का ही प्रचार करता हूँ, द्वैतवाद के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहता।” मैं स्वीकार करता हूँ कि द्वैतवाद के प्रेम, भक्ति, उपासना में अपूर्व परमानन्द प्राप्त होता है, उसकी अपूर्व महिमा से भी मैं भली प्रकार परिचित हूँ। परन्तु भाइयों! इस समय हमको रोने-धोने का समय नहीं है। हम लोग काफी रो धो चुके हैं। अब हम लोगों को कोमल भावों के ग्रहण करने का समय नहीं है। इस तरह की कोमलता की सिद्धि करते-करते हम लोग इस समय मुर्दे सरीखे हो रहे हैं, हम लोग रुई की तरह कोमल हो गये हैं। हमारे देश के लिये इस समय आवश्यकता है- लोहे की तरह माँसपेशी और स्नायुओं से युक्त बनने की इतनी दृढ़ इच्छा शक्ति सम्पन्न होने की कि कोई उसका प्रतिरोध करने में समर्थ न हो! अपने आदर्श की पूर्ति के लिये चाहे समुद्र के तल में जाना पड़े, चाहे मृत्यु का ही आलिंगन क्यों न करना हो, इस तरह की दृढ़ता के भाव हममें अद्वैतवाद के महान तत्व को सामने रखकर ही आ सकते हैं।

विश्वास, विश्वास, विश्वास- अपने ऊपर विश्वास रखना ईश्वर पर विश्वास रखना, यही उन्नति प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है। यदि तुम अपने पुराणों में लिखे तैंतीस करोड़ देवताओं पर विश्वास रखो, साथ ही विदेशियों के जितने देवता हैं, उन सब पर भी विश्वास रखो, पर अगर तुममें आत्मविश्वास न हो, तो तुम्हारी मुक्ति कभी नहीं हो सकती। अपने ऊपर भरोसा रखो, उस विश्वास के बल से अपने पैरों पर खड़े हो जाओ और वीर्यशाली बनो। इस समय हमारे लिए यही आवश्यक है। हम लोग संख्या में बहुत अधिक होने पर भी अभी तक मुट्ठी भर विदेशियों से दबे रहे, इसका कारण क्या है? कारण यही है कि उनको अपने ऊपर विश्वास है, पर हमको अपने ऊपर विश्वास नहीं। मैंने पश्चिमी देशों में जाकर सीखा है? ईसाई लोग साधारणतया मनुष्य मात्र को पतित, लाचार और पापी समझते हैं। इन व्यर्थ की बातों में न पड़कर मैंने इस पर ध्यान दिया कि इन लोगों की जातीय उन्नति का वास्तविक कारण क्या है? मैंने योरोप और अमेरिका दोनों महाद्वीपों में देखा कि उनके जातीय हृदय के भीतर उनका महान आत्मविश्वास छिपा हुआ है। एक अँग्रेज बालक तुमसे कहेगा कि मैं अंग्रेज हूँ, मैं सब कुछ कर सकता हूँ। अमेरिकन बालक भी यही कहेगा- प्रत्येक योरोपियन बालक यही कहेगा। क्या हमारे बच्चे भी ऐसा कह सकते हैं? बच्चे ही क्यों उनके पिता तक यह कहने का साहस नहीं कर सकते। हम लोगों ने अपने ऊपर विश्वास खो दिया है। इसी कारण से वेदान्त के अद्वैतवाद का प्रचार करना आवश्यक है, जिससे लोगों के हृदय में जागृति पैदा हो, जिससे हम अपनी आत्मा की महिमा को जान सकें। इसी कारण से मैं अद्वैतवाद का प्रचार करता हूँ। मैं इसका प्रचार साम्प्रदायिक भाव से नहीं करता, बल्कि मनुष्य जाति का कल्याण हो, इसी भाव से इसका प्रचार कर रहा हूँ।

इस अद्वैतवाद का इस प्रकार भी प्रचार किया जा सकता है, जिससे द्वैतवादी, विशिष्टाद्वैतवादी को भी किसी तरह की आपत्ति का कारण न रहे, इन सब मतों में सामंजस्य स्थापित कर सकना कोई कठिन बात नहीं है। भारत में ऐसा कोई सम्प्रदाय नहीं जिसमें यह न कहा गया हो कि भगवान सबके भीतर निवास करते हैं। हमारे वेदान्त मत के विभिन्न सम्प्रदाय वाले सभी स्वीकार करते हैं कि जीवात्मा में पहले से ही पूर्ण पवित्रता, वीर्य और पूर्णता छिपी हुई है। तो भी किसी-किसी के मतानुसार यह पूर्णता कभी-कभी संकुचित हो जाती है और कभी विकास को प्राप्त होती है। यह होने पर भी वह पूर्णता हमारे ही भीतर रहती है, इसमें कोई सन्देह नहीं। अद्वैतवाद के अनुसार वह न तो संकुचित होता है और न विकास को ही प्राप्त होता है। केवल समय-समय पर प्रकट और गुप्त रहता है। ऐसा विचारने से कार्यतः द्वैतवाद के साथ वह एक रूप है। कोई एक मत दूसरे की अपेक्षा न्याय संगत और युक्ति संगत हो सकता है, लेकिन कार्य अथवा परिणाम की दृष्टि से दोनों प्रायः एक ही हैं। इस मूल तत्व का प्रचार करना संसार के लिये अत्यावश्यक हो रहा है और हमारी मातृभूमि भारत में इसका जितना अभाव है उतना और किसी देश में नहीं है।

इसमें सन्देह नहीं कि वेदान्त के प्रचार द्वारा इस देश में और अन्यान्य देशों में भी काफी लोकहित कर कार्य हो सकते हैं। मनुष्य जाति की एकता और उन्नति के लिए परमात्मा की सर्वव्यापकता और सर्वत्र समभाव से अवस्थित रहना इन दो तत्वों का प्रचार करना होगा। जहाँ कहीं भी अन्याय दिखलाई पड़ता है, वहीं पर अज्ञान दिखलाई पड़ता है। मैंने अपने अनुभव से यह जाना है और हमारे शास्त्रों में भी लिखा है कि भेद बुद्धि पैदा होने से ही सभी खराबियाँ पैदा होती हैं और अभेद बुद्धि होने पर अर्थात् सभी विभिन्नताओं के रहते हुये भी वास्तव में एक ही सत्ता है इस विश्वास करने पर सब तरह कल्याण होगा। यही वेदान्त का सबसे ऊँचा आदर्श है। गीता में भी भगवान कृष्ण ने इस तत्व को बहुत स्पष्ट शब्दों में प्रकट किया है :-

समं सर्वेषु भूतेष तिष्ठतं परमेश्वरम्। विनश्यत्स्व विनश्यत्वं यः पश्यति स पश्यति॥ 13-27

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थित मीश्वरं। न हिन्स्त्यात्मनात्मानं ततो यादि पराँ गतिम्॥ 13-28

अर्थात्- “विनाशवान सब प्राणियों में अविनाशी परमेश्वर को जो समभाव से अवस्थित देखते हैं, वही यथार्थ में दर्शन करते हैं। इसका कारण यह है कि ईश्वर को सर्वत्र समभाव से अवस्थित देखकर हम अपनी आत्मा द्वारा आत्मा की हिंसा नहीं करते, इसलिए परम गति को प्राप्त होते हैं।”


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