हमारे युवकों को कैसी शिक्षा दी जाय?

July 1958

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(लाला हरदयालजी)

हमारे देश में कुछ समय से ‘धार्मिक शिक्षा’ की चर्चा विशेष रूप से होने लगी है। अनेक लोगों का ख्याल है कि देश के शिक्षित युवक और युवतियों में नैतिकता और नियन्त्रण का अभाव दिखलाई पड़ रहा है उसका कारण शिक्षा में ‘धर्म’ का समावेश न होना ही है। इस गूढ़ समस्या पर सुप्रसिद्ध विद्वान लाला हरदयाजी ने कुछ स्पष्ट विचार प्रकट किये थे, जो यद्यपि अब काफी पुराने हो गये हैं तो भी शिक्षा प्रेमियों के लिए उपयोगी सिद्ध होंगे।

सबसे पहला प्रश्न यही है कि ‘धार्मिक शिक्षा’ है क्या? मुझे आज तक मालूम न हो सका कि ‘हिंदुत्व’ किसे कहते हैं? जिस प्रकार ईश्वरवादी लोग मानते हैं कि ईश्वर है लेकिन हम यह न जान सके कि वह कैसा है? ‘हिंदुत्व’ के विषय में भी बहुत से आदमी ऐसा ही मत रखते हैं। यदि हिन्दू धर्म शास्त्रों के समुद्र को मथा जाय तो उसमें ऐसी बहुत थोड़ी मामूली-सी बातें निकल सकती हैं, जिन्हें सब हिन्दू मान सकते हैं। पर मेरी सम्मति में तो 30 करोड़ हिंदुओं को, जिनमें बहुदेववादी, अद्वैतवादी, आस्तिक, नास्तिक सभी शामिल हैं, बजाय ऐसी कुछ मामूली बातों के, हमें सत्य के सर्वमान्य सिद्धान्तों की शिक्षा देनी चाहिए! इस बात की क्या आवश्यकता है कि भारत के भावी नेता केवल पुराने विचारों के ही गीत गाथा करें और स्वयं कुछ सोचने विचारने का साहस न करें। क्या सारी धार्मिक सच्चाइयां और आदर्श प्राचीन ग्रन्थों में ही बन्द हैं? कुछ लोगों का कहना है कि ‘धर्म’ ही एक ऐसी चीज है जिसके द्वारा एक निर्बल जाति में जातीय-एकता उत्पन्न की जा सकती है और साम्प्रदायिक झगड़ों को मिटाया जा सकता है। पर विचार करके देखा जाय तो यह धर्म की बहुत संकुचित व्याख्या और घटिया दर्जे का उपयोग है। यह आश्चर्य की बात है कि भारत का हर एक हितेच्छु इसके बजाय कि वह सारे संसार की एकत्रित सम्पत्ति में हाथ डाले, प्राचीनता के रिक्त-भण्डार के भरोसे ही बैठा रहना चाहता है। वैदिक सूत्रों पर लड़-झगड़कर और दिन में एक दो बार बिना समझे-बुझे कुछ मन्त्रों का उच्चारण करके भारत का उद्धार कर लेना लोगों ने बड़ा ही सहज समझ रखा है। लेकिन वास्तव में सामाजिक समता, आत्म-गौरव, वैज्ञानिक खोज, तर्क सिद्ध मत, परिमित व्यापी स्वाधीनता, सार्वजनिक भाव और सामाजिक उन्नति के भावों का पैदा करना बड़ा कठिन काम है। ‘धार्मिक शिक्षा’ के नाम पर हम अपने युवकों को क्या सिखा जाना चाहते हैं? मैं समझता हूँ कि उन्हें वेदों का सम्मान करना सिखलाया जायगा, जिन्हें वे चाहे पढ़ भी न सकें। उन्हें यह सनातन अन्तर याद कराया जायगा कि श्रुति दैवी हैं और स्मृति मनुष्यकृत, उन्हें चार वर्ण समाज के चार खम्भे बताये जायेंगे और देवताओं व देवियों की उपासना बताई जायगी। मैं उन्नतिशील भारत से सचाई के साथ पूछता हूँ कि क्या यह धार्मिक शिक्षा का, हजारों वर्ष पहले जमाने का ‘शिक्षा-क्रम’ जीर्ण-शीर्ण नहीं हो गया है? हम चाहते हैं कि भारत के भावी निर्माता आधुनिक आचार्यों के ग्रन्थों का अध्ययन करें, वे संसार भर के परम बुद्धिमान लोगों से ज्ञान सीखें, वे धर्म की ओर तर्क सिद्ध मत और व्यक्तित्व के आधुनिक ढंग से बढ़ें और इस तरह अपने लिए दृढ़ तथा मौलिक आधार स्थिर करें। उनके भीतर अवैज्ञानिक विचारों के ठूँसने से फायदा ही क्या? सत्य के स्थान पर उन्हें झूठ और सच की खिचड़ी बेतुकी और परस्पर विरोधी बातें बतलाने में भलाई ही क्या? क्या ऐसे अधकचरे मल्लाह कभी अपनी नाव को पार लगा सकेंगे?

फिर इनके समाज के विषय में क्या विचार होंगे? क्या वे मनु की स्मृति को सब कुछ समझ बैठेंगे और वर्तमान युग में उसी के आधार पर हिंदुत्व की रक्षा करेंगे? जब सारा संसार आधुनिक बुद्धिबल से उत्पन्न पोषक भोजन को पा रहा है, उसी समय हमारे युवक अपने नेताओं के कारण ब्राह्मण, गृह-सूत्र, मनुस्मृति याज्ञवलक्य स्मृति आदि ग्रन्थों में अच्छे पोषक पदार्थ ढूँढ़ते नजर आवें, यह क्या हितकर माना जा सकता है। वे लोग विक्रम की इस बीसवीं शताब्दी में, विक्रम से दस शताब्दी पहले के बचे-खुचे माल पर जीवन निर्वाह करना चाहते हैं। इन प्राचीन ग्रन्थों में से कोई भी हमारे युवकों को यह नहीं बतला सकता कि आज समाज का संगठन किस तरह होना चाहिए? यदि आजकल के उपयोगी, सच्चे, सामाजिक सिद्धान्त प्राचीन ग्रन्थों से सीखे जा सकते हैं, तो फिर काशी के पण्डितों को ही सब से बुद्धिमान समझो और फिर वे ही नवीन भारत के नेता हो सकते हैं। लेकिन कौन ऐसा मूर्ख होगा जो भारत के भविष्य को काशी और नदिया के पण्डितों के हाथ सौंप देगा। हमें पीछे देखने के बजाय आगे देखना चाहिए। नए अवसर, नए कर्तव्यों की शिक्षा देते हैं। समय के परिवर्तन से अनेक प्राचीन बातें अनुपयोगी हो जाती हैं। जो सत्य के साथ सदा रहना चाहते हैं उन्हें सदा आगे बढ़ते रहना चाहिए। फिर केवल धर्म-शिक्षा से ही सब काम नहीं चल सकता। सामाजिक आदर्श भी होना चाहिए। एक आदमी ब्रह्म और पुनर्जन्म पर विश्वास करले, पर उसे राष्ट्रीय प्रश्नों, आर्थिक-व्यवस्था, विवाह, स्त्रियों का पद, जातीयता, समाज के मुकाबले में व्यक्ति के अधिकार आदि बातों के विषय में भी ज्ञान होना जरूरी है। आज एक आदमी के लिए केवल आस्तिक या अद्वैतवादी, वेदान्ती या साँख्य शास्त्र का मानने वाला होना ही काफी नहीं है। उसे राष्ट्र के विषय में भी कुछ मत स्थिर करना होगा कि वह परिमिति राजसत्ता चाहता है या स्वेच्छाचारी राजसत्ता उसे प्रजा सत्तात्मक राज्य पसन्द है या धार्मिक लोगों द्वारा संचालित राष्ट्र इत्यादि। उसे स्त्री तथा उसके सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और पारम्परिक स्वत्वों और कर्त्तव्यों और साथ ही संसार की आर्थिक व्यवस्था पर अपना मत स्थिर करना होगा। आधुनिक सभ्यता में बड़ी गुत्थियाँ हैं। आज बहुत से प्रश्न ऐसे उपस्थित हैं जिनका भूतकाल के हिन्दू शास्त्रकारों ने स्वप्न में भी ख्याल नहीं किया था। अब प्रश्न होता है कि इन समस्याओं पर धार्मिक शिक्षा के प्रचारक क्या शिक्षा देंगे? क्या हिन्दू शास्त्रों के अनुसार मनु की बताई हुई एक सर्वशक्तिशाली राजा और उसके आठ मन्त्रियों की राज्य-सभा का शासन अब भी चल सकता है? क्या हमारे युवक यह सीखेंगे कि स्त्री को कभी स्वतन्त्रता न मिले? (न भजेत स्त्री स्वतन्त्रता-मनु।) क्या वे आधुनिक प्रतिनिधि सत्तात्मक शासन-प्रथा से इसलिए आँखें फेर लेंगे कि हिन्दू काल में तो वह था ही नहीं? शिक्षा से मनुष्य अपने जीवन के कर्तव्यों के पालन करने में समर्थ होता है। वह युवक किस काम का, जिसने अपने धार्मिक और राजनीतिक मत स्थिर नहीं किये। शिक्षा ही उसे संसार के बड़े-बड़े प्रश्नों पर दृढ़ मत स्थिर करने के योग्य बना सकती है। क्या केवल ‘धार्मिक शिक्षा’ पर जोर देने से यह उद्देश्य पूरा हो सकता है।


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