हमारे परिवारों में होने वाला शोषण

January 1953

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सास के बहू पर अत्याचार-

पारिवारिक शोषण का आरम्भ सास बहू की समस्याओं से होता है। इतनी शिक्षा एवं प्रगति हो जाने पर भी आज हमारे समाज में नव विवाहिता वधू का शोषण निरन्तर चल रहा है। विवाह होने के कुछ दिन पश्चात् प्रायः यह शोषण प्रारम्भ हो जाता है। बहू को धीरे धीरे परिवार का सब कार्य दिया जाता है। वह बेचारी स्वयं ही परिवार में नई होती है और लज्जा के कारण किसी प्रकार की आपत्ति नहीं करती। झाडू लगाने से उसका दिन प्रारम्भ होता है, रसोई बनाना, बर्तन साफ करना, घर का पानी भरना, चक्की में आटा पीसना, दोपहर में कोई अन्य कार्य करना तथा देर रात्रि तक परिवार की सेवा का कार्य चलता रहता है। अनेक परिवारों में प्रत्येक सदस्य उसे बेपैसे का नौकर समझता है। उसके भोजन, स्वास्थ्य, मनोरंजन, विश्राम की किसी को चिन्ता नहीं होती। पति प्रायः मेहनत, मजदूरी तथा जीविका उपार्जन के सिलसिले में बाहर रहता है, घर में सास बहू से कार्य लेने के अतिरिक्त तरह तरह के ताने, व्याँम, एवं लाँछन लगाया करती है। अनेक स्थानों पर देवर या स्वयं ससुर की कुदृष्टि तथा उससे होने वाले नाना सन्देहों के दुष्परिणाम देखने में आते हैं। अनेक नव वधुएँ संकटों से तंग आकर भाग निकलती या आत्म हत्याएँ कर बैठती हैं। सास से सताई हुई ये बहुएं समय आने पर जब स्वयं सास बनती हैं, तो अपनी बहुओं पर वे ही अमानवीय अत्याचार करती हैं जो स्वयं पर हुए थे।

अब वह युग आ गया है कि सास को तथा अन्य परिवार को बहू के प्रति अपना निर्दयी शोषण करने वाला दृष्टिकोण परिवर्तित कर देना चाहिए। प्रायः छोटे छोटे कुटुम्ब अच्छी प्रगति करते देखे जाते हैं। स्वयं पतियों को पृथक रह कर इस शोषण का अन्त करना चाहिए।

पतियों द्वारा पत्नियों पर अत्याचार

आये दिन कलियुगी पतियों की वासना, लोलुपता, स्वार्थ, क्रोध, घृणा, पत्नियों के चरित्रों पर सन्देह को लेकर होने वाली हत्याओं, कलह, कटुता के दुखद समाचार प्राप्त होते रहते हैं, जिन्हें सुनकर मानवता का सिर लज्जा से नीचे हो जाता है। इन थोड़े ही दिनों के अन्दर चार नवयुवतियों की हत्या के समाचार मिले हैं।

पहली हत्या बाग मुजफ्फरखाँ मोहल्ला, आगरा की 11 जुलाई 1952 का समाचार है कि ज्योति प्रसाद जोकि बम्बई रेलवे में नौकर है, की पत्नी गृह कलह बलिवेदी पर बलिदान हो गई। दूसरी हत्या पंजे के बाबूलाल सर्राफ की पुत्र वधू की है। श्री बाबूलाल के पुत्र ने अपनी पत्नी को अमानुषिक रीति से पीटा, जिधर देखा मारता गया नतीजा यह हुआ कि बेचारी का प्राणान्त हो गया। तीसरी दर्दनाक हत्या फीरोजाबाद के मोहल्ला गडैया में हुई है। अनवर नामक एक मुसलमान ने पहले तो अपनी पत्नी को बुरी तरह पीटा, बाद में उस पर मिट्टी का तेल छिड़क कर उसे जीवित जला दिया। चौथी घटना वहीं की हकीमी गली की है। एक बन्द मकान में महिला को चाकूओं से गुदा हुआ लहूलुहान बेहोशी की अवस्था में पाया गया। हत्या का शक भाई पर किया जाता है, क्योंकि उस पर बहिन का तीन हजार ऋण था।

ऐसी अनेकों घटनाएँ हमारी आँखों तले गुजरती हैं। आज पत्नी का जीवन आँसुओं और वेदनाओं से परिपूर्ण है। पति भंवरा वृत्ति का अस्थिर चंचल, शकसूबे की आदत वाले बन गये हैं। स्वयं चाहे जो अनैतिकता, अविवेकपूर्ण, अप्रतिष्ठा के कार्य करते फिरें, किन्तु पत्नी को तनिक सी भूल के लिए अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। जीवित जलाना दहेज न लाने पर नववधू पर अमानुषिक अत्याचार, मारपीट, कलह, डर दिखाना, भूखा रखना, जहर देना, परित्याग कर नया विवाह कर लेना, द्विपत्नी रखना, वेश्यागमन, व्यभिचार आदि ऐसे कलंक पूर्ण कार्य हैं, जो हमारे समाज में वृद्धि पर हैं। नारी के जीवन का मूल्य जितना कम आज है, उतना कम कभी नहीं रहा।

विवाहित जीवन में असंयम-

विवाहित हो जाने के पश्चात् यह आशा की जाती है कि पति पत्नी का जीवन सुख शान्तिमय होगा और प्रकृति की माँगे पूर्ण होती रहेंगी। आज के विकार ग्रस्त युवक युवती पति पत्नी विवाहित हो जाने पर भी स्वच्छन्द जीवन व्यतीत करना चाहते हैं। आज का वातावरण कैसा दूषित हो गया है, इसके कुछ उदाहरण श्री0 रामनारायण यादेवन्दु ने इस प्रकार दिये हैं-

एक पठान युवक हमारे सुपरिचित है। सेना में दो तीन वर्ष ठहर चुके हैं। कप्तान के पद पर काम कर चुके हैं। उन्होंने अपने पिता के आदेश से हाल ही में विवाह कर लिया है और अपनी नव विवाहिता पत्नी को दो महीने अपने पास रख कर अपने पिता के पास भेज दिया है। पूछने पर बतलाया- “बेगम के रहने से स्वच्छन्द रूप से वेश्याओं के पास जाना आना नहीं होता। यह युवक विवाह से सर्वथा असंतुष्ट है। कारण, विवाह से पूर्व स्वच्छन्द जीवन ही है। एक दूसरे कप्तान युवक हैं। सेना में रहने से गोरों के जितने भी गुण अवगुण हैं, वे सब उन्होंने सीख लिए हैं। ग्रेजुएट हैं अंग्रेजी शिष्टाचार भी खूब जानते हैं। विवाहित हैं, पुत्र पुत्रियाँ भी हैं। लेकिन उन्हें दूसरों की बहिन बेटियों के नाथ आँखें लड़ाने का शौक है। वे दर्जनों लड़कियों से प्रेम का अभिनय कर चुके हैं।

एक चौबीस वर्षीय पंजाबी युवक से मैंने पूछा कि “आप छुट्टियों में अपने घर क्यों नहीं जाते?’ युवक ने उत्तर दिया, ‘घर पर मेरा कौन है?’ मैंने कहा- ‘विवाह नहीं किया क्या?’ उत्तर मिला- ‘जी नहीं और न करने का विचार है। कौन गृहस्थी के चक्कर में पड़े। कभी बच्चे बीमार हैं, तो कभी स्त्री का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। हजारों दिक्कतें है। इसलिए मैं तो अकेला ही रहूँगा।’ इस युवक को दो सौ रुपये मासिक मिलता है परन्तु कुसंसर्ग से वेश्यागमन की लत पड़ गई है। इस प्रकार आधुनिक युवकों के आन्तरिक जीवन में प्रविष्ट होकर छानबीन की जाय, तो अनेक उदाहरण प्राप्त हो जाएंगे। विवाहित जीवन में असंयमी युवक जो न करें, थोड़ा है। विवाहित जीवन को पवित्रता एवं धार्मिक आहार पर स्थिर करने की आज बड़ी आवश्यकता है। हमें चाहिए कि इस ओर प्रयत्न करें।

नारी का यह तिरस्कार-

आज के समुन्नत युग में भारतीय नारी उसी प्रकार निरक्षर, पिछड़ी, पीड़ित और सामाजिक रूढ़ियों में पिस रही है। एक ओर कुछ भारतीय नारियाँ रुज पाउडर लिपिस्टिक, रेशमी साड़ियों से सुशोभित विदेशों में देश का मस्तक ऊँचा कर रही है, किन्तु दूसरी ओर इसी भारत में अभी तक ऐसी अभागी नारियाँ हैं, जो सामाजिक रूढ़ियों के शिकंजे में मानवी होकर भी पशु से भी गया बीता जीवन व्यतीत कर रही हैं, अज्ञान, अशिक्षा, अंधपरम्परा, सामाजिक शोषण का शिकार बनी हुई हैं।

अकाल ग्रस्त क्षेत्रों में काम और खाना प्राप्त न होने पर स्त्रियों द्वारा अपनी में संतान तथा देह को बेचने के संवाद समाचार पत्रों में प्रकाशित हुए हैं। प्रयाग की विधवा-विवाह सभा ने वृन्दावन में स्थायी रूप से चलने वाली स्त्रियों की बिक्री के जघन्य कुकर्म की ओर देश का ध्यान आकृष्ट किया है। बाल विवाह की गन्दी जीर्ण शीर्ण प्रथा के व्यापक रूप से प्रचलित होने के कारण बाल विधवाओं तथा उनसे किए गये अमानवीय पशुवत दुष्कर्मों की भी कमी नहीं है। वृन्दावन में बड़े बड़े मंदिरों में बृहत् संख्या में विधवाओं के रहने के स्थान हैं, जहाँ उन्हें जीने के लिए भोजन और नग्नता ढ़कने मात्र के लिए वस्त्र दिये जाते हैं। सामाजिक तिरस्कार, पीहर तथा ससुराल की अमानवीय यंत्रणाओं से दुःखी होकर ये असहाय तिरस्कृत विधवाएँ पुजारी पंडों यात्रियों तथा अन्य व्यक्तियों द्वारा छेड़ी जाती है, पग पग पर उनका मजाक बनता है और अपमान का जीवन चलता है। भली विधवाएँ तो आत्म हत्या तक कर लेती हैं, गर्भपात तथा भ्रूण हत्याएँ होती है। या तो ये स्वयं अपने आप को बेचती हैं, या भ्रष्ट करने के उपरान्त इनके पेशेवर संरक्षक इन्हें दूसरों के हाथ बेचते हैं। कहने के लिए हिन्दू विधवा कानून 1856 में पास हुआ था, पर हिन्दू समाज की रूढ़िवादिता मोहान्धता, बालविवाह की प्रवृत्ति तथा अशिक्षा के कारण यह व्यर्थ ही रहा। यह है, हमारा दुर्भाग्य।

हिन्दू विधवा एक जीवित कब्र की तरह है जिसका सर्वत्र निरादर एवं तिरस्कार होता है। जहाँ पुरुष विधुर होकर एक के पश्चात् कई विवाह कर सकता है, हिन्दु समाज में विधवा का शिष्ट सभ्य ढंग से रहना भी शक सूबे की दृष्टि से देखा जाता है। उन्हें स्वच्छ वस्त्र पहिनना, स्वास्थ्य प्रद भोजन खाना, मनोरंजन या पर्याप्त विश्राम करना समाज नहीं देख पाता। विवाह की तो बात ही बहुत दूर की है। उसका दर्शन, स्पर्श, तक अशुभ समझा जाता है।

अनेक व्यक्ति एक पत्नी पसन्द न आने पर प्रथम पत्नी को छोड़, नई शादी कर लेते हैं। ऐसी परित्यक्ताओं की दशा उनसे भी गई बीती है। कानून की दृष्टि से वे तलाक देकर न पुनः विवाह कर सकती हैं, न नौकरी या परिश्रम पर उदर पोषण करने के लिए ही मुक्त रहती हैं। फलतः अनेक परित्यक्ताएँ वेश्याएं बनकर चुप-चाप जीवन के शेष दिन काटती रहती हैं। जो स्त्रियाँ पति से पृथक होकर काम वासना का दमन करने में असमर्थ हैं, उनके लिए पुनर्विवाह का कानून बना देने में ही समाज का कल्याण है।

विधवाओं की बढ़ती हुई आत्महत्याएं, धर्म परिवर्तन, नारकीय वेश्या का जीवन व्यतीत करने देने से मानवता का ह्रास हो रहा है। अथवा विधवा विवाह का सुचारु नियम बनाकर अधिकाधिक उसका प्रचार करना श्रेयस्कर है। मनु, पराशर, नारद, अत्रि, कात्यायन, वशिष्ठ इत्यादि भारतीय विचार धारा के व्यवस्थापकों ने स्त्री के पुनर्विवाह की आज्ञा दी है। पराशर का मत है-

नष्टे मृते प्रब्रजिते कीवे च पतिते पतौ। पंचस्वा हत्सु नारीणाँ पतिरन्यों विधीयते॥

अर्थात् पति के भूल जाने, मर जाने, संन्यासी हो जाने, नपुँसक हो जाने या जातिच्यूत हो जाने-इन पाँच अवस्थाओं में दूसरे विवाह का विधान है। समाज के स्वास्थ्य के लिए, नारी जीवन को सुष्टु, शाँतिमय, सर्वांग सुन्दर एवं सबल बनाने के लिए विधवा विवाह एक बड़ी आवश्यकता है।

विवाह- हिंदू समाज का सर दर्द

हिन्दू समाज में विवाह एक भया वह समस्या होती जा रही है। अभी वह युग नहीं बीता है, जब कन्या का जन्म अशुभ समझा जाता था। आज भी कन्या का जन्म होते ही, माता पिता एक भार का अनुभव करते हैं। उन्हें शिक्षा देकर यह समझा जाता है कि विवाह समस्या कदाचित हल हो सकेगी, किन्तु शिक्षित कन्या के योग्य शिक्षित वर बहुत महंगे हैं।

जो लोग निज सन्तानों के भरण पोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा में उचित मात्रा में धन व्यय नहीं कर पाते उन्हें भी उनके उपनयन और विवाहादि में दहेज या झूठा दिखावा करना पड़ता है। आज भी हमारे हिन्दू समाज में ऐसे महामूर्खों से भरा हुआ है जो जन्म से विवाह तक कन्या को भर पेट अन्न और समुचित वस्त्र नहीं देते, किंतु उसके विवाह में हजार दो हजार व्यय करने में, अच्छे अच्छे आभूषण, साड़ियाँ तथा अन्य वस्तुऐ दहेज में देने में गर्व का अनुभव करते हैं। उन आभूषणों के भार से बन्द घरों में, घूँट में बन्द रहने के कारण उनका स्वास्थ्य, यौवन, तथा सौंदर्य नष्ट हो जाता है।

एक महानुभाव लिखते हैं, ‘मैंने ऐसे भी लोग देखे हैं जो अपने गाँव के किसी बड़े आदमी की बराबरी करने की धुन में अपनी बड़ी कन्याओं के विवाह में इतना अधिक व्यय कर देते हैं कि उनका दिवाला निकल जाता है और छोटी कन्या को एक बूढ़े व्यक्ति से बिना देखे विवाह कर देना पड़ता है।”

दहेज की हत्यारी प्रथा अभी तक अपने काले कारनामे हमारे समाज में दिखा रही है। योग्य वरों को ऊँचे दामों में बेचा जा रहा है। दहेज के अभाव में अनुपयुक्त वर मिलते हैं और जीवन भर बहुसंख्या सधवाएँ छटपटाती रहती हैं। दहेज के लालची विवाह करा देते हैं, पर नारी के सुख और स्थायित्व की गारन्टी कौन दे सकता है?

पाठकों को तारपुर (मुँगेर) की 22 वर्षीया विवाहित शकुन्तला का नेहरु जी के नाम लिखा गया वह पत्र समाचारों में देखा होगा, जिसमें उसने अपने पति के साथ न रहकर एक राजपूत प्रेमी के साथ रहने की इच्छा प्रकट की थी। 14 अगस्त 1950 को सुप्रीम कोर्ट में शारदा नामक कन्या ने बताया था कि उसने स्वेच्छा से एक जाट युवक से विवाह कर लिया था। प्रचलित विवाह प्रणाली की विकृति और दहेज की अस्वाभाविकता के ये उदाहरण स्पष्ट उदाहरण हैं। इस हत्यारी प्रथा के पंजों में पड़ कर अनेक नारियाँ नारकीय जीवन व्यतीत कर रही हैं।

श्री राधेश्याम जी ने दहेज के विषय में सत्य ही लिखा है- “आज कल अपनी पुत्री की शादी क्या करना है, अपनी इज्जत और प्रतिष्ठा को बेचना है। अनेक व्यक्ति दहेज की चिन्ता करते करते ही दुनिया से चले गये, अनेकों ने अनमेलविवाह करना आरम्भ कर दिया जिससे बाल विधवाओं की संख्या बढ़ गई और दुराचार फैलने लगा। अपनी लड़की के विवाह की चिन्ता में हमारे समाज के लाखों माता पिताओं को दिन रात आँसू बहाने पड़ते हैं और कन्याएं अपने यौवन काल में अपने माता-पिता को इस प्रकार आँसू बहाते देखकर अपने भाग्य को कोसती हैं और कभी-2 आत्म हत्या तक कर बैठती हैं।”

विवाह जैसे पवित्र कर्म में जब तक यह लेन देन रिश्वतखोरी, की पूँजीवादी वृत्ति समाप्त नहीं होती, तब तक हमारे विवाहित जोड़ों का चुनाव ठीक नहीं हो सकता। उपयुक्त शिक्षा, स्वास्थ्य, वय, गुण कर्म के अनुसार विवाह सम्बन्ध निश्चय होने चाहिएं।

भ्रूण हत्याएं-

भारत में सहशिक्षा तथा सिनेमा के घृणित प्रचार से निरन्तर अवैध संतानों की संख्या बढ़ती पर है। अवैध बच्चे इधर उधर फेंके हुए गर्भ मिल जाते है। पत्र पत्रिकाओं में गर्भपात करने, गर्भ रोकने, बर्थ कन्ट्रोल, घृणित रोगों को अच्छा करने, ताकत की दवाइयों के विज्ञापन बृहत् संख्या में प्रकाशित होते रहते हैं। अपने पत्र ऐसे ही संतान नियमन सम्बन्धी या सेक्स के इश्तहारों से चलते हैं। गुप्त अंगों के सम्बन्धी रोग निरन्तर वृद्धि पर हैं। ऐसा उत्तेजक साहित्य बड़ी मात्रा में छप कर खपता जा रहा है। गली-2 में ऐसी चिकित्सा की दुकानें खुल गई हैं, जो गन्दे रोगों के इलाज का ठेका लेते हैं और भ्रूण हत्याएँ कराते हैं। यह है मानवता का उपहास।

उन्मुक्त प्रेम तथा तत्सम्बन्धी जटिलताएं-

“नारी की प्रतिष्ठा” नामक एक लेख में नागपुर का यह हाल पढ़िये- “एक 16-17 वर्ष के लड़के का एक लड़की से प्रेम सम्बन्ध हो गया। लड़की के माता पिता ने अपनी पुत्री का सम्बन्ध दूसरी जगह कर दिया। इसलिए अवसर पाकर लड़के ने लड़की का खून कर दिया और पकड़ा गया। इतनी छोटी सी उम्र में प्रेम और खून करने के दुस्साहस हो जाय, ये संस्कार उसे सिनेमा की सस्ती रोमाँस पूर्ण गन्दी फिल्मों से मिला।

प्रत्येक फिल्म मोहब्बत की कहानी घुमा फिराकर युवकों के सम्मुख उपस्थित करते हैं, प्रेम व्याधि को अप्राकृतिक उत्तेजना देते हैं। कच्ची आयु में प्रेम करने की तीव्र आकाँक्षा में सत् असत्, विवेक अविवेक का मार्ग नहीं दीखता। युवक युवतियां गन्दे व्यक्ति के पंजे में फँस कर सम्पूर्ण आयु नष्ट कर डालते हैं।

रोमाँस के मर्ज के मरीज स्कूल कालेज के अधकचरे, अस्थिर चित्त, काम लोलुप युवक उन्मुक्त से फिरते हैं और हर नारी में प्रेमिका देखने का गन्दा प्रयत्न करते हैं। इसी प्रकार युवतियाँ सिनेमा की तरह समाज में प्रेमियों की खोज करती फिरती हैं। यह मानवता का पतन है, और सभ्यता का दुर्भाग्य! इतने निचले स्तर का प्रेम भारत में कभी भी नहीं रहा है।

नौकरों का शोषण-

हमारे समाज में नौकरों से अमानवीय व्यवहार की अधिकता है। छोटे बच्चों युवक युवतियों तथा वृद्ध सभी तरह के नौकर रखे जाते हैं। उनसे जी तोड़ परिश्रम कराया जाता है। उनकी सुख सुविधा स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रखा जाता। एक स्थान पर सुना गया था कि नौकर को सारी रात जागते रखा गया तब कि मालिक सोता रहा। छोटे “बौय सर्वेन्टस” को होटलों, दुकानों, या कारखानों में आठ घण्टे खूब परिश्रम कराया जाता है। उनकी ईमानदारी पर शक कर अनेक स्थानों पर उन्हें निर्दयता से पीटा जाता है। दुःख अभाव, पीड़ा कष्टों में निरन्तर पिसते हुए ये बच्चे डीठ हो जाते हैं, बहुत से परिस्थितियों के प्रभाव से चोरी करना सीख जाते हैं। स्त्री नौकरानियों की कठिनाइयों और बेबसी का अनुचित लाभ उठाया जाता है। ठेकेदार लोग दिन भर सख्त धूप या कड़-कड़ाती सर्दी में उससे डाट कर काम लेते हैं तथा वासना लोलुप दृष्टि से निहारते हैं। इनका जीवन मानवता का एक उपहास है।

बच्चों पर अत्याचार-

हमारे माता पिताओं को शिशु प्रकृति का ज्ञान न होने के कारण घर घर में कुहराम मचा रहता है। तनिक-2 सी बातों पर उत्तेजित होकर धुल धप्पा प्रारम्भ हो जाता है, गालियों की बौछारें चलने लगती है, अशाँति कुढ़न क्लेश तथा विषाक्त स्थितिए उत्पन्न हो जाती हैं। प्रायः माता पिता डाँट फटकार या भय से काम लेते हैं। भय दिखाने से कुछ काल तो शाँति होती है। थोड़ी देर पश्चात् पुनः शोर और कुहराम प्रारम्भ हो जाता है। गालियों, मारपीट, दमन से बच्चे उद्दण्ड बनते हैं। आजकल विद्यार्थियों की उद्दण्डता के उदाहरण देखकर मानवता पर कलंक लगता है। आज की तामसी शिक्षा ने उन्हें इतना पापमय बना दिया है कि विद्यार्थी प्रायः बुराई की ओर अधिक झुक जाते हैं। अप्राकृतिक मैथुन, स्वप्न दोष, व्यभिचार, कुसंग, गन्दे गानों की भरमार देख कर सिर लज्जा से झुक जाता है।

वृद्धों के विवाह-

पत्रों में प्रकाशित हुआ था झाबुआ रियासत के राज्यच्युत नरेश ने 61 वर्ष की बूढ़ी अवस्था में अपनी छठी शादी की थी। उस समय भी राजा साहब के छः रानियाँ और कितनी ही रखेलिया मौजूद रहती थीं। राजा साहब के सब अधिकार छीन लिए गए, उनकी कोई स्त्री सुखी नहीं हो सकी। राजा साहब की कामुकता पर किसे तरस न आयेगा? युवतियों के यौवन से खेल करने वाले दुस्साहसी व्यक्तियों की आज समाज में कमी नहीं है।

सहरसा, बनगाँव के एक सत्तर वर्ष के वृद्ध ने ग्यारह वर्षीया लड़की से विवाह किया। यह बूढ़ा व्यक्ति 40 वर्षों से दाढ़ी बढ़ा कर रखता था। इसके रहस्य का अभी तक उद्घाटन नहीं हुआ है लेकिन लड़की का पिता बताया जाता है कि एक हजार रुपया और पाँच बीघे जमीन के लालच में पड़ गया और उसने अपनी लड़की का विवाह उस वृद्ध से कर दिया।

समाचार पत्रों में वृद्ध राजनैतिक नेताओं का, राजनैतिक अधिकार प्राप्त कर छोटी आयु की लड़कियों से विवाह करने के कई समाचार छपे हैं। एक राजनैतिक नेता ने स्वयं पचास वर्ष से अधिक वय का होते हुए एक बीस वर्षीय युवती से विवाह किया था। और भी कई अधिकारियों ने अपनी सत्ता एवं अधिकार का दुरुपयोग किया है।

इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि वृद्धों की वृत्तियाँ आयु की वृद्धि के साथ समुन्नत एवं परिपक्व होने के स्थान पर साधारण निम्न स्तर पर रहती हैं। उन्हें चाहिए कि आयु के साथ रुचि और प्रवृत्तियों को भी परिष्कृत करते रहें।


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