हिंसा का प्रतिकार अहिंसा से ही होगा।

July 1958

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(सन्त बिनोवा भावे)

वर्तमान समय में हिंसा ने जैसा भयंकर रूप धारण किया है वैसा संसार के इतिहास में कभी देखने में नहीं आया। शस्त्रों की शक्ति को बढ़ाते-बढ़ाते मनुष्य ने ऐसी विधियाँ ढूँढ़ निकाली हैं कि उनके द्वारा समस्त संसार का दस-बीस दिन में ही नाश किया जा सकता है। इस महाशक्ति से मतवाले बनकर दुनिया के प्रमुख राष्ट्र एक दूसरे को मटियामेट कर डालने की धमकी दे रहे हैं और कोई आश्चर्य नहीं कि इसी प्रकार धमकी देते-देते दो चार वर्ष के भीतर वास्तव में ये प्रलय के बादल मनुष्य जाति के ऊपर फट पड़ें। संसार के नामी राजनीतिज्ञ इस परिस्थिति के सुधार का उपाय यही बतला रहे हैं कि शक्ति को बराबर बढ़ाते जाओ तो दुश्मन के साथ-साथ अपने भी नाश के भय से कोई राष्ट्र युद्ध आरम्भ करने का साहस न करेगा। पर यह बिलकुल उलटा और जान-बूझकर आंखें बन्द कर लेने का उपाय है। ऐसा ही ख्याल करते-करते गत पचास वर्षों में दो बार विश्व व्यापी महायुद्ध हो चुके हैं। इसलिए यदि वास्तव में युद्ध की विभीषिका का निराकरण करना है तो उसका उपाय बिलकुल भिन्न प्रकार का होना चाहिए। इस सम्बन्ध में संत बिनोवा ने भारतीय संस्कृति के अनुकूल जो विचार प्रकट किए हैं ये विशेष महत्वपूर्ण हैं। यद्यपि उन्होंने इस सम्बन्ध में जो विवेचना की है वह भारतीय समस्याओं को दृष्टिगत रखकर ही की है, तो भी उसका प्रयोग अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी सफलतापूर्वक किया जा सकना सम्भव है।

हमारे आन्दोलन और कार्य पद्धति का मूलभूत विचार अहिंसा का ही है। हम सब लोग जानते हैं कि अहिंसा की प्रक्रिया हृदय-परिवर्तन की अपनी एक पद्धति है। मनुष्य कभी-कभी जानता भी नहीं कि उसका हृदय परिवर्तन हो रहा है और कभी-कभी जान भी सकता है। वह प्रक्रिया ऐसी ही है। हमें इसका ध्यान रखना चाहिए कि हमारे विचार, सोचने की पद्धति आदि उसमें बाधक न हों। हमारे देश में भिन्न-भिन्न राजनैतिक पक्ष हैं, भिन्न-भिन्न आर्थिक विचार हैं, चूँकि देश बड़ा है, इसलिए समस्याएं भी बड़ी हैं। अतः अनेक तरह के विचार होते हैं, विचार-भेद उत्पन्न होते हैं। हम जब हृदय-परिवर्तन और विचार परिवर्तन की बात कहते हैं, तो हमेशा हमारे सामने दूसरों के ही विचार-परिवर्तन की बात होती है, ऐसा नहीं है। हृदय-परिवर्तन की यह प्रक्रिया सबके लिए लागू है।

इस प्रक्रिया के बारे में मुझे जो विशेष बातें कहनी हैं, वह यह हैं कि उसमें ‘भ्रम’ का भी स्थान है। यह एक अजीब-सी बात मैं कह रहा हूँ। हमें उपासना करने में इसका हमेशा अनुभव होता है। उपासना में भ्रम का कुछ आधार लेना पड़ता है। आखिर में वह आधार उड़ जाता है। फिर वह उपासना आदत में रहे या छूट जाय, दोनों बातें हो सकती हैं। परन्तु जब तक उसकी जरूरत है, तब तक उसके मूल में जैसे विचार होता है, वैसे भ्रम भी होता है। शुद्ध विचार में उपासना टिकेगी ही नहीं और केवल भ्रम में भी उपासना नहीं टिकेगी। जहाँ विचार और भ्रम दोनों होते हैं, वहीं उपासना होती है। यही दृष्टान्त हृदय-परिवर्तन की प्रक्रिया के लिए लागू होता है।

भ्रम और सत्य, दोनों की जरूरत

भ्रम और सत्य दोनों का होना हृदय-परिवर्तन की प्रक्रिया की एक अवस्था में जरूरी होता है, ऐसा में देखता हूँ। मनुष्य पहले केवल भ्रम में होता है। वहाँ से उसको केवल सत्य में जाना है। अब, केवल भ्रम से, केवल सत्य में जाने के लिए रास्ते में ऐसी भूमिका आयेगी, जबकि उसके मन में कुछ भ्रम और कुछ सत्य का आभास होगा। तब हम अगर फौरन उसका खण्डन करेंगे, तो उसका चित्त चलित होगा और एक विरोध स्थापित हो जायगा। वह यह समझ करके हमारी तरफ आता है, कि मानों हम ही उसकी तरफ जा रहे हैं। उसके ऐसा मानने में कुछ भ्रम भले ही हो, पर कुछ सत्याँश भी हो सकता है।

इस सम्बन्ध में कम्यूनिस्ट और सर्वोदय विचारधारा वालों का उदाहरण विशेष शिक्षाप्रद है। कम्यूनिस्ट कहते हैं कि “भूदान का जो मूल विचार है, यह हमारा ही विचार है। उसके साथ हम सहमत हैं। मालकियत, बल्कि सभी प्रकार की सम्पत्ति की मालकियत न हो- यह बात बाबा अब कह रहा है।” वे समझते हैं कि इतना परिवर्तन बाबा में हुआ ही है। पर मेरा ख्याल है कि कुछ परिवर्तन हुआ भी है और कुछ नहीं भी हुआ। फिर भी यदि वे समझते हैं कि यह विचार असल में कम्यूनिस्टों का ही विचार है, तो भी मैं इस पर ज्यादा आपत्ति नहीं करता। खास कार्य-कर्त्ताओं को तो जो अन्तर है मैं उसे समझा देता हूँ, पर जनता की सभाओं में यह कह देता हूँ कि “कम्यूनिस्ट जो समझते हैं यह ठीक है, इसलिए उनका पूरा समर्थन हमको मिलना चाहिए।”

चुभने वाले सत्य में अहिंसा की कमी

अब यहाँ यह विषय जरा सूक्ष्म हो रहा है। उपर्युक्त तर्क को जब हम अहिंसा के सिद्धान्त पर लागू करते हैं तो जान पड़ता है कि सत्य के विरुद्ध अहिंसा खड़ी है, ऐसा आभास होता है, लेकिन यह आभास-मात्र ही है। वास्तव में सत्य कभी प्रहार नहीं करता, सत्य चुभता नहीं। अगर वह वास्तव में सत्य हो तो सदा प्राणदायी होगा। जो तत्व प्राणदायी है, वह अहिंसक तो होगा ही, चुभेगा भी नहीं। इसलिए जहाँ सत्य चुभता है, वहाँ उसकी सत्यता में ही कुछ कमी होती है। पर अहिंसा की दृष्टि से ऐसे भ्रम का खण्डन करना उचित नहीं है।

वास्तव में अहिंसा में विचार-परिवर्तन, (हृदय परिवर्तन) की प्रक्रिया ही मुख्य अंश है। वह प्रक्रिया किस तरह से प्रकट होती है और किस तरह से काम करती है, इसकी तरफ ध्यान देकर हमको सत्य पर गलत जोर नहीं देना चाहिए। यह विश्वास रखें कि सत्य को जब हम पहिचानते हैं, तो वह कभी छिपेगा नहीं, वह खुला हुआ ही रहेगा। हम वाणी से किसी को कितना भी समझावें, हम चाहे जो करें, जब तक उसकी बुद्धि नहीं खुलती, तब तक सत्य नहीं खुलेगा। इसलिए सत्य को खोलने की हम चिन्ता न करें। हाँ, सत्य को जरूर समझें। पर उसे उतना ही खोलते रहें, जितना कि सामने वाला ग्रहण करता जाय। मेरा खयाल है कि वह प्रक्रिया अहिंसा के लिए अधिक अनुकूल है।

संसार के प्रमुख राष्ट्रों के कर्णधार, जो एक दूसरे पर आक्षेप कर रहे हैं और शस्त्र द्वारा प्रतिस्पर्धा को तैयार हो रहे हैं, उसका कारण उपर्युक्त मनोभावना का अभाव भी है। वे अपने को सोलह आना सच्चा मानते हैं और विरोधी पक्ष वाले को हर तरह से असत्य अथवा भ्रम में ग्रसित समझते हैं। यही कारण है कि समझने की बात उनके दिमाग में नहीं घुसती और वे हिंसा के मार्ग पर ही अग्रसर होते जाते हैं। यदि वे उपर्युक्त लेखाँश में बतलाये गये उपाय के अनुसार शत्रु की बातों में भी सच्चाई का अनुसंधान करें और अपनी गलती को भी अनुभव करें तो शत्रुता के कारण दूर होकर हिंसा का प्रतिकार किया जा सकता है।


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