भारतीय संस्कृति का आधार- आत्म-संयम

July 1958

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(डॉ. रामचरण महेन्द्र)

भारतीय संस्कृति के अनुसार व्यक्ति का दृष्टिकोण ऊँचा रहना चाहिए। हमारे यहाँ अन्तरात्मा को प्रधानता दी गई है। हिन्दू तत्वदर्शियों ने संसार की व्यवहार वस्तुओं और व्यक्तिगत जीवन यापन के ढंग और मूलभूत सिद्धान्तों में पारमार्थिक दृष्टिकोण से विचार किया है। क्षुद्र साँसारिक सुखोपभोग से ऊँचा उठकर, वासनाजन्य इन्द्रिय सम्बन्धी साधारण सुखों से ऊपर उठ आत्म-भाव विकसित कर परमार्थिक रूप से जीवन-यापन को प्रधानता दी गई है। नैतिकता की रक्षा को दृष्टि में रखकर हमारे यहाँ मान्यताएं निर्धारित की गई हैं।

भारतीय ऋषियों ने खोज की थी कि मनुष्य की चिरन्तन अभिलाषा, सुख-शाँति की उपलब्धि इस बाह्य संसार या प्रकृति की भौतिक सामग्री से वासना या इन्द्रियों के विषयों को तृप्त करने से नहीं हो सकती। पार्थिव संसार हमारी तृष्णाओं को बढ़ाने वाला है। एक के बाद एक नई-नई साँसारिक वस्तुओं की इच्छाएं निरन्तर उत्पन्न होती रहती हैं। एक वासना पूरी नहीं हो पाती कि नई वासना उत्पन्न हो जाती है। मनुष्य अपार धन संग्रह करता है, अनियन्त्रित काम-क्रीड़ा में सुख ढूँढ़ता है, लूट-खसोट और स्वार्थ-साधन से दूसरों को ठगता है। धोखा-धड़ी, छल-प्रपंच, नाना प्रकार के षड़यन्त्र करता है, विलासिता, नशेबाजी, ईर्ष्या-द्वेष में प्रवृत्त होता है, पर स्थायी सुख और आनन्द नहीं पाता। एक प्रकार की मृगतृष्णा मात्र में अपना जीवन नष्ट कर देता है। उलटे उसकी दुष्ट वृत्तियाँ और भी उत्तेजित हो उठती हैं। जितना-जितना मनुष्य सुख को संसार की बाहरी वस्तुओं में मानता है, उतना ही व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन अतृप्त, कण्टकाकीर्ण, दुखी, असन्तुष्ट और उलझन भरा होता है। हिन्दू तत्ववेत्ताओं ने इस त्रुटि को देखकर ही यह निष्कर्ष निकाला था कि स्वार्थपरता और साँसारिक भोग कदापि स्थायी आनन्द नहीं दे सकता। हमारे स्थायी सुखों का केन्द्र भौतिक सुख-सामग्री न होकर आन्तरिक श्रेष्ठता है। आन्तरिक शुद्धि के लिए हमारे यहाँ नाना विधानों का क्रम रखा गया है। त्याग, बलिदान, संयम वे उपाय हैं, जिनमें आन्तरिक शुद्धि में प्रचुर सहायता मिलती है।

भारतीय संस्कृति में अपनी इन्द्रियों के ऊपर कठोर नियन्त्रण का विधान है। जो व्यक्ति अपनी वासनाओं और इन्द्रियों के ऊपर नियन्त्रण कर सकेगा, वही वास्तव में दूसरों के सेवा-कार्य में हाथ बंटा सकता है। जिससे स्वयं अपना शरीर, इच्छाएं, वासनाएं, आदतें ही नहीं सँभलती, वह क्या तो अपना हित और क्या लोकहित करेगा।

“हरन्ति दोषजानानि नरमिन्द्रियकिंकरम्।

(महाभारत अनु. प. 51, 16)

“जो मनुष्य इन्द्रियों (और अपने मनोविकारों) का दास है, उसे दोष अपनी ओर खींच लेते हैं।”

“बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वन्समपि कर्षति।”

(मनु. 2-15)

“इन्द्रियाँ बहुत बलवान हैं। ये विद्वान को भी अपनी ओर बलात् खींच लेती हैं।”

अतः भारतीय संस्कृति ने सदा आने साथ कड़ाई से व्यवहार की स्थापना की है। यदि हम अपनी कुप्रवृत्तियों को नियन्त्रित न करेंगे, तो हमारी समस्त शक्तियों का अपव्यय हो जायेगा। आदर्श भारतीय वह है जो दम, दान एवं यम- इन तीनों का पालन करता है। इन तीनों में भी विशेषतः दम (अर्थात् इन्द्रिय दमन) भारतीय तत्वदर्शी पुरुषों का सनातन धर्म है। इन्द्रिय-दमन, आत्मतेज और पुरुषार्थ को बढ़ाने वाला है। दम तेज को बढ़ाता है। दम परम पवित्र और उत्तम है। अपनी शक्तियाँ बढ़ाकर दम से पुरुष पाप रहित एवं तेजस्वी होता है। संसार में जो कुछ नियम, धर्म, शुभ कार्य अथवा सम्पूर्ण यज्ञों के फल हैं, उनकी अपेक्षा दम का महत्व अधिक है। दम के बिना दान रूपी क्रिया की यथावत् शुद्धि नहीं हो सकती। अतः दम से ही यज्ञ और दम से ही दान की प्रवृत्ति होती है।

जिस व्यक्ति ने इन्द्रिय-दमन और मनोनिग्रह द्वारा अपने को वश में नहीं किया है, उसके वैराग्य धारण कर वन में रहने से क्या लाभ? तथा जिसने मन और इन्द्रियों का भली भाँति दमन किया है, उसको घर छोड़कर किसी जंगल या आश्रम में रहने की क्या जरूरत?

जितेन्द्रिय पुरुष जहाँ निवास करता है, उसके लिए वही स्थान वन एवं महान आश्रम है। जो उत्तमशील और आचरण में रत है, जिसने अपनी इन्द्रियों को काबू में कर दिया है तथा जो सरल भाव से रहता है, उसको आश्रमों से क्या प्रयोजन। विषयासक्त मनुष्यों में वन में भी दोष बन जाते हैं तथा घर में रहकर भी पाँचों इन्द्रियों पर नियन्त्रण प्राप्त कर लिया जाय, तो वही तपस्या है।

जो सदा शुभ कर्म में प्रवृत्त होता है, उस वीतराग पुरुष के लिए घर ही तपोवन है। जो एकान्त में रहकर दृढ़तापूर्वक नियमों का पालन करना है, इन्द्रियों की आसक्ति से दूर हटता है अध्यात्म तत्व के चिंतन में लगता है, वही भारतीय संस्कृति का फूल है।

एक ओर जहाँ भारतीय संस्कृति इन्द्रिय संयम का उपदेश देती है, वह दूसरी ओर वह दूसरों के प्रति अधिक से अधिक उदार होने का आग्रह करती है। सच्चे भारतीय की सेवा, सहयोग और सहायता के लिए प्रस्तुत रहना चाहिए।

“सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यज्ञानं तु दुष्करम। यद्भूतहितमत्यन्तम् एतत सत्यं ब्रधीम्यहम्॥”

(म. भा. छाँ 293.19)

“अर्थात् सबसे बढ़कर कल्याण करने वाला सत्य का कथन है, परन्तु सत्य का ज्ञान तो बहुत ही कठिन है। इसलिए सुगम रूप में उसी को मैं सत्य कहता हूँ जो प्राणियों के लिए अधिकतया हितकर हो।”

आत्मोकर्ष न मार्गेत परेषाँ परिनिन्दया। स्वगुणैरेव मार्गेत विप्रकर्स पृथक् जनात्॥

“दूसरों की निन्दा से अपनी उन्नति को कभी न देखे। अपने सद्गुणों से ही दूसरे मनुष्यों की जो उन्नति चाहे वही सच्चा भारतीय है। भारतीय संस्कृति के उपासक सदा निर्बलों, अपनी शरण में आये हुओं, अतिथियों के सहायक होते हैं।”

भारत में सदा दूसरों के साथ उदारता का व्यवहार रहा है। जो लोग बाहर से मारने के लिए आये, जिन्होंने विष दिया, जिन्होंने आग में जलाया, जिन्होंने हाथियों से रौंदवाया और जिन्होंने साँपों से डसवाया, उन सबके प्रति भी भारतीय संस्कृति उदार रही है। हमने सबमें भगवान को देखा है। हाथी में विष्णु, सर्प में विष्णु, जल में विष्णु और अग्नि में भी भगवान् विष्णु को देखा है तो फिर पशुओं और मनुष्यों की बहुत ही ऊँची बात है। हम मनुष्य मात्र को प्यार करने वाले उदार जाति के रहे हैं।


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