मानवता की रक्षा के उपाय

January 1953

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मानवता मनुष्य की दैवी सम्पत्ति

तुम मानव हो! तुम आदि कर्त्ता महाप्रभु परम पिता परमेश्वर के पुत्र हो। तुम उन दिव्य गुणों विशेषताओं, उच्चतम दैवी सम्पदाओं शुभ उद्देश्यों के पुँज हो, जो तुम्हारे पिता में सन्निहित है। प्रत्येक मनुष्य उस दिव्य विभूति का अधिकारी है, जिसकी कल्पना हम जगत नियंता सच्चिदानन्द आनन्द घन अमृत तत्व मंगलमय भगवान में करते हैं। मानवता हमारा विशेष गुण है।

सद्गुणों, सद्भावनाओं, सद्आचरण तथा सद्व्यवहारों से दृढ़ पुरुषत्व का नाम “मानवता” है। मानवता में वे सब शुभ, सात्विक, सद् सामर्थ्य केन्द्रित हैं, तो हमें पशुत्व या असुरत्व से ऊँचा उठाते हैं, और हमारी प्रवृत्ति को सदाचार, संयम, परमार्थ सिद्धि, बुद्धि विवेक, सहिष्णुता की ओर रखते हैं।

देवत्व की प्राप्ति का प्रथम सोपानः-

मानवता की पूर्णता देवत्व की प्राप्ति का प्रथम सोपान है। मनुष्य का आंतरिक तथा वाह्य जितना अधिक से अधिक विकास होता है, उतना ही वह मानवता के समीप आता है। मनुष्य में जो ईश्वर का दिव्य अंश है, उसे धारण किए रहने का सतत् प्रयत्नशीलता मानवता है, उस दिव्य शक्ति का विकास करने के लिए समस्त कर्म मानवता के सत्कर्म हैं। जो इन शुभ प्रयत्नों में जितनी तल्लीनता और निष्ठा से संलग्न है वह उतना ही मानवता के पास है। अपनी देह द्वारा परमेश्वर को प्रकट करना, दिव्य शक्तियों का विकास करना, समीप की भूमि को दैवी प्रकाश, प्रेम सहानुभूति, दया, आनन्द, तृप्ति से भर देना, गिरे हुए प्राणियों को ऊँचा उठाना, परस्पर सेवा सद्भाव सहानुभूति रखना मानवता का विकास करना है।

मानवता क्या है?

एक विद्वान का कथन है- “दिव्य शक्ति का सम्पूर्ण विकास मानवता की पूर्णता है। विश्व में एक ही पवित्रतम मन्दिर है, जिसमें अत्यन्त शक्तिशाली पूर्णता की प्रतिमा स्थित है। वह मन्दिर मानवता का शरीर है। इस मानवता का सर्वोत्तम उपयोग, अपने अन्तः स्थित देव को सुरक्षित रखता है। मानवोचित कर्मों से ही वह अन्तः स्थित देव प्रसन्न होता है। परस्पर प्रेमपूर्वक सम्मिलन, दर्शन और स्पर्श से स्वर्ग-सुख का अनुभव मानवता के अभ्युदय पर निर्भर है। मानवता की शीतल सुखकर और समुन्नत वृष्टि से विश्व के समस्त संताप शान्त हो जाते हैं।”

हिन्दुओं के महापुरुषों-भगवान राम, तथा योगेश्वर कृष्ण-में हमें मानवता की पूर्णता के आदर्श उदाहरण मिलते हैं। उनके सर्वगुण सम्पन्नता, सर्वज्ञता, कर्मकुशलता, कर्तव्य शीलता ही उनके मानव जीवन की पूर्णता के परिचायक हैं। श्री रामचन्द्र ने जन्म से लेकर ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, राजस्व, पुत्र धर्म, संकट, युद्ध, सहायता इत्यादि की नाना मर्यादाओं का आदर्श हमारे सम्मुख प्रस्तुत किया। जगत के जंजालों और विलापों से घिरे रह कर धर्म की धुरन्धरता ज्ञान की गरिमा, नीति निपुणता, बुद्धि विशालता, मत तथा संयम की महानता, चित्त की चैतन्यता, अहंकार शून्यता, विचारों की दक्षता, बल सौंदर्य, सरलता की प्रचुरता, ऐश्वर्य, धर्म यशश्री, वैराग्य और मोक्ष की सम्पूर्णता प्राप्त कर लेने का आदर्श श्रीकृष्ण चरित्र में दृष्टिगोचर होता है। मनुष्य जीवन का ऐसा कोई अंग नहीं जिसकी पूर्णता, सर्वांगीण विकास इन दोनों महा-मानवों में न हो। सत्यं, शिवम् सुन्दरम् का एकीकरण करके आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक पूर्णता यहाँ हमें सहज ही उपलब्ध हो जाती है। श्रीकृष्ण के चरित्र से स्पष्ट है कि मानव संयमित और सादे जीवन के द्वारा-(1) कर्म (2) ज्ञान, (3) तथा भक्तियोग का समन्वय करता हुआ दिव्य शक्तियों से संपन्न जीवन व्यतीत कर सकता है।

श्रीराम तथा श्रीकृष्ण ने मानवता का पथ प्रशस्त किया, मानवता का उच्चतम आदर्श हमारे सम्मुख रखा, और विशुद्ध मानवता की रक्षा के लिये सतत संग्राम किया। इन दोनों महामानवों की मानवता कर्त्तव्य शीलता, लोकोपकार सात्विकता, कर्मशीलता, और धर्म संस्थापना में है। उन्होंने स्वार्थ के लिये व्यक्तिगत सुख का बलिदान किया, मानवीय धर्म की रक्षा के लिये निरन्तर संघर्ष किया, समग्र जीवन दूसरों की सेवा, परोपकार, कर्तव्य, सत्य की स्थापना में लगाया।

इन दोनों महानुभावों में शरीर की हृष्ट-पुष्टता, विद्याध्ययन के प्रति प्रेम, गुरुजनों के प्रति असीम आदर भाव, माता-पिता, जेष्ठों के प्रति पूजनीय भाव, कुल तथा देश की मान रक्षा के लिये बलिदान, कर्तव्य पालन में निर्भीक, जागरुकता, विनम्रता दैनिक जीवन में आत्मसम्मान, सात्विकता, शिष्टता, अथक परिश्रम, कार्य कुशलता और धर्म प्रेम मिलते हैं। साहित्य, कला और संगीत उनके व्यक्तित्व के अंग थे। श्रीकृष्ण ने उपनिषदों का दोहन कर उस दार्शनिक साहित्य का निर्माण किया, जो गीता के नाम से विख्यात है। धार्मिक जीवन में, ये महामानव, जीवन युक्त थे, उनमें वैराग्य के साथ मुक्ति की प्रयत्नशीलता थी। श्रीकृष्ण ने मोक्ष के लिये प्रयत्न किया और व्यक्तिगत मुक्ति से, देश की मुक्ति, देश की मुक्ति से विश्व की मुक्ति को महत्वपूर्ण समझा। ऐश्वर्य, धर्म, बल, यश, श्री और वैराग्य आदि मानवता के सभी तत्वों को पूर्णता इन महामानवों में उपलब्ध हो जाती है। इनमें मानवता और ईश्वरत्व का जो समन्वय मिलता है, वह हमारे लिये पथ प्रदर्शक आदर्श रूप में है। हम चाहें, तो उनमें से अनेक तत्वों का जीवन में विकास कर सकते हैं। उनका मानव रूप में प्रकट होना मानव मात्र के लिये ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, वीर्य, शक्ति, तेज आदि के अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करता था। मानव जीवन की पूर्णता के लिये श्रीकृष्ण का आदेश देखिए-

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।

निराशीर्निर्ममो भूत्वा युज्यस्व विगतज्वर॥

(गीता अ॰ 3/30)

“हे अर्जुन! ध्याननिष्ठ चित्त से सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें समर्पण करके आशा रहित और ममता रहित होकर संताप रहित होकर जीवन युद्ध कर।”

मानवता के सद्गुण

मानवता के लक्षणों का वर्णन भगवान कृष्ण ने गीता के 16 वे अध्याय में दैवी सम्पदा के अंतर्गत किया है। सच्चे आदर्श रूप मानव में निम्न गुण होने आवश्यक हैं। इनके सर्वोच्च विकास से ही हम सच्चे अर्थों में मनुष्य कहलाने के अधिकारी हैं -

अभयं सत्व संशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः। दान दमश्च यज्ञश्च् स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥

अहिंसा, सत्यम, अक्रोधः, त्याग, शान्ति, अपैशुनम् दया, भूतेषु, अलोप्त्वम् मार्दनम् होः, अचापलम्॥

तेजः, क्षमा, धृतिः, शौचम अद्रोहः, नातिमानिता। मवम्ति सपंदम् दैवीम् अभिजातस्य, भारत॥

श्रीकृष्ण भगवान् के उपरोक्त मन्तव्यों के अनुसार जिन व्यक्तियों को दैवी सम्पदाएँ प्राप्त हैं, उनके लक्षण इस प्रकार हैंः-

1- अभयमः-मन में भय का सर्वथा अभाव।

2- सत्व संशुद्धिः-अन्तःकरण की अच्छी प्रकार स्वच्छता।

3- ज्ञानयोग व्यवस्थितिः-तत्व ज्ञान के लिये ध्यानयोग में निरन्तर दृढ़ स्थिति।

4- दमः-इन्द्रियों का दमन।

5- यज्ञः-भगवत् पूजा और अग्निहोत्रादि

6- स्वाध्यायः-वेद शास्त्रों के पठन पाठन पूर्वक भगवत् के नाम और गुण का कीर्तन।

7- तपः-स्वधर्म पालन के लिये कष्ट एवं प्रतिकूलताएँ सहन करना।

8- आर्जवम्ः-शरीर और इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण की सरलता।

9- अहिंसा-मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना।

10- सत्यम् -यथार्थ और प्रिय भाषण।

11- अक्रोधः-अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध न होना।

12- त्याग-कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग।

13- शान्तिः-चित्त की चंचलता का अभाव।

14- अपैशुनम्ः-किसी की निन्दा न करना।

15- भूतेषुदयाः-सब शुद्ध पतियों में हेतु रहित दया होना।

16- अलोलुप्त्वम्ः-इन्द्रियों का विषय के साथ संयोग होने पर भी आसक्ति का न होना।

17- मार्दवम्ः-कोमलता-मन, वाणी, कर्म, स्वभाव की।

18- हीः-लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा।

19- अचापलम्ः-’व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव।

20- तेजः-वह शक्ति जिसके प्रभाव से श्रेष्ठ पुरुषों के सामने विषयासक्त और बीच प्रवृत्ति वाले मनुष्य भी प्रायः अन्याय चरण से रुक कर उनके कथनानुसार श्रेष्ठ कर्मों में प्रवृत्त करना चाहिये।

21- क्षमा

22- धैर्य

23- बाह्य शरीर तथा मन की शुद्धि एवं किसी के प्रति भी शत्रु भाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव।

ये सच्चे मानव के लक्षण हैं। हमें चाहिए कि इन मानवता के सद्गुणों को आचरण में लाने का सतत् प्रयत्न करते रहें। यथाशक्ति अपने दैनिक जीवन में इनका व्यवहार करें। दीर्घ कालीन अभ्यास से इनका निश्चय ही आपमें विकास होगा। आप सच्चे मानव बन सकेंगे ।

मानव धर्म के दस लक्षण

गीता, स्मृति, पुराण, और रामायण इत्यादि धर्म की विशद व्याख्या की गई है। स्मृतियों में मनुस्मृति सबसे अधिक प्रामाणिक मानी जाती है। मनुजी ने मनुष्य के लिये दस लक्षण आवश्यक बताये हैं। जो व्यक्ति इन दस लक्षणों से युक्त हैं, वे ही सच्चे मानव धर्म का पालन कर रहे हैं। मनुजी कहते हैं-

धृतः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचामिन्द्रियनिग्रहः। धी र्विद्यासत्यमक्रोधः दशकं धर्मलक्षणम्॥ (6/92)

अर्थात् धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धी, विद्या, सत्य तथा अक्रोध-ये मनुष्य के दस मुख्य लक्षण हैं। जिनमें ये मानव धर्म के दसों लक्षण मौजूद हों, वह सच्चा मानव कहलाने का अधिकारी हैं। जो इनका पालन नहीं करते, वे मनुष्य का रूप कलंकित करते हैं। इन गुणों का सम्बन्ध किसी देश जाति, और सभी सम्प्रदाओं के धर्मनिष्ठ मानवों में ये समान रूप से पाये जाते हैं।


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