विश्व-रूप भगवान (Kavita)

July 1958

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निरखत जित, तित ही तुम व्यापक।

भुविसों नमलों प्रति पदार्थ तव कार्य-कुशलता-ज्ञापक॥

सन्ध्या प्रात रैन दिन षट ऋतु क्रमसों सब चुपचाप। आवत जात जगत अभिनय-थल अविकल अपने आप॥

गिरि उत्तंग-श्रृंग नभ चुम्बत प्रकृति मनोहर वेश। हिम-मण्डित रविकर-रंजित नित करत उमंग अशेष॥

शस्य श्याम अभिराम शेष बहु सजल सरित जल पावन। मलयज शीतल हीतल सुखप्रद धीर समीर सुहावन॥

सुभग स्वच्छ स्वच्छन्द द्रुमावलि नम्र लता मृदु काया। अचरज सरसावत् हरसावत दुरसावत् तव माया॥

रवि शशि आदि दारु-योषित सम करत स्वकाज निरन्तर। अद्भुत अमित परत नहिं तामें तिल भरहू कौ अन्तर॥

अकथ प्रदर्शन पुण्य पंक्ति में नित-नव नाचनहारे। बिहसत अधर प्रमोद चमत्कृत चंचल चारु सितारे॥

जगमगात प्रतिपल मुख मण्डल अनुपम परम पुनीत। गावत जन अव्यक्त सुध्वनि सों विश्वरूप तव गीत॥


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