(श्री अवधूत, गोरेगाँव)
सौराष्ट्र प्रदेश में जामनगर शहर ‘छोटी काशी’ के उपनाम से प्रसिद्ध है, क्योंकि वहाँ महादेव के छोटे-बड़े मंदिर बहुत बड़ी संख्या में हैं। उनमें दो मंदिर- श्री भीड़भंजन और श्री काशी विश्वनाथ अधिक प्रसिद्ध हैं। उनमें बाहर से आने वाले पंडितों, ज्योतिषियों, वेद पारंगत विद्वानों, संन्यासियों आदि अतिथियों के ठहरने और भोजनादि की व्यवस्था राज्य की तरफ से और कितने ही नागरिकों की तरफ से भी की गई है। विशेष रूप से वर्षा ऋतु में ऐसे महात्मा और विद्वान वहाँ प्रायः आते रहते हैं और अपने धर्मोपदेशों द्वारा वैदिक धर्म की प्रभावना करते हैं।
वेद-वेदाँग, उपनिषद् और कर्मकाण्ड में दक्षिण तथा उत्तर भारत जितना आगे बढ़ा हुआ है, उतना भारत का दूसरा कोई भाग नहीं है। इसमें पश्चिमीय प्रदेश तो कर्म-उपासना और मन्त्र शक्ति में काफी पिछड़ा हुआ है। यद्यपि जामनगर, राजकोट, गाँडल, भावनगर, जूनागढ़ आदि कुछ इने गिने शहरों में महान् विद्वान् पंडित पाये जाते हैं, तो भी अन्य स्थानों में उनकी कमी है। पर इसके साथ ही वहाँ की जनता बड़ी धर्म जिज्ञासु और सत्पुरुषों का आदर सत्कार करने वाली है।
द्वारका धाम की यात्रा के उद्देश्य से कितने ही वेदमूर्ति विद्वान राजधानी होने के कारण जामनगर में ठहरा करते हैं। अब से लगभग दस-पन्द्रह वर्ष पहले की बात है कि हैदराबाद (दक्षिण) के दो अथर्ववेदीय ब्राह्मण जामनगर में आकर ठहरे। वे इस देश की तरफ कभी नहीं आये थे इसलिए उनको गुजराती भाषा का ज्ञान तो कहाँ से हो सकता था? वे संस्कृत भाषा में बातचीत कर सकते थे, पर उतनी संस्कृत जानने वाले लोग जामनगर में थोड़े ही थे। वे लोग मराठी भाषा बोल और समझ सकते थे, पर उसके जानने वाले भी वहाँ नाममात्र के ही थे। काशी विश्वनाथ के अतिथि आश्रम में ठहरने को उनको एक कोठरी मिल गई, पर भाषा की कठिनाई के कारण उनको प्रायः गूँगा बनकर ही रहना पड़ता था। ऐसी स्थिति में जनता पर उनका क्या प्रभाव पड़ता? तो भी उनको विश्वास था कि भगवती वाणी, शारदा माता अपना प्रभाव प्रकट करेगी।
भाद्रपद बदी 9 को जामनगर की महारानी श्री गुलाब कुँवरवा का जन्म दिवस था। उस दिन समस्त प्रमुख ब्राह्मणों ने राजमहल में जाकर आशीर्वाद दिया और दान दक्षिणा प्राप्त किया। पर अनजानों को वहाँ कौन जाने देता? वे बेचारे निराश हो गये। पर एक व्यक्ति ने उनको समझाया कि “तुम जहाँ उतरे हो उसके सामने ही दयानन्द ब्रह्मपुरी है। वहाँ शाम को चार बजे सभा होगी और महारानी पधारेंगी। वे बड़ी गुण-गाहक हैं। उसी स्थान पर तुम उनसे भेंट करना।”
शिवभट्ट और विष्णु भट्ट को कुछ आशा हुई और वे सभा में गये। कार्यक्रम शुरू हुआ। कितने ही पंडितों ने गुजराती भाषा में आशीर्वाद की कवितायें पढ़ी। ये दोनों सभा में दूर खड़े खड़े देख रहे थे। आगे स्थान प्राप्त करने में भी आजकल मेल-मुलाहिजा और परिचय की आवश्यकता है, जिसका इन भट्टजी के पास अभाव था। दोनों महारानी की तरफ एक टका लगाये देख रहे थे। महारानी जी बहुत चतुर, आस्तिक और चारों तरफ निगाह रखने वाली थी। जब उनकी दृष्टि इन दोनों पंडितों पर पड़ी तो वे उसी जगह से हाथ उठाकर आशीर्वाद देने लगे। यह देखकर महारानी ने उनको आगे बुला लिया। उन्होंने मेज के पास खड़े होकर तीन-तीन श्लोक पढ़कर आशीर्वाद दिया। उनका तीव्र स्वर, शुद्ध उच्चारण, अलंकारिक भाषा और संस्कृत (देवा-वाणी) की वाक्यावली सुनकर सभा मुग्ध हो गई। दोनों अनजान भट्ट जी ही थे। इससे महारानी बहुत प्रसन्न हुई और बड़ी खुशी के साथ उन्होंने उन दोनों से दूसरे दिन प्रातःकाल अपने बँगले पर आने को कहा और उनको कोई न रोके इसलिये पास भी दे दिया।
विष्णुभट्ट और शिवभट्ट को ऐसा जान पड़ा कि मानों उनकी दृढ़ भावना फलीभूत हो गई। पर फिर भी उनके सामने गुजराती भाषा न समझ सकने की कठिनाई बनी ही रही। इस समस्या को हल करने के लिए सोच विचारकर एक युक्ति निकाली और मराठी तथा गुजराती दोनों भाषा जानने वाले एक व्यक्ति को ढूँढ़ निकाला। उसको साथ लेकर वे ठीक समय पर महारानी के बँगले पर पहुँचे और पास को देखकर नौकर ने उनको मुलाकात के कमरे में पहुँचा दिया। अब महारानी गुजराती भाषा में जो पूछती थीं उसे वह साथी भट्टी जी को मराठी में अनुवाद करके समझा देता था और जो कुछ उत्तर भट्ट जी मराठी भाषा में देते थे उसे गुजराती में महारानी को सुना देता था। इस प्रकार उनमें परस्पर धर्मशास्त्र, मन्त्र विद्या, यज्ञ-विज्ञान के सम्बन्ध में बहुत सी बातें हुई।
सौराष्ट्र में दूसरे, तीसरे वर्ष अकाल पड़ता ही रहता है। मेघराज गुस्सा होकर पानी बरसाना बन्द कर देते हैं। इस वर्ष भी भाद्रपद का महीना बीतने को आया पर वर्षा का एक छींटा भी नहीं गिरा था। इससे जनता बड़ी व्याकुल हो रही थी। भट्टजी ने मन्त्र शक्ति की अपूर्व महिमा की बात कही थी। उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा था कि असम्भव कार्य भी मन्त्र द्वारा सम्भव हो सकता है। इसलिए महारानी ने कहा कि “अगर बात है। इसमें सफलता होने से आपका सम्मान बढ़ेगा और पर्याप्त दक्षिणा भी मिल सकेगी।”
भट्टजी ने कहा- “देवता कैसे प्रसन्न होंगे?” यज्ञ आरम्भ होने के दसवें दिन बरसात होनी ही चाहिये। हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने जन्म-जन्म तक तपश्चर्या की थी और देवताओं को प्रसन्न किया था, क्या वे सब मन्त्र निरर्थक ही हैं? क्या वे गपोड़े हैं? नहीं, वे सत्य हैं, और पूर्ण करेंगे और हमारे वैदिक मंत्रों का यश बढ़ेगा।”
वरुण-यज्ञ का आरम्भ
तुरन्त राज कर्मचारियों को आज्ञा दे दी गई। शहर के दक्षिण तरफ जहाँ रंगमती और नागमती नदी का संगम है और जहाँ नाग नाथ महादेव का अति प्राचीन मन्दिर है, वह एकान्त स्थान यज्ञ के लिये पसन्द किया गया मन्दिर के चौक में मंडप बनाया गया, बिजली की बत्तियाँ लगा दी गई। भट्टजी अपने हाथ से भोजन बनाकर एक समय खाते थे। उनके लिये वहाँ की धर्मशाला में तीन कोठरियाँ दे दी गई। सब तरह की आवश्यक सामग्री की व्यवस्था करने के लिये एक राज्य कर्मचारी नियुक्त कर दिया गया। दरवाजे पर और आसपास देखभाल रखने के लिये सिपाहियों का पहरा लगा दिया गया। राज पुरोहित को आदेश दिया गया कि वे नौ योग्य पंडित यज्ञ में आहुतियाँ देने के लिये भेज दें। गणेश, इन्द्र आदि सब देवताओं की यथा स्थान प्रतिष्ठा की गई। वरुण के रूप में शृंगी ऋषि की भव्य मूर्ति भट्ट जी ने स्वयं अपने हाथ से बनाई। आश्विन शुक्ल प्रतिपदा के दिन शुभ मुहूर्त में वरुण यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ हुआ।
अनुष्ठान करने वाले ब्राह्मणों से भट्ट जी ने कहा- “बन्धुओं, हम लोगों के द्विजत्व की प्रतिष्ठा भंग न हो जाय इसका ध्यान रखना आपका काम है। नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करके श्रद्धापूर्वक मन्त्रपाठ करते रहना। दुनिया को बता देना कि वेदवाणी कलियुग में भी जागृत है। तुम जरा भी हिम्मत न हारना, यही हमारी विनय है।”
प्रातःकाल पाँच बजे घण्टा बजते ही सब उठकर शौच, कुल्ला, दातुन आदि से निवृत्त होकर अपनी नियत जगह पर बैठकर संध्यावन्दन करते। फिर चाय, काफी या दूध आदि पीकर ठीक आठ बजे अनुष्ठान शुरू कर देते। दोपहर के बारह बजे केला, पेड़ा, बरफी, फलाहरी पूरी, रबड़ी आलू का शाक आदि का फलाहार करके दो घण्टा विश्राम करते। पर उनको अहाते के बाहर जाने की आज्ञा न थी। ढाई का घण्टा बजते ही फिर मन्त्रोच्चारण आरम्भ हो जाता था जो सात बजे पूरा होता था। फिर संध्या वन्दन करके साढ़े सात बजे निराँजन आरती की जाती थी। इसके पश्चात् खा पीकर सब सो जाते थे।
यद्यपि यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों के लिए सब प्रकार की सुविधायें थी और वे बढ़िया पौष्टिक भोजन करते थे। इसके विपरीत भट्ट जी रात को एक बार भात उबाल कर खाते थे और दोपहर को फलाहार भी नाममात्र को लेते थे, तो भी संकीर्ण मनोवृत्ति के कारण वे भट्टजी से ईर्ष्या करने लगे और चाहने लगे कि कार्य खण्डित होकर इनकी बदनामी हो जाय। उनमें दो-तीन नवयुवक ब्राह्मण आधी रात के समय चोरी से घर चले जाते थे और सुबह चार बजे वापस आ जाते थे।
अनुष्ठान के तीन दिन बीत गये, पर आकाश में किसी तरह का अन्तर न जान पड़ा। दोनों भट्टजी के मन में दुःख हुआ। चौथा दिन- पाँचवाँ दिन इसी तरह तीव्र धूप और गर्मी पड़ते बीत गया। जैसे-जैसे दिन बीतते जाते थे इन दोनों की बड़ी चिन्ता होती जाती थी। आठवें दिन भी जब कोई परिवर्तन न जान पड़ा तो वे अत्यन्त व्याकुल हो गये और उनका खाना और सोना बन्द हो गया। अन्तिम दिन भी जब कुछ न हुआ तो वे रात के बारह बजे मण्डप में गये और अपने इष्टदेव की मूर्ति के सम्मुख अश्रुपात करते हुए विह्वल वाणी से स्तुति करने लगे-
“ॐ तत्वा यामि ब्रह्मणा बन्दमान स्तदाशास्ते यजमानो हविर्भिः। अहेऽभानो वरुणेह बोध्यरु शंस मान आयुः प्रमोषी।”
अर्थात्- “यजमान हविर्भाग देकर यजुर्वेद के मतानुसार इस वेद स्तुति से, मैं आपसे याचना करता हूँ, आप विशाल स्तुति के योग्य हो। ऐसे हे वरुण देव! क्रोध रहित होकर तुम इस यज्ञ में हमारी इच्छाओं को पूर्ण करने का ध्यान रखकर हमको दीर्घायुष्य बनाओ।”
पूर्णाहुति का दिन आ गया। बरसात का कोई भी चिह्न दिखलाई नहीं पड़ता था। दोपहर हो गया। दोनों भट्टजी ढीले हो गये। संध्या के 5 बजे पूर्णाहुति का नारियल महारानी के हाथ से यज्ञ-कुण्ड में होम किये जाने को था। धार्मिक जनता की अपार भीड़ उसे देखने को इकट्ठी हो गई थी। स्वयं जाम साहब अनेक प्रतिष्ठित अधिकारियों और नागरिकों के साथ सामने बैठे थे। महारानी यज्ञकुण्ड के सामने आकर बैठ गई। दोनों भट्ट जी ने अग्नि नारायण का मन्त्र सूक्त आरम्भ किया। यज्ञ-मण्डप पर बैठे लोगों में तरह-तरह की भली-बुरी शंकाएं उत्पन्न हो रही थीं। उपवास से कृश शरीर पर मन्त्रोच्चारण से मस्तक में तेज चमकता हुआ- ऐसे दोनों भट्टजी वास्तविक ऋत्विज् जान पड़ते थे। बाकी ब्राह्मण तो मोटे-ताजे और कई मोटी तोंद निकले हुए भी थे, पर सबका ब्रह्मतेज फीका पड़ा हुआ था। आकाश साफ था, बादलों का कोई चिन्ह न था। खूब धूप पड़ रही थी। महारानी के हाथ में नारियल दिया गया। अग्नि ज्वाला प्रज्ज्वलित हो रही थी। भट्टजी और ब्राह्मणों ने उच्च स्वर से स्वाहा’ का उच्चारण किया महारानी ने नारियल अग्नि में डाल दिया। उसके डालते ही आकाश में भी एक जोर का धड़ाका हुआ और बादल, बिजली होकर थोड़ी ही देर में जोर से वर्षा होने लगी। पाँच दिन तक अच्छी वर्षा होने से अकाल की क्रूर छाया दूर हो गई।
भगवान ने भट्टजी को यश दिया और मन्त्र-शक्ति की विजय दिखलायी। शिव भट्ट और विष्णु भट्ट को महामहोपाध्याय हाथी भाई शास्त्री के हाथ से महाराज और महारानी ने उत्तम वस्त्रालंकार और अच्छी दक्षिणा दी। भट्टजी ने दक्षिणा में से एक चौथाई वहाँ की राजकीय संस्कृत पाठशाला को तथा चौथाई ‘आनन्द बाबा अनाथालय’ को दे दिया। अन्त में उन्होंने यह भी कहा कि “हवन करने वाले ब्राह्मणों में से कई ब्रह्मचर्य व्रत का पालन नहीं करते थे, इसी से मेघराज ने इतनी देर की और परीक्षा ली। क्योंकि ब्रह्मचर्य कर्मकाण्ड-यज्ञ विज्ञान का मूल आधार है।” इस घटना से उस प्रदेश में यज्ञ की प्रतिष्ठा चारों ओर फैल गई।