प्राणिमात्र से प्रेम करना ही वास्तविक भक्ति है।

July 1958

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(श्री अशर्फीलालजी, बिजनौर)

भक्ति की महिमा सभी ने स्वीकार की है। मुक्ति की प्राप्ति में भक्ति भी उसी प्रकार उपयोगी है जैसे कि ज्ञान। बल्कि भक्ति में यह विशेषता है कि यह ज्ञान से सुलभ है। भक्ति दुःखों का सर्वनाश करने वाली और अक्षय सुखों की देने वाली है, इसमें दो राय नहीं हैं। परन्तु जिस भक्ति में ऐसे गुण हैं वह भक्ति भक्ति क्या है, उसका वास्तविक स्वरूप क्या है इस पर विचार करना चाहिए। एक बार सत्संग में एक महात्मा ने कृपा करके भक्ति का स्वरूप बतलाया था, उसमें से जो भूल-चूक के बाद याद रह गया है वह औरों की जानकारी के लिए नीचे लिखा जाता है।

उन महात्मा ने कहा कि जिन भगवान की हम भक्ति करना चाहते हैं पहले उन्हें समझ लेवें तभी भक्ति होनी सम्भव है। जब तक हम भगवान को न जानें तब तक किसकी और किस प्रकार करेंगे। इसलिए उन्होंने कहा कि हम तुम्हें पहले उस भगवान का पता बताते हैं जिसको भक्ति से तुम्हें प्रसन्न करना है। वास्तविक बात यह है कि ईश्वर और जीव में कुल और जुज (सम्पूर्ण और अंश का सम्बन्ध है और अन्तर कुछ नहीं है। हाथ, पैर, सर, मुँह, कान आदि सभी अंगों के समूह का नाम शरीर है और शरीर कुछ भी नहीं है, वैसे ही समस्त जीवों के समूह का नाम ही भगवान है। जैसे जीव के स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर हैं, जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था हैं और विश्व, तेजस, आज्ञ उनके अहंभाव की संज्ञा हैं वैसे ही भगवान के भी तीन शरीर, तीन अवस्था और तीन अहंभावों की संज्ञा हैं। प्राणीमात्र के स्थूल शरीरों का समूह भगवान का स्थूल शरीर है जिसके अहंभाव की संज्ञा विराट है। समस्त प्राणियों के सूक्ष्म शरीरों का समूह भगवान का सूक्ष्म शरीर है जिसके अहंभाव की संज्ञा हिरण्यगर्भ है और समस्त जीवों के कारण शरीरों का समूह भगवान का कारण शरीर है जिसके अहंभाव की संज्ञा ईश्वर है। इस प्रकार विराट, हिरण्यगर्भ और ईश्वर, भगवान की क्रमशः जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाएं हैं। अर्थात् संसार में जो भी दिखाई देता है वही भगवान का विराट रूप है और जागृत अवस्था है। जैसे माता, पिता और गुरु आदि की भक्ति करने वाले को मातृ भक्त, पितृ भक्त और गुरु भक्त कहते हैं वैसे ही भगवान की भक्ति करने वाले को भगवद्भक्त कहते हैं। जैसे पीछे कोई व्यक्ति जागृत में तो माता, पिता और गुरु की कोई सेवा न करे बल्कि उनकी ओर से उपेक्षा रखे, राग, द्वेष बरते और स्वप्न में तथा सुषुप्ति में उनकी आरती उतारे, रो-रोकर प्रार्थना करे तो उसको कोई भी माता, पिता और गुरु का भक्त नहीं कहेगा, न उसकी ऐसी प्रार्थना आदि से माता-पिता या गुरु प्रसन्न ही हो सकते हैं। वैसे ही जो विराट रूप में भगवान की सेवा, प्रेम और भक्ति नहीं करता अर्थात् प्राणीमात्र से प्रेम नहीं करता वह कदापि भगवान को प्रसन्न नहीं कर सकता। जैसे किसी के शरीर के एक अंग से भी द्वेष रखने वाला उस अंग वाले व्यक्ति को प्रसन्न नहीं कर सकता उसी प्रकार किसी प्राणी से भी द्वेष करने वाला समस्त प्राणियों के समूह रूप भगवान को प्रसन्न नहीं कर सकता। जब प्राणी और भगवान में अंश और अंशी का (जुज और कुल का) व्यष्टि और समष्टि का ही सम्बन्ध है तो भगवान की भक्ति के लिए भगवान को प्रसन्न करने के लिए प्राणीमात्र की सेवा करना अनिवार्य हो जाता है। जो प्राणीमात्र का भक्त नहीं वह ईश्वर भक्त नहीं कहा जा सकता। पूर्ण ईश्वर भक्त बनने के लिए यह आवश्यक है कि तीनों अवस्थाओं में (विराट, हिरण्यगर्भ, ईश्वर) भगवान की भक्ति की जावे। इसके विराट रूप में, प्राणीमात्र की सेवा सबसे पहली और स्थूल भक्ति है। जो ऐसा नहीं करता वह शेष दोनों रूपों में भी भगवान की भक्ति नहीं कर सकता। केवल ढोलक, मंजीरे बजा-बजाकर भगवान नाम की ध्वनि करते-करते बेहोश हो जाने या जबान से राम-राम रटने, माला के दाने घुमाते रहने आदि का नाम भक्ति नहीं है। जो प्राणीमात्र को भगवान का रूप जानकर उनसे प्रेम नहीं करता वह ढोंगी है और उसने भक्ति के असली रूप को नहीं जाना है। जिस भक्ति की इतनी प्रशंसा महापुरुषों ने गाई है वह यही भक्ति है जिसका असली रूप ऊपर बतलाया गया है। प्राणी की सेवा, प्रेम, विराट रूप में भगवान की भक्ति है और प्राकृतिक नियमों का पालन करना अपने अन्दर दैवी गुणों को लाना, हृदय को भगवान का निवास-स्थान बनाने के लिए शास्त्रों में वर्णित गुणों को अपने में लाना, ध्यान लगाना, कीर्तन आदि करना भगवान की हिरण्यगर्भ और ईश्वर रूप की भक्ति है। एकाँगी भक्ति से पूर्ण फल कदापि नहीं मिल सकता। इस प्रकार भक्ति के असली रूप को जानकर भक्ति करनी चाहिए। ऐसी भक्ति की प्रशंसा कौन न करेगा और कौन ऐसी भक्ति का उपहास करने का साहस करेगा।


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