गीता में मानवता के लक्षण

January 1953

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दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः। वीत राग भय क्रोधः स्थितधिर्मु निरुच्यते॥

दुःखों की प्राप्ति में उद्वेग रहित है मन जिसका, और सुखों की प्राप्ति में दूर हो गई स्पृहा जिसकी तथा नष्ट हो गये हैं राग, भय और क्रोध जिसके, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है।

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्ततत्प्राप्य शुभाशुभम्। नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

जो पुरुष सर्वत्र स्नेह रहित हुआ, शुभ तथा अशुभ वस्तुओं को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है।

यदा संहरते चार्यं कूर्मोंगानीव सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

जैसे कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है, वैसे ही पुरुष जब सब ओर से अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से समेट लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।

प्रसादे सर्वदुःखानाँ हानिरस्योपजायते। प्रसन्नचेतसो ह्माशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥

उस निर्बलता के होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले पुरुष की बुद्धि शीघ्र ही अच्छी प्रकार स्थिर हो जाता है।

अद्वेष्टा सर्वभूतानाँ मैत्रः करुण एव च। निर्ममो निरहंकारः सम दुःख सुखः क्षमी॥

इस प्रकार शान्ति को प्राप्त हुआ जो पुरुष, सब भूतों में द्वेषभाव से रहित एवं स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित एवं अहंकार से रहित, सुख दुःखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान् है अर्थात् अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है।

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तःस में प्रियः॥

जो ध्यानयोग में युक्त हुआ, निरन्तर लाभ हानि में संतुष्ट है तथा मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए, मेरे में दृढ़ निश्चय वाला है, वह मेरे में अर्पण किये हुये मन बुद्धि वाला मेरा भक्त मेरे को प्रिय है।

यस्मान्नो द्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः। हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च में प्रियः॥

जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता है और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता है, तथा जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगादिकों से रहित है, वह भक्त मेरे को प्रिय है।

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनों गतव्ययः। सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स में प्रियः॥

जो पुरुष आकाँक्षा से रहित तथा बाहर भीतर से शुद्ध और चतुर है अर्थात् जिस काम के लिए आया था उसको पूरा कर चुका है एवं पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है, वह सर्व आरम्भों का त्यागी अर्थात् मन, वाणी और शरीर द्वारा प्रारब्ध से होने वाले सम्पूर्ण स्वाभाविक कर्मों में कर्तापन के अभिमान का स्वामी, मेरा भक्त मेरे को प्रिय है।

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काँक्षति। शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स में प्रियः॥

जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ कर्मों के फल का त्यागी है, वह भक्ति युक्त पुरुष मेरे को प्रिय है।

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानपमानयोः। शीतोष्णसुखदुःखेषु समः संगविवर्जितः॥

जो पुरुष शत्रु मित्र में और मान अपमान में सम है तथा सर्दी गर्मी और सुख दुःखादि द्वन्द्वों में सम है और सब संसार में आसक्ति से रहित है।

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सतुष्टों येत केसंचित। अनिकेतः स्थिरमतिभक्तिमान्मे प्रियो नरः॥

तथा जो निन्दा स्तुति को समान समझने वाला और मननशील है, अर्थात् ईश्वर के स्वरूप का निरन्तर मनन करने वाला है एवं जिस प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता रहित है, वह स्थिर बुद्धि वाला, भक्तिमान् पुरुष मेरे को प्रिय है।

वर्ष-13 सम्पादक - आचार्य श्रीराम शर्मा अंक-1


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