मानवता की रक्षा, विकास एवं सेवा के उपाय

January 1953

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संगठित प्रयत्न की आवश्यकता-

मानवता की रक्षा, विकास, एवं सेवा के लिये हममें से प्रत्येक मनुष्य को सतत जागरुक होना चाहिये। स्वयं कोई भी विनाशात्मक कार्य न कर रक्षात्मक एवं रचनात्मक कार्य करने के लिये पूरी शक्ति जुटा रखिये। यदि हममें से प्रत्येक व्यक्ति मानवता की रक्षा के लिये कटिबद्ध हो जाय, तो निश्चय ही हमारे परिवार, मुहल्ले, प्रान्त, देश से पशुता, बर्बरता और भ्रष्टाचार का अन्त हो सकता है। प्रत्येक मुहल्ले में सेवा सभायें, मानव-गोष्ठियाँ, समितियाँ, छोटे-छोटे क्लब बने, जो ऊँच नीच, गरीब अमीर का झूठा कृत्रिम भेदभाव भूल कर मानव मात्र के कल्याण के लिये भ्रातृ भाव, प्रेम, सौहार्द, समता, सहकारिता, सहानुभूति, सहायता, संगठन का वातावरण पैदा करें। एक दूसरे की सहायता करें, मन्दिर तथा धर्म स्थानों पर मानव सेवा दलों के संगठन और शिक्षा के केन्द्र बनें। प्रत्येक मानव को शान्ति, सहनशीलता, क्षमा के साथ अनीति और अत्याचार को दूर करने के लिए निर्भयता, वीरता और साहस का संचय करना चाहिए।

अन्धविश्वास, अति विश्वास एवं गलत फहमिया

समाज तथा अपने परिवारों में जो अंध विश्वास अतिविश्वास, गलत फहमिया हैं, उनको निकाल देना चाहिए। स्मरण रखिए विकार एक क्षुद्र से भ्रम के रूप में आपके मानस पटल पर उदित होता है। यह मन का मैल है। यदि प्रारम्भ में ही इसे साफ कर लिया जाए, जिसके विरुद्ध शिकायत है, उससे मामला साफ कर लिया जाय तो अत्युत्तम है अन्यथा चुपचाप एक दूसरे के विरुद्ध विष एकत्रित होता रहता है और समाज में विद्वेष, घृणा और अराजकता फैलती है।

हमारे बिछड़े हुए जितने भाई हैं- उनसे प्रेम और समता का व्यवहार किया जाय। हिन्दुओं में शूद्रों की स्थिति कुत्तों से भी बदतर है आर्थिक सामाजिक दृष्टि से वे उच्च जातियों के दास हैं। जाति की संकुचिता ने हमें गुलाम बना दिया था। हमें जाति हीन शिक्षित शक्ति प्रतिभा उच्च गुण सम्पन्न मानव समाज बनाने में प्रयत्नशील होना चाहिए। यही हमें हिन्दू जाति को जीवित रखना है तो ऊंच नीच के भेद को सर्वथा नष्ट कर देना होगा। हिन्दू समाज के अंतर्गत दलित शोषित जातियों के पुनरुत्थान की योजनाएं बननी चाहिए।

रूढ़ियां दूर कीजिए -

मानवता की रक्षा का एक मात्र उपाय यह है कि मानव के सर्वांगीण विकास में जो सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक या अन्य बाधाएं हैं उन रोड़ों को तोड़ दिया जाय। प्रत्येक मानव यह कार्य करे, अत्याचार, अविचार और अनाचार का निर्भीकता से डट कर सामना किया जाय। यदि हमें अन्य राष्ट्रों की प्रतियोगिता में जीवित रहना है, तो समाज के प्रत्येक व्यक्तियों को जाग्रत करना होगा, उसे शिक्षित कर आचार विचार, कर्तव्य अकर्तव्य पाप पुण्य का विवेक सिखाना होगा, सब की जिम्मेदारी स्वयं अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। इस प्रकार सबको समुन्नत संगठित कर आगे बढ़ाना होगा। हम भावी मानव के लिए निष्कंटक, आलस्य हीन, प्रमाद-रहित, आडम्बर विहीन, सरल सादा, उच्च विचारों वाला जीवन चाहते हैं। पाश्चात्य सभ्यता एवं विदेशी संस्कृति से हमें आँख मूँद कर प्रभावित नहीं होना है। हमें भारतीय संस्कृति की पृष्ठ भूमि पर मनुष्यत्व का विकास करना है। हमारा अन्तिम ध्येय तो वह साँस्कृतिक स्वराज्य है। जिसमें सब सुखी हों, सब सम्पन्न शिक्षित प्रकाश मान हों, हमारी जरूरी माँगें पूर्ण हों, साहित्य कला ज्ञान विज्ञान की वृद्धि हो, और स्वास्थ्य सुख एवं शान्ति के सब साधन मानव मात्र के लिए सुलभ हों।

सम्वेदना शील हृदय की आवश्यकता-

मानवता की वृद्धि एवं विकास की एक बड़ी आवश्यकता है- संवेदन शील हृदय (दर्दे दिल) दृढ़ प्रतिक्षता और सद्भावना। संवेदन शील वह है, जो मानव मात्र की कसक पीड़ा, उल्लास, हर्ष, सिसक, रोदन को अपने दिल में महसूस करता है। जब दीन गरीब किसान मजदूर पर अत्याचार होता है, तो सम्वेदन शील मानव के हृदय में टीस उठती है, जब विधवा के ऊपर लात घूसों का प्रहार होता है तो उसकी चोट उसके मन में उत्पन्न होती है, जब लूटमार डाकेजनी काला बाजार रिश्वत से मानवता कलंकित होती है, वह मन ही मन रोया करता है। वह शोषित पीड़ित मानवता के प्रति सदा सद्भावना रखता है। जब तक दूसरों पर होते हुए अत्याचार हमें तिलमिला नहीं देते, जब तक हम अपने संकुचित स्वार्थों के दायरे में बन्द हैं, तब तक हम मानवता से दूर हैं। अतः हमें यह स्मरण रखना चाहिए-

दर्दे दिल, पासे वफा जजबए ईमाँ होना, आदमयित है, यही और यही इन्सा होना।

यम नियमः-

हमारे शास्त्रों में मानवता की वृद्धि के लिए हमारे यहाँ यम नियमों का विधान रखा गया है (1) अहिंसा (2) सत्य (3) अस्तेय (4) ब्रह्मचर्य और (5) अपरिग्रह दूसरों से व्यवहार करने के लिए रखे गये हैं। आत्म सुधार के लिए इसी प्रकार (1) शौच (2) सन्तोष (3) तप (4) स्वाध्याय (5) और ईश्वर भक्ति आदि साधन माने गऐ हैं। कहने को ये छोटे-छोटे शब्द हैं, किन्तु इनका पालन कठिन है। ‘कठिन’ कहने भर से दूर हट जाना कायरता है। अतः हमें यथाशक्ति इनकी साधना करनी चाहिए। आत्म चिंतन द्वारा हममें से प्रत्येक अपनी त्रुटियाँ मालूम करे और दृढ़ता से उन्हें दूर करने का प्रयत्न करे।

आवश्यकताओं पर नियंत्रण-

प्रत्येक व्यक्ति को निजी आवश्यकताओं को कम करना चाहिए तथा दूसरे की सेवा सहायता का ध्यान रखना चाहिए। स्वार्थ के स्थान पर परमार्थ, अपने के स्थान पर दूसरे की आवश्यकताओं का ध्यान करना चाहिए।

हम लोग तुच्छ स्वार्थों को अपना ध्येय मानकर अनर्थ करते रहते हैं। “अमुक वस्तु मुझे चाहिए मुझे सबसे अधिक हिस्सा प्राप्त हो, मैं लूँगा दूसरे को कुछ न दूँगा, मेरी आवश्यकताएं पहले पूर्ण होनी चाहिएं- यह दूषित विचार धारा हम में से प्रत्येक मानव को त्याग देनी चाहिए। हमें स्वार्थ के स्थान पर दूसरों के प्रति आत्मीयता की भावनाएं विकसित करनी चाहिए।

दूर की न सोचने वाला लालची नष्ट हो जाता है और जो यह कहता है कि “मुझे नहीं चाहिए आप लीजिए”- उसे प्रकृति के कोष तथा भगवान के भण्डार से बहुत मिलता है। जिसे न्याय और अन्याय का ज्ञान है, जो लेने योग्य और न लेने योग्य का भेद समझता है, ऐसे श्रेष्ठ पुरुष का घर ढूँढ़ती-2 लक्ष्मी स्वयं उसके पास पहुँच जाती है। उदार दृष्टि कोण वाला प्रेमी व्यक्ति दूसरों को भी अपना समझता है, उनसे प्रेम पूर्ण उदार व्यवहार करता है-ये भावनाएँ होने के कारण वह थोड़े ही में गुजारा कर लेता है और कहता है- “बस, मेरे लिए इतना ही पर्याप्त है, मुझे और कुछ नहीं चाहिए”

“मुझे नहीं चाहिए, आप लीजिए”- यह नीति ऐसी है, जिसके आधार पर मानवता की रक्षा और विकास हो सकता है। इस नीति का पुराना शानदार इतिहास है। एक दृष्टिपात कीजिए-

“मैं लूँगा, आपको न दूँगा”- इस नीति का पालन रामायण युग में कैकेयी के द्वारा हुआ था। इस स्वार्थ मयि नीति के कारण सम्पूर्ण अयोध्या नरक धाम बन गई थी। दशरथ ने प्राण त्याग दिये थे, राम को चौदह वर्ष का वनवास मिला था। किन्तु जब भरत ने ‘मुझे नहीं चाहिए, आप लीजिए” की नीति अपनाई, तो दूसरे ही दृश्य उपस्थित हो गए थे। राम ने राज्याधिकारी को त्यागते हुए भरत से कहा- “बन्धु! तुम्हें राज्य का सुख प्राप्त हो, मुझे यह नहीं चाहिए।” सीता देवी न कहा-”नाथ! यह राज्य भवन मुझे नहीं चाहिए, मैं तो आपके साथ रहूँगी।” सुमित्रा ने लक्ष्मण से निर्देश किया- “यदि सीताजी रामचन्द्रजी के साथ वन में जा रही हैं, तो हे पुत्र! उनकी सेवा के लिए तुम भी बन में जाओ।” भरत ने इस नीति को और भी सुन्दर रीति से चरितार्थ किया। उन्होंने राज-पाट को लात मारी और भाई के चरणों में लिपट कर बालकों की तरह रोने लगे। वे बोले-”भाई! मुझे राज्य नहीं चाहिए। राज-पाट मेरे लिये नहीं है, इसे तो आप ही ले लीजिए।” मानव रत्न श्री राम ने कहा- ‘भरत, मेरे लिए तो वनवास ही श्रेष्ठ है। राज्य का सुख तुम भोगो।”

ऊपर के प्रसंग में हमें दूसरों के लिए आत्म बलिदान करने के अनेक, भव्य उदाहरण मिल जाते हैं। यह त्याग का दूसरों की सुख सुविधा उन्नति का अधिक ध्यान रखने का सुनहरा नियम आज जगत में व्याप्त बेचैनी, पीड़ा, छीना झपटी और युद्ध को दूर कर सकता है। ‘मैं लूँगा’ के स्थान पर ‘आप लीजिए’ वह मंत्र है, जो विश्व में शाँति स्थापित कर सकता है।

पारस्परिक सद्भावः-

मित्रो! प्रभु ने मनुष्य को इसलिए इस आनन्दमयी सृष्टि में नहीं भेजा कि हम आपस में लड़े, झगड़े छीना झपटी करें, शोषण, कुकर्म, दण्ड, अत्याचार, दुःख, बेचैनी और पीड़ा में फँसे, रक्त की होली खेलें। हम बालकों का यह दुष्कर्म देख कर परम पिता परमेश्वर को बहुत मनः क्लेश होता है। अतः यह उलटी चाल छोड़ कर दूसरों की सुख सुविधा का खूब ध्यान रखना चाहिए। परमात्मा को प्रसन्न करने की सबसे सीधी चाल यह है कि हर एक व्यक्ति ‘मुझे नहीं चाहिए, आप लीजिए’ की निस्वार्थ रीति को ग्रहण करे। इस नीति की शिक्षा स्वयं अपने जीवन में उतारे और पड़ौसियों को दे। जहाँ तक सम्भव हो प्रेम, न्याय, भ्रातृ भाव का यह दिव्य संदेश पहुँचाना चाहिए। सबको सुखी बनाकर सुखी भविष्य की आशा और आश्वासन दिलाना चाहिए।

दूसरों के प्रति शुभ भावनाएं-

हमें चाहिए कि दूसरों के विषय में खराब या दुर्बल विचार करना त्याग कर सद्भाव की आशा करे। हमें उनके प्रति वही व्यवहार करना चाहिए जो हम अपने प्रति कराना चाहते हैं। हमारी आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक उन्नति में दूसरों के प्रति किए गये अत्याचार, दुष्टता, धोखेबाजी, लूट, कालाबाजार, चोरी इत्यादि बाधक हैं। हमारा दुष्कर्म कभी छिप नहीं सकता। यदि हम दुनिया की आँखों में धूल झोंककर झूठ बोलकर अथवा धोखा देकर, रिश्वत, पक्षपात या भ्रष्टाचार में ऊँचे उठ भी जाते हैं, तो कल हमारी कलई अवश्य खुल जाएगी। वास्तविकता प्रकट होने पर जो आत्मग्लानि की जो पीड़ा सहन करनी पड़ती है, उसकी कसक सैंकड़ों बिच्छुओं की काटी हुई पीड़ा से भी अधिक है। अतः अपाहिज, दीन, शोषित, दुःखी, कोढ़ी, पीड़ित, पददलित, पशु-पक्षी जगत, वनस्पति- किसी के प्रति भी निर्दयता नहीं करनी चाहिए।

सहानुभूति और दया-

जुल्म और निर्दयता पशुत्व है। बेरहमी का बर्ताव करना मनुष्य को किसी प्रकार भी शोभा नहीं देता। जुल्म करना तो दानवों का दुष्कर्म है, जिन्हें उचित अनुचित भलाई बुराई का विवेक नहीं होता। आप मानव हैं। बुद्धि, विवेक, विद्या सदाचार के ज्योतिर्मय पिंड हैं। क्या आप दूसरों पर जुल्म कर पशुत्व को कोटी में जाना पसन्द करेंगे? कदापि नहीं, यह दुष्कर्म, यह अन्याय, अनाचार, बेईमानी, धोखेबाजी, चोरी आप कदापि नहीं करेंगे। यह आपके योग्य कर्म नहीं है। आप मनुष्य होकर शोषण नहीं कर सकते। भारत की निरक्षर, पिछड़ी, पीड़ित, और अन्ध विश्वास जनता की सेवा में ही आपकी शक्तियों का उपयोग होना चाहिए।

सद्व्यवहार करना ही शोभनीय है-

मनुष्य अपने सद्व्यवहारों से देवता बन जाय, या मानव से दानव। हमारे पूर्व पुरुषों ऋषियों मुनियों ने सद्व्यवहार उदारता, प्रेम, मित्रता, परस्पर उचित सहकार और सहानुभूति को मानवता के महत्व पूर्ण अंग माने हैं। मनुष्य यदि सच्चे मानव का जीवन जीना चाहे, तो उसे मानव धर्म का आश्रय लेना चाहिए।

सत्संगति मानव धर्म का एक आवश्यक गुण है। जो सत्य है उसकी ओर आकृष्ट होना, उत्तमोत्तम विचारों, मन्तव्यों, धारणाओं वाले ज्ञानी, महात्माओं विद्वानों, सद्ग्रन्थों का संग करने से हमारे बुरे विचारों एवं वासनाओं का नाश होता है और शुभ संस्कार पड़ते हैं। चाहे कुछ काल तक सत्संग का प्रभाव प्रकट न हो, किंतु थोड़े सप्ताह पश्चात् मानवोचित शुभ संस्कार प्रकट होते रहते हैं। सत्संग से अज्ञान और अविवेक का क्षय होता है।

गुणग्राहिता चाहिएः-

आज स्वार्थ के स्थान पर दूसरों के गुणों के प्रति प्रीति, गुण ग्रहीता, को विकसित करने की अतीव आवश्यकता है। यदि हम दूसरे के उन्नत गुणों की प्रतिष्ठा करेंगे, उनके सद्गुणों की प्रशंसा करेंगे, तो मित्र भाव, सौहार्द, बन्धुत्व की शुभ भावनाओं की वृद्धि होगी, संसार प्रेम बन्धनों से परिपूर्ण होकर शत्रुभाव से मुक्त हो जायगा।

श्रद्धा मानवीय हृदय का मेरुदण्ड है। हमें श्रद्धा भाव की बुद्धि में बड़े हैं, उनके प्रति हमें भाव रखना चाहिए। विद्यार्थी समुदाय का गुरुजनों की प्रतिष्ठा, मान, एवं गुरुत्व का सदैव ध्यान रखना चाहिए। शास्त्रों की उक्ति है, ‘गुरु देवों भवः’ अर्थात् गुरु देवता के समान श्रद्धा का पात्र है। वृद्ध जनों के प्रति भी श्रद्धालु होने की परम आवश्यकता है।

जिन्हें पाकर मानवता धन्य हुई।

जहाँ मानवता को कलंकित कर शरीर धारण किये हुए पशुओं तथा दानवों की कमी नहीं है, वहाँ इसी संसार में आज भी ऐसे अनेक मानव रत्नों के दर्शन हो जाते हैं, जो मानव-मात्र के कल्याण, बन्धुत्व, प्रेम, सौहार्द, नैतिकता, सहानुभूति के कारण मनुष्यता को ही प्रतिष्ठित नहीं करते, प्रत्युत अपनी उदारता, परहित कातरता, तथा सद्भावना के कारण देवत्व की कोटि तक पहुँच जाते हैं। इनके कार्यों में प्रकट हुई उदारता, सहिष्णुता, त्याग, तथा जनहित की शुभ्र भावनाएँ मानवता की शोभा हैं। ये नर रत्न ‘स्व’ की संकुचित परिधि से ऊँचे उठे तथा मानव मात्र के कल्याण की पवित्र भावना के वशीभूत होकर परहितार्थ अग्रसर हुए।

श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार ने कलकत्ते के भीषण नर संहार के समय दानवता का नंगा नृत्य होते समय मानवता की रक्षा करने वाले कुछ नर रत्नों के इस प्रकार उदाहरण दिये हैं -

एक धनी व्यक्ति हिन्दु मुहल्ले के एक भाग में कुछ गरीब मुसलमानों की छोटी सी बस्ती थी। उसी में एक गरीब ब्राह्मण भी रहता था। वह साधारण जीवन में शायद मुसलमानों का स्पर्श भी न करता हो, परन्तु उस भीषण नर हत्या काण्ड में उसने अपने प्राणों की बाजी लगाकर मुसलमान पड़ौसियों की रक्षा की। प्रतिशोध के लिए एक हिन्दू भीड़ इस मुहल्ले में आ गई। बूढ़ा ब्राह्मण गली के सड़क किनारे पर खड़ा था। भीड़ उसे देखकर रुक गई। ब्राह्मण ने उसे शाँत करने की भरपूर चेष्टा की किन्तु जब वह न रुकी तो उसने आह भरते हुए कहा “अच्छा, यदि आप नहीं मानते तो आगे बढ़िए, परन्तु मैं यहीं खड़ा होकर आपको रोकूँगा। पहले आपको इस ब्राह्मण के रक्त से होली खेलनी चाहिए।” भीड़ स्तम्भित होकर रह गई।

एक मुसलमान व्यापारी सज्जन ने आस पास के बहुत से हिन्दू भाइयों को शरण दी और नेत्रों में आँसू भर कर कहा- ‘दो सौ वर्ष से हम साथ साथ रहते आये हैं और हमारा परस्पर बड़ा गहरा सरोकार है परन्तु आज बाहर वाले मुझे उन्हीं के खून में नहलाना चाहते हैं- मैं यह सोचकर शर्म से गढ़ा जा रहा हूँ कि इस्लाम के नाम पर ऐसी खौफनाक बातें हो रही हैं।’

‘हरिजन सेवक’ में छपा एक उदाहरण इस प्रकार है, ‘एक शहरी किसी ग्राम में गया और एक मोर पर निशाना साधने लगा। एक देहाती ने उसे मना किया, किन्तु वह नहीं माना, तो देहाती मोर और शिकारी के बीच में खड़ा हो गया। शिकारी जोश में था उसने सामने खड़े ग्रामीण की परवाह न कर गोली चला दी। देहाती के गोली लगी तथा वह घायल होकर गिर पड़ा। गाँव के व्यक्ति एकत्रित हो गये और यह स्पष्ट था कि वे शिकारी को लातों, घूसों और डण्डों से अधमरा कर देंगे, पर तभी वह घायल देहाती सरक कर शिकारी और उन लोगों के बीच में आ गया। उसने कहा- ‘मैंने जब मोर को नहीं मारने दिया, तो इसे क्यों कर मारने दूँगा। यह तो मनुष्य है।’ भारत के जीवन की समस्त दया, करुणा, अहिंसा और ममता के शाश्वत संस्कार उस मानवता की वाणी में मुखरित हो गये।

श्री प्रफुल्ल रंजन ने अपने भाई चित्तरंजन से कहा- ‘क्या तू पागल हो गया है? तुझे ध्यान है दान की झोली में क्या डाल रहा है?’

“हाँ ठीक मालूम है 1600) का है।”

“भोले भाई, बैंक में जमा रकम भी इतनी ही है और तू एक कलम के झटके में उसे साफ कर रहा है।?”

‘परन्तु दिया तो आखिर गाँधी जी को ही न? दक्षिणी अफ्रीका के लिए उनकी झोली में मैं और क्या दे सकता हूँ?”

“चित्त रंजन, धन्य है तेरी दान शीलता को।”

“नहीं, उन्होंने उत्तर दिया, ‘यह दान शीलता नहीं है। जब मैं कुछ देता हूँ तब मुझे यही प्रतीत होता है कि मैं स्वयं अपने को ही दे रहा हूँ, मानो मैं स्वयं ही अपने आगे माँगने को खड़ा हूँ, अथवा स्वयं परमेश्वर ही मेरे द्वारा अपनी भिक्षा की झोली भर लेता है। मैं ईश्वर की वस्तु ईश्वरीय कार्य के ही अर्पण कर रहा हूँ।”

योरोपीय महायुद्ध में एक जहाज डूब रहा था। कौन बचे कौन डूबे, इसका निश्चय करना था। लाटरी डालकर भाग्य की परीक्षा की गई। अचानक एक नाव पर बैठे व्यक्ति ने जहाज पर खड़े एक व्यक्ति को अपने पास बुलाया और कहा, “मेरे स्थान पर तुम बैठ जाओ। तुम्हारे वृद्ध माता पिता हैं, मेरा कोई नहीं। इतना कहते ही वह कूद कर जहाज पर आ गया। जहाज डूब गया, नाव वाले बच गये उस मानव ने प्रमाणित कर दिया कि कई ऐसे पवित्र कार्य भी हैं जिनके लिए प्राणों की आहुति दे देना भी सस्ता सौदा समझा जा सकता है।

फिलिस्तीन में दो भाई कृषि का कार्य कर निर्वाह करते थे। छोटा भाई क्वारा था तथा पृथक अकेला रहता था, बड़ा भाई बाल बच्चेदार था। एक दिन बड़े ने सोचा ‘मेरा छोटा भाई अकेला है, उसके कोई सन्तान भी नहीं जो कटाई में उसका हाथ बंटाये। आज रात मैं कटी हुई फसल का एक बड़ा सा गट्ठा उठा कर चुपके से उसके ढेर में डाल आऊँगा, बेचारे का बोझ कुछ हलका हो जायगा।’

उधर छोटे भाई ने सोचा, ‘बड़े भाई के कन्धे पर गृहस्थी का बोझ है, अपनी सन्तान सहित भी वह इस भार को नहीं सम्हाल रहा है। अतः आज रात दबे पाँव मैं अपनी फसल से एक गट्ठा उठा कर उसके यहाँ डाल आऊँगा।’

रात्रि में दोनों अपना-अपना काम करने निकले और गट्ठे डाल आये सवेरा हुआ तो उन्होंने चकित होकर देखा दोनों के खलिहान पूर्ववत् पूरे के पूरे थे। दूसरी रात उन्हीं उदार भावों से प्रेरित होकर पुनः एक दूसरे के यहाँ गट्ठर डाले। फिर वही आश्चर्य। तीसरी रात अंधकार में वे एक दूसरे के खेतों में चले जा रहे थे कि एक दूसरे से यकायक टकरा गए। केवल स्पर्श मात्र से उन्होंने पहिचान लिया कि वे एक ही यहूदी माँ के पुत्र हैं। गट्ठे फेंक कर वहीं उसी क्षण वे एक दूसरे के गले से लिपट गये और प्रेमाश्रुओं की झड़ी लगा दी। यह है भाई भाई का स्वर्गीय स्नेह! ये हैं इंसानियत के मुकुट मणि।

इस प्रकार के सच्चे हीरों के अनेक उदाहरण पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते है, जिन्हें देख कर मानवता की उज्ज्वलता के भविष्य की आशा बँधती है। मनुष्य में ईश्वरत्व के जो दैवी तत्व हैं, वे किसी न किसी रूप में अक्सर प्रकट हो जाते हैं। राक्षसी वृत्तियों का काला अन्धकार दूर होगा और मानवता की ही विजय होकर रहेगी।

मानवता का ही दूसरा नाम भारतीय धर्म, भारतीय सभ्यता, भारतीय संस्कृति है। हमारे पूर्वज मनुष्यता के उपासक रहे हैं, उन्होंने साध्य की प्राप्ति के लिए साधन की पवित्रता की कमी भी उपेक्षा नहीं की है। वरन् इस बात पर जोर दिया है कि हमारी आवश्यकताएं तथा इच्छाएँ भले ही अपूर्ण रह जावें परन्तु उनकी प्राप्ति का मार्ग न्यायोचित एवं धर्मानुकूल ही होना चाहिए। अधैर्य एवं अन्याय से प्राप्त होने वाले सुख एवं वैभव की यहाँ सदा निन्दा ही की जाती रही है।

हमारी संस्कृति का एक ही संदेश है कि सच्चे अर्थों में मनुष्य बनें और जीवन में सभी क्षेत्रों को मानवता से ओत प्रोत करें और संसार में से पशुता के अंधकार को हटाकर उस दिव्य आचार विचार की ज्योति प्रकाशित करें जिसके प्रकाश में मानव प्राणी अपने आपको सच्चा इंसान अनुभव कर सके, स्वयं शाँति से रह सके और दूसरों को शाँति पूर्वक रहने दे सके। आइये, इस महान अनुष्ठान में हम सब लोग संलग्न हों। स्वयं मनुष्य बनें, अपने आचरण और विचारों को मानवता से परिपूर्ण करते हुए ऐसा आदर्श उपस्थित करें कि दूसरे भी हमारा अनुकरण करते हुए मानवता का गौरव बढ़ावें।

स्वर्गीय-सेठ श्री रण छोड़ दास मोघ जी, बम्बई

स्वर्गीय सेठ जो जितने सफल व्यापारी थे उतने ही उज्ज्वल चरित्र, धर्मनिष्ठ एवं भगवत् भक्त भी थे। सुदूर प्रदेशों में उनका व्यापार अब भी सफलता पूर्वक चल रहा है और उनका प्रायः सभी परिवार गायत्री उपासना में संलग्न है। स्वर्गीय सेठ जी के सुपुत्र श्री हरिदास जी तथा श्री करन दास जी ने अपने पिता जी के स्मरणार्थ गायत्री मन्दिर में ठहरने के कमरे बनवाने के लिए 2000) रुपये दान दिए हैं। साधन सम्पन्न लोगों के लिए यह दान अनुकरणीय है।


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