अमेरिका भी आध्यात्मिकता को खोज रहा है।

July 1958

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(श्री लीलारानी)

हम भारतीयों का ऐसा विश्वास है कि धार्मिक तथा आध्यात्मिक विषयों की रुचि इस देश के निवासियों में ही विशेष रूप से पाई जाती है। संसार के अन्य देशवासियों को हम बिल्कुल धर्म-शून्य समझते हैं। हमारे यहाँ अधिकाँश लोगों को ख्याल है कि ये लोग नास्तिक हो गये हैं और भगवान के विरोधी हैं। दरअसल इस विषय में हमारा ज्ञान बहुत अधूरा और ऊपरी है। जैसा मानव स्वभाव आजकल हो गया है, हम दूसरों के विषय में उदारतापूर्वक विचार करने के अभ्यासी नहीं हैं। दूसरों के दोषों को हम कई गुना बढ़ाकर दिखाते और गुणों की उपेक्षा करते हैं। पर यह विचार-प्रणाली अज्ञानियों की है इससे हमारा स्वयं का विकास अवरुद्ध हो जाता है। ज्ञानी पुरुष का कर्तव्य है कि वह प्रत्येक व्यक्ति या समुदाय के विषय में निष्पक्ष भाव से विचार और आलोचना करे और दोषों की तरह उनके गुणों को भी प्रकाश में लावे।

अमरीका का देश इस समय भौतिक उन्नति में सर्वोपरि माना जाता है। मोटर, हवाई जहाज, ग्रामोफोन, सिनेमा आदि सभी खास-खास आविष्कार अमरीका वालों ने ही किये हैं, और धन-सम्पत्ति में भी वे इस समय संसार भर में बढ़े-चढ़े हैं। हम लोग प्रायः यही ख्याल करते हैं कि अमरीका का ध्यान भौतिक विषयों की तरफ ही है, धार्मिक और आध्यात्मिक विषयों की वहाँ कोई पूछ नहीं। पर अभी अमरीका की शिक्षा कमीशन की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है जिससे प्रकट होता है कि उस देश में बालकों को आरम्भ से नैतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक शिक्षा दी जाती है जिससे उनमें अनेक सद्गुणों का विकास होता है और वे साँसारिक सफलता प्राप्त करने में भी अग्रणी रहते हैं। रिपोर्ट के शब्दों में नैतिक और आध्यात्मिक गुणों का विकास सदा से अमरीकी शिक्षा का एक बड़ा लक्ष्य रहा है। समाज इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए अपनी सब संस्थाओं से अनुरोध करता रहता है। घरों और स्कूलों से इस सम्बन्ध में विशेष आशा रखी जाती है, क्योंकि बालकों के पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा में इन दोनों का स्थान प्रमुख होता है।

अमेरिकी जनता अपने देश के स्कूलों से यह आशा करती है कि वे नैतिक और आध्यात्मिक गुणों का भी विकास करेंगे। उनकी यह आशा उचित भी है। स्कूलों ने भी यह उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले रखा है। जो स्त्री-पुरुष इन स्कूलों में पढ़ जाते हैं वे समाज के उत्तरदायी सदस्य होने के नाते इस व्यवस्था का आदर करते हैं। शिक्षक के रूप में वे एक ऐसा पेशा अपना चुके हैं, जो सामाजिक आचार-नियन्त्रण में इन गुणों को प्रथम स्थान प्रदान करता है।

कोई भी समाज सदाचार की व्यवस्था के बिना जीवित नहीं रह सकता। सामाजिक जीवन में नैतिक और आत्मिक गुणों के बिना काम चल नहीं सकता। ज्यों-ज्यों समाज का संगठन अधिकाधिक पेचीदा बनता जाता है और ज्यों-ज्यों सबकी सुख समृद्धि पारस्परिक सहयोग पर निर्भर होती जाती है, त्यों-त्यों सदाचार के सर्वसम्मत सिद्धान्तों की आवश्यकता भी बढ़ती जाती है। विशेषतः जो समाज व्यक्तियों को अधिकतम स्वतन्त्रता देने का पक्षपाती हो, उसमें सबकी मान्यता से निर्धारित सदाचार के नियमों का व्यक्तियों द्वारा पालन और आदर और भी आवश्यक हो जाता है। किसी समाज का संगठन कितनी सूझ-बूझ से क्यों न किया जाय और शासन-व्यवस्था को कितनी ही दूरदर्शिता से क्यों न सँभाला जाय और उसके कानूनों और आदेशों का निर्माण कितने ही उच्च उद्देश्य से क्यों न किया जाय, यदि उसके व्यक्तियों में सचाई, ईमानदारी और निजी अनुशासन का अभाव होगा तो वह सुखी और सुरक्षित नहीं रह सकता।

अमेरिका के सरकारी स्कूलों में धार्मिक

विश्वासों का सम्मान

संयुक्त राज्य अमेरिका के सरकारी स्कूल कानून द्वारा स्थापित और नियन्त्रित हैं। उनका व्यय सरकारी कोष से चलता है। उनकी नीति का निर्धारण प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जनता द्वारा निर्वाचित अधिकारी करते हैं। ये स्कूल शासन और संचालन की दृष्टि से तो सरकारी अर्थात् सार्वजनिक हैं ही, उनमें सबका प्रवेश हो सकने की दृष्टि से भी सार्वजनिक हैं।

सार्वजनिक संस्था होने के कारण सरकारी स्कूलों को धर्म-विशेष से सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए। पारलौकिक शक्ति और उससे मनुष्य का सम्बन्ध इस विषय में जो नाना मतमतान्तर अथवा सम्प्रदाएं हैं, उनमें से किसी एक को किसी से मनवाने का कार्य वे नहीं कर सकते।

नैतिक और आत्मिक गुणों के शिक्षण में सरकारी स्कूल अति महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। उनका यह महत्वपूर्ण कार्य कभी-कभी इस कारण तिरोहित अथवा अदृश्य हो जाता है कि उनको धर्म विरोधी बतलाकर उनकी निन्दा करने का प्रयत्न किया जाता है। परन्तु वे धर्म-विरोधी नहीं हैं। प्रत्युत सरकारी स्कूलों की नीति सब धार्मिक मतों पर आदर और किसी से भी पक्षपात न करके चलने की है।

अमेरिका को बसाया ही धर्म-भीरु लोगों ने था। अमेरिका के संविधान “नागरिक अधिकारों के बिल” में धार्मिक आदर्शों की सत्ता स्पष्ट रूप में स्वीकार की गई है और प्रत्येक व्यक्ति को अपने-अपने धार्मिक विश्वासों और आदेशों के अनुसार ईश्वर की आराधना करने की स्वतन्त्रता दी गई है। किसी एक या अनेक धर्मों को राज्य का धर्म न मानने का यह अर्थ नहीं समझना चाहिए कि वह ‘धर्म’ को मानता ही नहीं है। अमेरिका के सरकारी स्कूल भी, अपनी देश की सरकार की भाँति, धार्मिक विचारों की स्वतन्त्रता के दृढ़ पक्षपाती हैं।

अमेरिकन राष्ट्र को बलवान बनाने में धार्मिक विभिन्नता और सहिष्णुता से बहुत सहायता मिली है और सरकारी स्कूलों में भी वे दोनों बातें अपने यथार्थ रूप में दृष्टिगोचर होती हैं और क्योंकि देश में अनेक धार्मिक मत प्रचलित हैं, इस कारण सर्व-साधारण का शिक्षण भी धार्मिक स्वतन्त्रता के विचार से मिलता जुलता होना चाहिए। उसका आधार किसी धर्म-विशेष के सिद्धान्तों का प्रचार नहीं, वरन् सब धर्मों का उचित आदर होना चाहिए। शिक्षण को विविध धार्मिक मतों का पंचमेल बनाने का समावेश होना चाहिए, जिनको सभी धर्म और उनके अनुयायी उत्तम मानते हैं। इस प्रकार के शिक्षण का महत्व भी अधिक होता है।

नैतिक और आत्मिक गुणों का विकास शिक्षण के अन्य सब उद्देश्यों की पूर्ति का आधार है। इन गुणों की उपेक्षा करके चलने वाला शिक्षण लक्ष्यहीन शिक्षण होता है। जिन गुणों का मानव-व्यवहार में उपयोग न हो वे व्यर्थ हैं।

सरकारी स्कूलों की पद्धति साधारणतया इस सत्य को मानकर चलती है कि शिक्षण के सब उद्देश्यों का संगम नैतिक और आत्मिक गुणों में जाकर होता है। शिक्षण के प्रत्येक विभाग में नैतिक और आत्मिक गुणों की दृष्टि से मार्ग निर्देश की आवश्यकता रहती है। कोई नहीं कह सकता कि वर्तमान पीढ़ी के नवयुवकों को आगामी वर्षों में किन समस्याओं का सामना करना पड़ जायगा। हम कितना भी यत्न करें फिर भी भविष्य अनिश्चित ही रहता है। परन्तु नैतिक और आत्मिक गुणों के विकास में एक ऐसा मापदण्ड मिल जाता है जिससे हम किसी भी भावी समस्या का सामना कर सकते हैं।

अमरीका ने आज तक जो अभूतपूर्व उन्नति की है, वही इस बात का प्रमाण है कि वहाँ के मनुष्यों में नैतिकता व आध्यात्मिकता का पर्याप्त अंश है, जिसके प्रभाव से वे साँसारिक सफलताएं प्राप्त करते चले जाते हैं। प्राचीन समय में वहाँ वाशिंगटन, गारफील्ड, अब्राहम लिंकन आदि ऐसे महापुरुष उत्पन्न हो चुके हैं, जिन्होंने लोक कल्याण के लिए अनुपम त्याग किया है। भारत के महान सन्त पुरुष स्वामी रामतीर्थ और स्वामी विवेकानन्द का अमरीका में जैसा भव्य स्वागत-सम्मान किया गया वह भी अभी हमको स्मरण है। पर वर्तमान समय में वह जिस प्रकार धन को ही सर्वोपरि स्थान देने लगा है और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में स्वार्थ-साधन की नीति को प्रधानता दे रहा है, उससे उसका महत्व अध्यात्म प्रेमियों की दृष्टि में घटने लगा है और वह भगवान के बजाय धन का पुजारी ही माना जा रहा है। आशा है अमरीका के आध्यात्मिक नेता अपने देश की इस पतनोन्मुख प्रवृत्ति से रक्षा करेंगे।


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