धार्मिक क्षेत्र में धूर्तता और ठगी की करतूतें

July 1958

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(श्री चन्द्रशेखर शास्त्री)

धर्म की उपयोगिता मानी हुई है। लोक और परलोक हित उससे होता है। उसकी उपयोगिता सभी स्वीकार करते हैं। कोई उसके बल लौकिक स्वार्थ साधन करते हैं और कोई पारलौकिक कल्याण के लिए उसका अनुष्ठान करते हैं। कहा जाता है कि भारत धार्मिक देश है। “कहा जाता है” इसका प्रयोग में इसलिए करता हूँ कि मेरा मन इस बात पर विश्वास नहीं करता, क्योंकि इस अध्याय में जिन बातों का मैं वर्णन करूंगा उनके अनुष्ठाता तो भारतवासी ही हैं और प्रसिद्ध तथा श्रेष्ठ भारतवासी। पर वैसे आचरण वालों को कोई धर्मात्मा नहीं कह सकता। कम से कम मेरा तो ऐसा ही विश्वास है। अच्छा तो भारत धार्मिक देश है, यहाँ के निवासी धर्मात्मा हैं, धर्म के प्रेमी हैं। धर्म के लिए त्याग भी करते हैं। भारतीय धर्म-पुस्तकों का उपदेश है कि यदि तुम धर्म की रक्षा करोगे तो धर्म भी तुम्हारी रक्षा करेगा। अर्थात् धर्म पर चलने से तुम बलवान बनोगे और तुम्हारी रक्षा होगी। ऐसे विश्वास से लाभ भी हो सकता है और हानि भी।

भारतीयों के धार्मिक विश्वास से धूर्तों ने लाभ उठाया और धार्मिक संस्थाओं को जनता की आँखों से गिराया। भारतवासी धर्म से प्रेम करते हैं। जो धर्माचरण करता है उसकी इज्जत करते हैं, उसको दान देना, उसकी सेवा, सुश्रूषा करना अपना कर्तव्य समझते है। यह देखकर कई धूर्तों ने इन्हें खूब ठगा। कोई संन्यासी बना, कोई बैरागी, कोई शैव बना, कोई वैष्णव। किसी ने राख पोती, किसी ने चन्दन, कोई आग के बीच में बैठा, कोई जल में खड़ा हुआ। यह इसलिए किया गया कि हम उसे धर्मात्मा समझें, महात्मा मानें। उन्हें अपने कल्याण की चिन्ता नहीं, धर्म या धार्मिक क्रियाओं पर उनका विश्वास नहीं उनका उद्देश्य होता है जनता में धर्मात्मा के नाम से प्रसिद्ध होना और उसके द्वारा अपना प्रभाव विस्तार करना। ऐसे धर्म के उपहास करने वाले को हम मतलबी और ठग कह सकते हैं।

इन धूर्तों ने हमारे धार्मिक विश्वास से अनुचित लाभ उठाया। खुद डूबे और हमें भी डुबाया। देश और विदेश के धूर्त हमारी धार्मिकता सुनकर दौड़ पड़े, हमें धर्म सिखाने लगे। कोई अवतार लेकर आया और कोई महायोगी बनकर। किसी ने आध्यात्मिक उन्नति का प्रलोभन ही दिखाया। किसी ने अपने को जीवन्मुक्त कहा। हमारी विश्वासी प्रकृति ने छानबीन नहीं की। हमने सभी चमकीली चीजों को सोना समझ लिया। इसका फल यह हुआ कि आज हम मूर्ख बन गये हैं। हमारा धर्म, हमारा वैज्ञानिक धर्म, हमारे लिए उपहास की सामग्री बन गया है। यह हमारी उन्नतियों का विरोध हो गया है। हमारे धर्म से लाभ उठाते हैं हमारी उन्नति के विरोधी।

साधारण मनुष्य शान−शौकत ज्यादा पसन्द करते हैं। अच्छा भोजन, गाड़ी, घोड़ा, मोटर, बँगले आदि को ये स्वर्ग-सुख समझते हैं। इस स्वर्ग-सुख को पाने के लिए उस प्रकृति के सज्जन उत्सुक रहते हैं। उनका प्रयत्न इसी के लिए होता है। इस उद्देश्य की हम निन्दा नहीं करते। ऐसा तो होना ही चाहिए। बहुत लोग ऐसा करते ही हैं और उनसे समाज को लाभ ही है। उनके कार्यों से समाज के सामने कोई आदर्श भी उत्पन्न नहीं होता। मेरा कहना केवल इतना ही है कि अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए ठगी नहीं करनी चाहिए, समाज को नष्ट करके ऐसा करना अपराध है।

दुःख है हमारे समाज में ऐसे अपराधियों की संख्या बढ़ रही है। बिना रुपये, पैसे के धन पैदा करने का नुस्खा मिल गया है। लोग समझते हैं कि बिना पैसे के काम चल गया, कैसी बुद्धिमानी की हमने! उनकी दृष्टि से ईमान का कुछ मूल्य नहीं होता। यदि वह होता, तो वे इस महंगे सौदे के फेर में न पड़ते। कुछ रुपयों के लिए; साधारण सुख के लिए ईमान बेचा जाय इसे तो साधारण समझ वाला महंगा ही समझेगा। धर्म, समाज और ईश्वर से डरने वाला ऐसे सौदे की बात ही नहीं करेगा। पर कुछ साहसी लोग ईमान बेच रहे हैं। पेट के लिए, पूरी मलाई के लिए, पलंग और गद्दी के लिए विश्वासी हृदयों के विश्वास के कोमल पौधे को जड़-मूल से उखाड़ फेंकते हैं। हाय दुर्भाग्य!

समाज तो रहेगा, उजड़ कर भी रहेगा और फिर इसके दिन भी पलटेंगे, आज नहीं, दस दिन के बाद। व्यक्ति बहुत दिनों तक भूल नहीं कर सकते। एक दिन परिस्थिति उनको मजबूर करेगी अपनी दशा सुधारने के लिए। वह दिन आज भी हो सकता है और दस दिन के बाद भी आ सकता है। अतएव विचार यह है कि उनकी क्या दशा होगी, जो इतना महंगा सौदा खरीदते हैं। दुनियावी चीजों के लिए स्वर्ग का ईमान लुटाते हैं। धर्म के बदले में धन लेते हैं।

आलसी, निकम्मे आदमियों की इन्द्रियाँ प्रबल होती हैं। उनकी लालसा इतनी बढ़ी होती है कि वे उसे रोक नहीं सकते। फिर वे करें तो क्या करें? पैसे आवें कहाँ से? नौकरी तो वैसे निकम्मों से होती नहीं और उन्हें नौकरी देता भी है कौन? व्यापार के लिए पैसे चाहिए। ये चीजें कहाँ मिलें? पैसे ही होते तो चिन्ता किस बात की थी? यदि व्यापार के लिए कुछ पैसे जुटाये भी जायं तो उसमें लाभ ही होगा इसका निश्चय भी नहीं है। ऐसी दशा में वैसी प्रकृति वालों के लिए दो ही उपाय रह जाते हैं, एक तो यह कि वे अपनी आदतें सुधारें, मेहनत-मजदूरी करके रूखा-सूखा जो कुछ मिले, उसी पर सन्तोष करें या दूसरा उपाय यह हो सकता है पैसे का प्रबन्ध करें। जिस तरह से हो, पैसे पैदा करें। ऐसे लोग पहले घर की चीजें बेचते हैं, जमीन, जायदाद, घर आदि बेचकर अपनी इच्छाएं पूर्ण करते हैं। फिर स्त्रियों के गहने बाजार में ले जाते हैं, अन्त में ईमान की बारी आती है।

कुछ ऐसे भी इस दल में देखे गये, जो ईमान ही से शुरू करते हैं। ये कुछ पढ़े-लिखे नहीं होते, धर्माधर्म का भी इन्हें ज्ञान बहुत ही थोड़ा, नाममात्र ही का होता है। पर होते हैं साहसी, दिल के पक्के, अतएव ईमान बेचकर, धर्म की दलाली कर तथा लोगों के साथ विश्वासघात करके पेट पालते हैं, दुनिया में चैन की बंशी बजाते हैं।


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