शिष्टाचार की अवहेलना और अनुशासन हीनता

January 1953

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अंग्रेजी की एक कहावत है-”मैनर मेक्स ए मैन” अर्थात् मनुष्य अपने शिष्टाचार, बैठने उठने बोलने, खाने पीने के तरीके से जाना जाता है। सच्चा मानव वह है, जिसमें मनुष्यों जैसे देवोंमय गुण होते हैं, जो शिष्टाचार जानता है, जिसके बैठने उठने बोलने हंसने के तरीके मानवोचित होते हैं।

आज हम शिष्टाचार की सर्वत्र कमी देख रहे हैं। हमें सभ्यों जैसे तौर तरीके नहीं आते हैं, प्रणाम नमस्ते इत्यादि आदर सूचक शब्दों का हम प्रयोग नहीं करते। एक विज्ञान ने उचित ही कहा है-

“हम बैठते हैं तो पसर कर। बोलते हैं तो चिंघाड़ कर। पान खाते हैं, तो पीक कुरते पर। खाने बैठें तो सवागज धरती पर टुकड़े और सब्जियाँ फैला दीं। धोती ऊँची पहनी तो कुरता बहुत नीचा हो गया। कुरता मैला, तो धोती साफ। बिस्तर साफ तो खाट ढीली। कमरे में झाड़ू तो दरवाजे पर कूड़ा पड़ा है। चलते हैं, तो चीजें गिराते हुए। उठते हैं, तो दूसरों को धकेलते हुए--ये सब तरीके मैनर ही किसी को संस्कृत या सभ्य बनाते हैं। हम चाहे घर पर हों या समाज में, हमें चाहिए कि इनका ध्यान रखें।”

इसी प्रकार की और सामाजिक त्रुटियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया जा सकता है, जैसे, पुस्तकें उधार लेकर वापस न करना, वायदे पर आदमी को घर बुलाना और स्वयं घर से गायब रहना, दुकानदार से वस्तुएं उधार खरीद कर दाम देना भूल जाना, जब व्यापार चल निकले तो खराब निम्न कोटि का माल बना कर दाम पूरा चार्ज करना, पत्रों का जवाब न देना, अपने रोजाना के काम पर देरी से आना, दफ्तर की अनेक चीजें जैसे कलम, रोशनाई, निंब, पेन्सिल, कागज कार्बन, पैकिंग बक्स इत्यादि को चोरी से घर ले जाकर व्यक्तिगत काम में ले लेना, मुँह से कुछ कह कर आचरण में कुछ दूसरा ही कार्य करना-ये ऐसी अशोभनीय बातें हैं, जो मानवता की उच्च प्रतिष्ठा के किसी प्रकार भी अनुकूल नहीं हैं। मानवता की रक्षा के लिये इनका तुरन्त परित्याग कर देना चाहिये।

जाति पाती सम्बन्धी सामाजिक अत्याचार-

आये दिन जाति-पाती की संकुचिता को लेकर नए-नए अत्याचारों के समाचार आते रहते हैं। परस्पर पृथक वर्ण या जाति के युवक युवतियों में प्रेम सम्बन्ध हो जाने पर विवाह न होने पर जो आत्महत्याएँ होती हैं, वे सभी जानते हैं। जाति-पाँति ने निरन्तर भेदभाव, संकुचिता, फूट, कलह, प्रमाद पराजय, नैतिक मानसिक दुर्बलता, बंटवारा, धन सम्पत्ति का नाश, विभाजन इत्यादि दुर्गुणों की अभिवृद्धि की है। जब केवल जन्म की उच्चता (और सद्गुणों, शिक्षा, ज्ञान, सदाचरण, निष्ठा की अवहेलना) पर ही एक जाति दूसरों से उच्च समझी जाने लगती है, तो उसमें प्रमाद, झूँठी शान, नैतिक पतन और आत्मिक मानसिक अवनति आना स्वाभाविक है क्योंकि उसे उस परंपरागत उच्चता को प्राप्त करने के लिये किसी प्रकार का परिश्रम, उद्योग या साधना नहीं करनी पड़ती।

हिन्दू अछूतों का जन्म हिंदू जाति की संकुचित का परिणाम है। वह हिंदू अछूत ईसाई या मुसलमान बन कर हमारे समाज में प्रतिष्ठित बन जाता है, बड़े-बड़े तिलकधारी उससे स्पर्श कर अपवित्र नहीं होते।

जाति पाती के नियमों को ढीला करने की आवश्यकता है, जिससे मनुष्य में घृणा एवं फूट के स्थान पर प्रेम, लेन देन, सहानुभूति की धारा प्रवाहित हो। हम सब हिंदू भाई एक तन एक मन होकर हिंदुत्व एवं हिंदू राष्ट्र के संगठन को दृढ़ कर सकें। जाति पाती की वर्तमानता में भारतवासी एक राष्ट्र नहीं बन सकते।

श्री सन्तरामजी ने उचित ही लिखा है-” जात−पांत ने प्रत्येक जाति, वरन् प्रत्येक उपजाति के राष्ट्रीय, सामाजिक और आर्थिक हित दूसरी जातियों और उपजातियों के हितों से अलग कर रखे हैं, इसलिये वे सब जातियाँ देश के शत्रु को भगाने के लिये आपस में मिलकर सामना नहीं कर सकतीं, गत सहस्र वर्षों में भारत के विदेशियों से हारे जाने का प्रधान कारण जाति पाँति होती रही है। इसके कारण हिंदू किसी पराये को अपना नहीं बना सके। इसके कारण योग्य लड़कियों को योग्य वरों, और वरों को कुशल अनुकूल विचारों की लड़कियों का मिलना कठिन हो रहा है। इसके कारण भारी भारी दहेज देने पड़ते हैं। अनमेल विवाह होते हैं और दुराचार फैलता है। इससे जहाँ ब्राह्मण विद्या में बढ़े, घमण्डी भी हो गये। क्षत्रिय जहाँ मरने मारने में बढ़े, उनमें दूरदर्शिता और विजय प्राप्ति की बुद्धि नहीं रही, वैश्यों ने जहाँ धनोपार्जनी बुद्धि का विकास किया, वे मूर्तिमान कायर भी बन गए हैं। शूद्र तो इतने गिर गए हैं कि इनमें और पशुओं में बहुत कम अन्तर रह गया है। यदि जाति भेद रहेगा तो हिंदू समाप्त हो जायेंगे और यदि हिंदुओं को जीना है तो इन्हें जाति भेद को मिटाना होगा। जातिवाद सांप्रदायिकता से भी कहीं अधिक फूट का कारण है। यदि जाति पाँति रही तो आगे चलकर कई पाकिस्तान बनने की नौबत आना अवश्यंभावी हैं।”

वास्तव में, जाति पाँति से देश में निरन्तर संकुचित, परस्पर वैमनस्य और घृणा विद्वेष ऊँच नीच फूट इत्यादि बढ़े हैं। छोटी जातियों का निरन्तर शोषण हुआ है। अतः विद्या बुद्धि, योग्यता, आचरण, आर्थिक समता के बल पर विवाह इत्यादि होने भावी समाज के लिए हितकर हैं। जाति प्रथा दूर होने से ही अस्पृश्यता का महारोग हमारे समाज से दूर हो सकता है।

साम्प्रदायिकता की संकुचिता

भारत में शिक्षा की कमी है, भयंकर दरिद्रता है और पारस्परिक फूट है। इसका बहुत कुछ उत्तरदायित्व हमारे धर्म पर है, किंतु उससे अधिक इसका कारण ब्रिटिश-राज्य का साम्राज्यवाद एवं फूट डालने की नीति है। ब्रिटिश राज्य प्रारम्भ होने से पूर्व भारत में शिक्षा, सद्भाव, समृद्धि अधिक थी। जनता सबसे अधिक खुशी और समृद्धिशाली थी। उस समय इतनी पारस्परिक फूट भी न थी। जरा-जरा सी बातों पर लोग लड़ने मरने, रक्तपात करने, बेइज्जती करने को तैयार न रहते थे। ये सब बातें अंग्रेजों की भेद नीति से भारत में आई, इनका भयंकर दुष्परिणाम हुआ, आये दिन किसी न किसी पक्ष को प्रोत्साहन देकर वे हमें लड़ाते भिड़ाते रहे। उन्होंने जातिगत प्रश्न गहरे किए, ब्राह्मण और ब्राह्मणेतरों की समस्या उत्पन्न की। भारत की भयंकर दरिद्रता, साम्प्रदायिक विद्वेष, पारस्परिक फूट, मुकदमे बाजी ब्रिटिश आर्थिक नीति का परिणाम हैं। इसी प्रकार यहाँ पशुओं से भी बदतर अछूतों की सत्ता है, मन्दिरों में देवदासिया रहती हैं और अनाचार की कमी नहीं है।

धर्म के लिए, धर्म के कारण कभी कोई झगड़ा नहीं होता। झगड़ों का कारण है, साम्प्रदायिकता। साम्प्रदायिकता का अर्थ है-संकीर्णता, अनुदारता, आपपूती, स्वार्थ परता, अहंकारिता। यह दूषित मनोवृत्ति जिस क्षेत्र में प्रविष्ट हो जाती है, वहीं समाज में भारी विद्वेष, घृणा, शोषण, उत्पीड़न, क्रूरता तथा अनाचार का बोलबाला कर देती है। वह केवल धार्मिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं, वरन् हर क्षेत्र में अपना विषैला कार्य जारी रखती है। हर वर्ग दूसरे को नीचा मानता है- छूत अछूत जाति पाती, मजहब संप्रदायक के रूप में यह अनुदारता उत्पन्न करती है। आत्मिक क्षेत्र में साम्प्रदायिकता पक्षपात, स्वार्थ, मोह, ममता, शोषण, आक्रमण, घृणा, आदि उत्पन्न करती है। द्वेष ओर ईर्ष्या का परित्याग करना ही उचित है।

पहेलियाँ, जुआ, सट्टा-

आज के युग में मनुष्य बिना परिश्रम रुपया प्राप्त करने की इच्छा रखता है। अतः उसने पहेलियाँ, जुआ, सट्टा ऐसे सहज उपाय निकाले हैं, जिनमें अनेक कामचोर, शौकीन, आराम तलब, मनचले व्यक्ति बिना मेहनत के पहेलियाँ हल कर, जुआ, खेलकर, अथवा सट्टा लगाकर अनायास ही मालामाल हो जाना चाहते हैं। बड़े बड़े इनामों की घोषणा करती हुई अनेक पत्र पत्रिकायें केवल आज सुगम वर्ग पहेली के रूप में हजारों रुपया खींच रही है। शौकीन लोग बड़ी संख्या में इन पत्रिकाओं की उत्सुकता पूर्वक प्रतीक्षा में रहते हैं और पत्र आने पर उसे लेकर कमरे में बन्द हो जाते हैं। कई कई दिन तक घन्टों वे इन्हीं पहेलियों में व्यर्थ नष्ट कर देते हैं। इसी प्रकार जुआ, सट्टा, रेस कोर्स, इत्यादि अनेक प्रकार के लोभ मोह से भरे हुए अनर्थकारी मनोरंजन प्रचलित हो गये हैं।

इन मनोरंजनों के मोह जाल में आकर मनुष्य सच्चा सीधा सादा परिश्रम का मार्ग त्याग देता है। उसमें काम से बचकर मुफ्त में रुपया हड़पने की थोथी प्रवृत्ति जागृत हो जाती है। यह एक प्रकार की डाकेजनी ही है। इन्होंने मानव की कार्य शक्ति पंगु कर दी है। पाशविक वृत्तियाँ बढ़ा दी हैं। यह एक प्रकार की फिजूल खर्ची है। जब आदमी स्वाभाविक रूप में सच्चा परिश्रम करके जीविका उपार्जन करता है तो उसमें विद्या, ज्ञान, सद्गुण, प्रतिष्ठा, उदारता, परोपकार आत्मगौरव का विकास होता है। पहेलियों जुआ सट्टा इत्यादि में लगा हुआ मन अपना आत्म गौरव नष्ट कर देता है। वह धनी प्रतिष्ठित अहंकारी का दम्भ करके, ढोंग बनाकर आत्म सन्तोष करना चाहता है। यह मूर्खता है। स्मरण रखिए, जहाँ लोभ हैं, मोह का खिंचाव हैं कार्य से भागने की प्रवृत्ति है, वहाँ असत्, पाप और शैतान की धारा जोर पकड़ती जाती है। उससे अनेकों मनुष्यों के मस्तिष्क विकृति हो जाते हैं। आज वही विकृत ताण्डव नृत्य कर रही है।

पशुओं पर अत्याचार।

पशुओं पर आज जो अत्याचार हो रहा है, वह उस मात्रा में कभी नहीं हुआ है। एक तो मनुष्य में से दया भाव लुप्त हो गया है, दूसरे वह पशुओं के माँस और चमड़े का दूध से अधिक महत्व समझने लगा है। बम्बई में प्रति वर्ष औसतन 30 हजार गायें भैंसें काटी जाती हैं। इसके कई कारणों में से कुछ इस प्रकार हैं-जो व्यापारी वहाँ दूर दूर से दूध के लिए गायें भैंसें ले जाते हैं, वे उन्हें जब दूध देना बन्द कर देती हैं तो चारे की महँगी के कारण खिला नहीं सकते दूसरे रेल कर किराया भी बहुत होने से वे उन्हें यथा स्थान वापस भी नहीं भेज सकते। फलतः वे गायें भैंसे कसाइयों के हाथों पड़ जाती हैं।

सन् 1935-36 के आँकड़े उपलब्ध हैं, जिनसे कुछ अनुमान हो सकता है। आज तक यह बहुत बढ़ चुके होंगे। सन् 1935-36 में पन्द्रह हजार भैंसें तथा अट्ठाइस हजार गायें काटी गई थीं। भैंसों का माँस मनुष्य के स्वास्थ्य के लिये हानिकारक एवं अयोग्य है फिर भी बड़े परिमाण में लोग इस सस्ते माँस को खरीद कर खाते हैं। प्रतिवर्ष पच्चीस हजार दूध देने वाली मवेशी भरी जवानी में केवल एक शहर के लोग हड़प कर जाते हैं। इस प्रकार के तरुण मवेशी 15-20 वर्ष से लगातार कसाई की छुरी के नीचे कटते जा रहे हैं। यदि हम चाहें तो इन मवेशियों को बम्बई या बड़े शहरों के समीप वाले गाँवों में रख सकते हैं। सूखी गाय तथा सूखी भैंसों पर आठ नौ महीने परिश्रम करने पर दूध का अच्छा व्यापार चल सकता है।

मनुष्य को जूतों के लिए इतने अधिक चमड़े की आवश्यकता पड़ने लगी है कि वह स्वार्थ वश पशु का प्राण लेने में नहीं हिचकता। कानपुर, बाटा नगर आगरा के समीपस्थ गाँवों में चमड़ा लाने के लिये अनेक पशु बलि किये जाते हैं। मानव की बढ़ती हुई आराम तलबी, स्वार्थ, लिप्सा माँस भक्षण की दुष्प्रवृत्ति ने उसे हिंस्र जन्तु बना दिया है।

संक्षेप में, हमारा आज का समाज अजब प्रकार का स्वार्थी मतलबी, एक दूसरे की हड्डियों पर चढ़कर ऊँचा उठने वाला समाज बन गया है। चोर, बदमाश, कमजोर, धोखेबाज और झूठे व्यक्ति एक दूसरे को धोखा देने में इन्सानियत समझते हैं। जिसके माल हाथ लगा, जो रिश्वत या घूस मिली उसी को हड़प करने में, बाहरी लिफाफा बनाये रखने में मनुष्य अपने को होशियार समझता है।

एक विद्वान ने लिखा है, “आज की दुनिया में हर एक दाँव पैसे पर, माल पर और साँसारिक चीजों पर लगाया जा रहा है। रिश्ते रिश्ते में चालाकी चल पड़ी है। जिसने सहृदयता से सहायता की, वह बेवकूफ समझा जाता है और पूर्ण स्वार्थी, छोटे दायरे वाले आज अपने को होशियार और चालाक समझने लगे हैं। मनुष्यता की कोई कीमत नहीं। एक दूसरे का मूल्य आँकता है पैसे से, देने लेने से। जिसके पास कुछ नहीं, वह भूखों मरे, और उसके पास यदि जायदाद है, तो आपको बहुत खुशामदी मिल जायेंगे। किसी युवती के पास सौंदर्य है, तो लक्ष्मी उसके पैरों पर लौटेगी। साधन और ताकत जिसके हाथ में आ गये हैं, वे सब कुछ हैं। यह सारा ढांचा पूँजीवादी समाज की चोर बाजारी है।”

जो खूब काम करते हैं रात दिन परिश्रम के कारण आराम नहीं करते, वे भरपेट भोजन भी नहीं पाते हैं। बड़ी बड़ी फैक्टिरियों मिलों, कारखानों को चलाने वालों को केवल जीने मात्र का अधिकार है। सारा लाभ पूँजीपति या साहूकार के पास चला जाता है। किसान, मजदूर, श्रमिक अपने रक्त के बिन्दुओं से पूँजीपतियों को समृद्धिशाली बना रहे हैं।

श्री नरसिंह चन्द जोशी लिखते हैं, ‘वास्तव में चोर तो ये तथाकथित साहूकार, ये पूँजीपति, ये साधन सम्पन्न, ये सरकारी अफसर ये मिनिस्टर ही हैं। ये सारे चोर हैं, जो स्वयं काम नहीं करते, दूसरों के काम पर गुलछर्रे उड़ाते हैं ऐश आराम करते हैं, शराब पीते हैं, रईसों के बच्चे बने घूमते हैं। इनके लाल लाल शरीर में हमारे शहीदों का खून है, हमारे हजारों लाखों गरीब मजदूरों और किसानों का खून भरा है, ये हमारा श्रम चुकाते हैं, हमारा मेहनत हड़प लेते हैं। हमारे गरीब भाइयों की हड्डियों पर इनकी यह चकाचौंध कर देने वाली सुख समृद्धि की इमारत खड़ी है।”

-कुलटा स्त्री, जिस प्रकार माँ बाप भाई बहिन इत्यादि के बीच रह कर शरीर से घर का सब काम धन्धा करती है, पर उनका मन अपने यार पर लगा रहता है, उसी प्रकार हे मनुष्यों! तुम भी परिवार के बीच में काम काज करते हुये अपने मन को ईश्वर में लगाओ।

-बच्चा कितने ही बार गिरता और फिर उठता है, तब धीरे-धीरे खड़ा होना सीखता है। वैसे ही साधन में गिरना-उठना होता है, उससे घबड़ाना नहीं चाहिए, समय आने पर साधन ठीक हो जाता है।


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