आज मानवता रो रही है।

January 1953

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अपने समस्त ज्ञान, वैज्ञानिक अनुसंधान, खोज, बड़े-बड़े इंजीनियरिंग, चिकित्साशास्त्र तथा भौतिक समृद्धि के साधनों के बावजूद हम देखते हैं कि आधुनिक मनुष्यों में से मनुष्यत्व का पतन हो रहा है। उनकी मानवता का क्रमशः ह्रास होता जा रहा है। जिस चीज को हम “आदमीयत” कह कर गर्व करते हैं, वह निरन्तर क्षय होती जा रही है। मनुष्य “मनुष्य” का शत्रु हो गया है। सभ्यता का ढोंग चढ़ा कर, सफेद कपड़ों की आड़ में, वह ऐसे दुष्कर्म कर रहा है, जिन्हें देखकर उसे शैतान या हैवान ही कहना पड़ता है। मनुष्य के अन्दर बर्बर युग से सोया हुआ हैवान या शैतान जैसे आज जागृत हो गया है।

आज के दो वर्ग

आज का सम्पूर्ण संसार मोटे तौर पर दो बड़े भागों में विभक्त किया जा सकता है। (1) शोषक अर्थात् वह वर्ग जो आध्यात्मिक नैतिक, ज्ञान-विज्ञान की शक्तियों से शासन का आनन्द भोग रहा है। यह वर्ग हर प्रकार की ऐश-आराम, विलास का जीवन व्यतीत करता है, आज के अन्य सदस्यों द्वारा अर्जित खाद्य पदार्थों, भौतिक साधनों दैनिक व्यवहारों की चीजों की प्रचुरता का आनन्द लेता है। कल कारखाने, वायुयान, रेल, जहाज, लोहे के हथियार और औद्योगिक संस्थाओं, जमींदारों की बागडोर हाथ में है। उसे रुपये का घमण्ड है, विज्ञान द्वारा दिये गये भौतिक आनन्दों, प्रभुता, मद, ज्ञान विज्ञान का अभिमान है, मशीनों पर विश्वास है, एटम की शक्ति है। यह पूँजी पतियों का वर्ग है। इस वर्ग में बड़े बड़े अमीर, सत्ताधारी, ब्रह्मवादी, रूढ़िवादी क्षत्रिय, जागीरदार अमीर वैश्य, मठाधारी, मन्दिरों के पुरोहित, पंचायत के पंच लोग, बड़े अफसर पूँजीवादी राजनैतिक पार्टियों के प्रतिनिधि आदि सम्मिलित हैं।

दूसरा वर्ग शोषितों का है। इस वर्ग में दीन हीन गरीब मजदूर, किसान, मिलों फैक्ट्रियों में मजदूरी करने वाले, शूद्र, भंगी, चाण्डाल, चमार, होटलों, रेस्टोराँ, मोटर, रेल, सिनेमा में काम करने वाले नौकर इत्यादि अनेक प्रकार के व्यक्ति सम्मिलित हैं। पहले वर्ग की अपेक्षा इस वर्ग में अधिक व्यक्ति आते है। इसमें अछूत जातियों के लोग भी सम्मिलित हैं, जिनका कार्य उच्च वर्ग की चाकरी कर पेट पालना है। इन लोगों की गुलामी दो कारणों से हुई है-एक तो ये आर्थिक दृष्टि से दीन हीन हैं, दूसरे धर्म ग्रन्थों की आड़ में शिक्षा और सुविधाएं न देकर तलवार, लाठी, डंडों के बल इन्हें पनपने नहीं दिया गया है। उच्च वर्ग के इन्हें गुलाम बना कर इन्हें नौकरी चाकरी, घरों की सफाई, मल विष्ठा मूत्र से भरी नालियों की सफाई, उनकी स्त्रियों को विलास और मनोरंजन की वस्तु समझ कर सदियों इन्हें पशुत्व की कोटि में रखा है। इस वर्ग का निरन्तर शोषण होता रहा है। इस प्रकार हमारे समाज का आधा अंग पशुवत् अज्ञान, अशिक्षा, रूढ़िवादिता, भेदभाव, अहंकार असमर्थता में पड़ा हुआ शोषित हो रहा है।

अज्ञानान्धकार का पाप

आज के युग के भौतिक सुखों, आश्चर्यचकित कर देने वाली सुविधाओं, विलास और आराम की वस्तुओं की चर्चा की जाती है। किन्तु खेद है कि इतनी प्रचुरता में भी शोषित वर्ग में गरीबी, दुःख, अज्ञान और भयंकर भुखमरी है, इतने विस्तार और मुक्त वायु के बीच भी रोग, अशुचिता, गंदगी दयनीयता और बेबसी है, इतनी शिक्षा सुविधाओं के मध्य भी रूढ़ि जाति पांति, धर्मान्धता, दुराचार, अपहरण और अज्ञानान्धकार का साम्राज्य फैला हुआ है। हम सब मनुष्य कहलाते हुए भी दूसरे मनुष्य को छूने, प्यासे को पानी पिलाने में भूखे को अन्न देने में, बीमार की सुश्रूषा करने में सकुचाते हैं।

बिल्ली, कुत्ते का मुख चूमने में हमें कोई संकोच नहीं होता, किन्तु मनुष्य रूप में करोड़ों भारत संतानों का-शूद्र, चाण्डाल, म्लेच्छ, भंगी, चमार का स्पर्श करते हुए हमारा धर्म नष्ट होने लगता है।

जातिवाद

हिन्दू समाज का जातिवाद शोषण का एक और कारण है। इसका प्रारम्भ वर्ण व्यवस्था से किया गया था। वर्ण व्यवस्था पेशों को दृष्टि में रखकर सुविधा के कारण हुई थी। उसमें ऊँच नीच, छूतछात, ऊँचाई निचाई की संकुलित भावनाएँ न थीं। धीरे-धीरे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र जन्मजात वर्ण बन गए और प्रत्येक वर्ण की अनेक उपजातियाँ बन गई। धीरे धीरे एक जाति के लोगों ने दूसरी जाति के खानपान, रोटी बेटी के व्यवहार बन्द किए। एक दूसरे के प्रति घृणा, वैर, ऊँच नीच के विचार आ गए। ऊँची कहलाने वाली जातियाँ नीची कहलाने वाली जातियों पर अत्याचार, आर्थिक शोषण और छूतछात के विचार रखने लगीं। जाति वाद के अत्याचारों, संकुचिता, शोषण, बहिष्कार के कारण हमारा देश हजारों वर्ष तक गुलाम रहा। एक जाति और वर्ण के व्यक्ति दूसरी जाति या वर्ण के लोगों को नीचा दिखाने में ही शान समझते रहे। जातिवाद के अत्याचारों के कारण हिंदू समाज का छोटा, नीच, दबा, पिसा और शोषित हिंदू शूद्र हिंदू तिरस्कार छूतछात, हीनत्व तथा हेटेपन का जीवन व्यतीत कर रहा है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि मानव समूहों में हो रहे कठोर तम शोषण और संघर्षों के प्रधान कारण तीन रहे हैं। (1) अर्थनीतिक, (2) वर्ग या जातिगत और (3) मत या धर्म गत। प्रथम महायुद्ध में अर्थनीतिक कारण था, दूसरे में अर्थनीतिक के साथ साथ मत सम्बन्धी भी कारण संयुक्त हो रहे थे। यदि भविष्य में तृतीय महायुद्ध हुआ तो उसमें अर्थनीतिक, जाति तथा मत वैषम्य-ये तीनों ही कारण मौजूद होंगे।

आज विश्व की विचित्र दशा है। शैतानी, आसुरी, पैशाचिक शक्तियों ने मनुष्य को उसके दैवी स्वभाव तथा जन्म सिद्ध पवित्र अधिकारों से वंचित कर दिया है। अज्ञान, अविवेक, प्रलोभन, स्वार्थ, नैराश्य, संकीर्णता, ने उसकी दिव्य दृष्टि का अपहरण करके उसे क्रूर, कुकर्मी, हिंसक, हत्यारा, धूर्त, मूर्ख, पाखण्डी, एवं मोहग्रस्त बना दिया है। सृष्टि का मुकुटमणि, धर्म को धारण करने वाला महा मानव-आज निरीह एवं असहाय की तरह दुख दारिद्र की शैतानी षड़यंत्र की चक्की में पिस रहा है। हा, हन्त!


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