क्या यही इंसानियत है।

January 1953

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हमारे समाज में मानवता की हत्या कितनी पुनिर्भयता से ही रही है, इसके अनेक उदाहरण एकत्रित किये जा सकते हैं। कहीं आर्थिक यंत्रणाएं है, तो कहीं धर्म, जाति, वर्ण की संकुचिता अपनी चक्की में हमें पीसे जा रही है। कहीं पारिवारिक समस्याएँ मुँह बाँधे खड़ी हैं तो कहीं समाज की रूढ़ियां, राजनैतिक पार्टी बन्दी, धर्मान्धता, मूढ़ता, अशिक्षा, भयानक ताण्डव नृत्य कर रहीं हैं। समाज और जाति के बन्धनों में पिस कर, न जाने कितने व्यक्ति प्राण, रक्त, आँसू, सतीत्व, तारुण्य, और धन की बलि देकर, कुसंस्कार गत संकीर्णता के दुष्परिणाम सहन कर रहे हैं। श्री कृष्ण कुमार विश्नोई ने सामाजिक जीवन की कटु यथार्थता के कुछ उदाहरण इस प्रकार उपस्थित किये हैं, देखिए इनमें अक्षरशः सत्यता है-

मानव घड़ों से बदतर दशा में -

“जेठ की तपती दोपहर में जब कुपित सूर्य देव वसुंधरा पर भीष्म अग्नि की वर्षा करते हैं, तो तार कोल की सड़कें रिक्शे के पहिये को आगे बढ़ने ही नहीं देतीं। अपने शरीर पर बहती हुई पसीने की उन छोटी छोटी नालियों को रिक्शे वाला लू से तपती देह को तनिक ठंडा करने का उपकरण कह कर एक सूखी हँसी हँस देता है। शुष्क होठों पर बारबार जीभ फिराते फिराते बेचारे की जीभ में भी काँटे चुभने लगते हैं। फिर भी वह बहे ही जाता है, पापी पेट की अग्नि को शान्त करने के लिए, अपने नन्हें बच्चों को दो सूखी रोटियाँ जुटाने के लिए। कोठी पर पहुँच कर बाबू साहिब उसकी ओर एक दुअत्री फेंककर बिजली के पंखे के नीचे जा बैठते हैं। खड़ा खड़ा क्षण भर टकटकी लगाये जब रिक्शेवाला धूल में पड़ी हुई इस दुअन्नी की ओर देखकर ठण्डी आहें भरता है, तो हृदय कह उठता है, “क्या यही है हमारी मानवता।”

पत्थर तोड़ने वाले ये दीन मजदूर -

नमक की दो सूखी रोटी मैले कपड़े में बाँध कर दुधमुँहे बच्चे को गोद में लेकर एक मजदूरिन सवेरे ही पत्थर तोड़ने चल देती है। पत्थर तोड़ते तोड़ते जब थक जाती है, तो पेड़ की छाँह में विश्राम करके फिर काम में जुट जाती है। दिन भर ठेकेदार की झिड़कियाँ सहती है, कारीगर और दूसरे मजदूरों की कामुक दृष्टि से कितनी बार अपना मुख छिपाती है। थकावट से चूर धीरे धीरे चल कर घर पहुँचने पर, उसका मद्यप पति देर से लौटने के कारण अनेकों गालियाँ देकर जब उसकी पीठ पर दो दंड़ जड़ देता है, तो उसकी कराहें पूछती हैं, “क्या यही इन्सानियत है?”

सिनेमा का पागलपन -

सिनेमा हाल के बाहर सड़क के एक ओर पड़े हुए कोढ़ी की ओर, जिसके हाथ पैर गल गये हैं, आँखें नष्ट हो चुकी हैं कितने ही मानव बिना देखे चले जाते हैं। कुछ लोग देखकर भी नहीं देखते। उस मृत प्राय व्यक्ति को देखकर उनके मन में दया या ग्लानि उत्पन्न नहीं होती। उसके लाख चिल्लाने पर मेम साहब को अनमने होकर उसकी ओर भी देखना होता है पर कार में से उतर कर साहब के हाथ डालकर बिना सोचे समझे ही, ‘कुछ काम क्यों नहीं करता ?’-ऐसा कहकर जब वह सिनेमा हाल में घुस जाती है, तो हृदय कह उठता है,”क्या यही है मानवता?”

चलती फिरती कब्रें-

समाज की कठोर श्रृंखलाओं में बद्ध मर्यादा के नाम पर तिल तिल जलने वाली बाल विधवा, न जाने कितने जन्मों का अभिशाप और सन्ताप हृदय में पाले हुए, मृत्यु की प्रतीक्षा करती रहती हैं। वैवाहिक जीवन की वास्तविकता से शून्य जीवन के प्रथम चरण में ही जिसका सब कुछ लुट गया हो, उसके लिए संसार ही एक विडम्बना हो सकता है। पर स्त्री होने के नाते किसी सुन्दर बच्चे को गोद में लेकर चूमने की उसकी लालसा स्वाभाविक ही है। “तुम विधवा हो”-ऐसा कह कर, अज्ञात अनिष्ट की आशंका से जब सौभाग्यवती स्त्री उसकी गोद से अपना बच्चा छीन कर कितने ही कटु प्रहार कर डालती हैं, तो हृदय कह उठता है, “क्या यही है मानवता?”

इसके अतिरिक्त अन्य बहुत से उदाहरण हमारे आधुनिक जीवन से दिये जा सकते हैं। हमारे डॉक्टर और वकीलों द्वारा समाज में कैसा दुर्व्यवहार किया जाता है, यह प्रायः प्रत्येक आधुनिक व्यक्ति जानता है। मरीज पड़ा है, पीड़ा से कराह रहा है, स्त्री प्रसूत गृह में पड़ी वेदनाओं से पीड़ित है, और उन्हें अपनी फीस चाहिए। वे मरीज के बचने की कोई परवाह नहीं करते, उन्हें रुपया चाहिए। उनका ईमान, चिकित्सा, दौड़ धूप चाँदी के कुछ टुकड़ों पर घूमता रहता है। वकील बजाय पारस्परिक सद्भाव, शान्ति, प्रेम, न्याय उत्पन्न करने के लोगों को लड़ाने, मुकदमेबाजी कराने, रुपए ऐंठने, तिल का ताड़ बनाने, कलह, फूट पैदा करने में विशेष दिलचस्पी लेते हैं। निरन्तर मुकदमों, फौजदारी के केसों के फैलाने में लोगों को उकसाकर लड़ाने, झगड़ा कराने में वकीलों का विशेष हाथ रहता है। मुकदमेबाजी आधुनिक सभ्यता का एक महा रोग है।

गुलामी अब भी पनप रही है।

भंगियों और नौकरों से हमारा आज भी वैसा ही नीचता पूर्ण अशिष्ट असभ्य व्यवहार रहता है, जैसा बर्बर युग में गुलामों से रहता था। बीमारी, गरीबी, भूख प्यास, घर तथा कर्ज की अदायगी से ग्रसित नौकर हमारे सम्मुख अपनी आवश्यकताएँ कहता डरता है। हमें अपना स्वार्थ है, हम अपने आराम में बाधा नहीं डालते। नौकर बीमार है, दवाई के लिए उसके पास पैसा नहीं है, इधर हम बीमारी के दिनों का वेतन काटने की फिक्र में हैं। वह घर में पड़ा पड़ा कराह रहा है कुछ रुपये चिकित्सा में व्यय करने से सम्भव है, वह ठीक हो जाय, पर हमें अपने काम से काम! वह फटे वस्त्र जाड़े में काँप रहा है, उधर हम गर्म कोट पतलून, स्वेटर पहिने आग ताप रहे हैं और मेवा खाते जा रहे हैं। क्या यही है मानवता!

पापी पेट के लिए-

यह राशन की दुकान है। भूखी, गरीब जनता, अधनंगे मजदूर, फटे हाल क्लर्क, नीची प्रकार के व्यक्तियों की भीड़ की भीड़ खड़ी हुई है। सबके नेत्र अनाज पर लगे हैं। और कैसा अनाज? जो आधा घुना हुआ है, जिसमें छोटे छोटे कीटाणु चल फिर रहे हैं, मिट्टी मिली हुई है, बदबू आ रही है उन्हें यही चाहिए। इसके लिए छीना झपटी है, कशमकश है और एड़ी चोटी का पसीना एक हो गया है। इसी के लिए उन्हें कन्ट्रोल अफसरों की झिड़कियाँ तथा दुकानदार के नाज नखरे सहने पड़ते हैं। घण्टे घण्टे भर में सारे दिन की मजदूरी छोड़कर यह अनाज उन्हें प्राप्त हुआ है। ऊँचा दाम, समय की बरबादी, धक्का मुक्की, झिड़कियाँ, धूप पसीना और इस पर बदबूदार अनाज बीमारियों का घर। यही है हमारी मानवता?

पुलिस की तानाशाही जिन्दाबाद!

यह रेल के टिकटघर की खिड़की है मुसाफिरों की भीड़भाड़ चिल्लपों ऊपर से सिपाही की डाट फटकार बेइज्जती और रिश्वत! चुपचाप सिपाही देवता अनाज टैक्स वसूल कर रहे हैं। यह है हमारी सचाई और नैतिकता।

ऊँचे से ऊँचा किराया देकर आप किसी प्रकार मकान किराये से लेते हैं। पगड़ी का इन्तजाम आपने किसी प्रकार कर लिया है लेकिन उससे क्या? प्रति मास नई नई फरमाइशें को हमें पूरी करने, किराया बढ़ाने के आदेश, मकान खाली कर देने की धमकी के लिये तैयार रहिए।

रेल का सफर एक विडंबना -

यह रेल का डिब्बा है। खचाखच मुसाफिर भरे हुए हैं। लेकिन अधिकाधिक आते जाते हैं। यह लीजिए यह कसे हुए ट्रंक की तरह भर गया। साँस नहीं आती, पेशाब के लिए जाना कठिन है। लोग बिखरे पड़े हैं, उनका असबाब यत्र तत्र पड़ा है। टी0 टी0 आता है और चार मुसाफिर दरवाजा खोलकर और ठूँस जाता है। आपके आराम, सुविधा, हवा, बैठने उठने उतरने की किसी को परवाह नहीं है। इतने में प्लेटफार्म पर एक वृद्ध आता है। उसके सिर पर एक गठरी है। वह सतृष्ण नेत्रों से प्लेटफार्म पर इधर उधर फिर रहा है कि किसी प्रकार किसी डिब्बे में चढ़ सके। सब जगह धकापेल है। किसे फुरसत है कि इस वृद्ध की सहायता करे। अपनी सम्पूर्ण शक्ति संचित करता है। वह अपनी गठरी इस आशा से फेंक देता है कि सम्भवतः कोई दया कर उसे घुसने देगा!.... लेकिन यह क्या? उस पर तो गालियों की बौछार पड़ रही है। वह चर्म मण्डित खोपड़ी अन्दर धकेल रहा है। युवकों की आँखें अग्नि बरसा रही हैं। व्याम, ताने गालियों का असर न देखकर एक मानव शरीर धारी राक्षस आकर उसे निर्दयता से धकेल देता है। दूसरे ही क्षण वृद्ध की गठरी बाहर फेंक दी जाती है और सूखे वृक्ष की भाँति धम्य से गिर पड़ता है। क्या यही हमारी इन्सानियत है?

कोतवाली और जेला के अत्याचार-

यह शहर की पुलिस कोतवाली है। आधी रात हो चुकी है किन्तु कोतवाली से यह मार पीट जूतों की फटकार, गालियों की बौछार सुन पड़ती है। कोई कैदी जूतों, लात, घूसों से पीटा जा रहा है। जैसे किसी दिन दूध ने देने वाली भैंस, गाय या कुत्ते को पीटते हैं, सुअर पर लकड़ी चला देते हैं, वैसे ही कोतवाली में अनेक व्यक्तियों को केवल शकसूबे में मार पीट कर सच झूँठ बातों को मंजूर करा लिया जाता है। पुलिस चाहे जिसका तिरस्कार, मानहानि, मारपीट कर सकती है। पशु की तरह चाहे जिसे पीट सकती है। आधी रात में कोतवाली के तहखानों में पिटने वाले मानव प्राणियों की चीत्कार कौन सुनता है।

जेल अथवा कारावास इसलिए है कि अपराधी प्रायश्चित करे, पाक साफ हो, समाज में रहने योग्य अच्छा नागरिक बने। लेकिन हमारी जेलों में आचरण सुधरने के बजाय और भ्रष्ट होता है। कैदी, चोर, डाकू और कातिल बन कर निकलते हैं। मामूली अपराधों या शकसूबे में अनेक गरीब जेलों में ठूँस दिये जाते हैं। उनके साथ जेल में अमाननीय व्यवहार किया जाता है हमारे कारावास नरकवास से क्या कम हैं? अपने कैदियों से, जो अपराधी होकर भी आखिर मनुष्य हैं, हम मनुष्योचित व्यवहार करना सब सीखेंगे?

विद्यार्थियों की यह उद्दंडता -

विद्यार्थियों की उदण्डता के उदाहरण हमारे सामाजिक जीवन का एक कलंक बन गए हैं। आज का विद्यार्थी अनुशासन हीन लापरवाह, फैशनपरस्त, सिगरेट पान, सिनेमा को प्रेमी, खर्चीली आदतों का होता है। अध्ययन के प्रति उसे कोई दिलचस्पी नहीं होती है। वह किसी का कहना नहीं मानना चाहता, सदाचार की शिक्षा के नाम से दूर भागता है।

विद्यार्थी अनुशासन अपने हाथ में लेना चाहते हैं। डा. कन्हैयालाल गर्ग प्रिंसिपल अलीगढ़ कालेज से जब घर लौट रहे थे, तो विद्यार्थियों ने सामूहिक रूप से उन पर आक्रमण कर दिया और उनकी अमानुषिक हत्या कर डाली। क्या यही मानवता है?

महमूद कालेज, सिकन्दराबाद के प्रिंसिपल की पत्थरों से मरम्मत करके अधमरा कर उन्हें कत्ल की धमकी उन विद्यार्थियों द्वारा दी गई जो परीक्षा में फेल हुए थे। कलकत्ता मैट्रिक का एक विद्यार्थी, जिसे नकल करने के अपराध में परीक्षा भवन से निकाल दिया था, उसने उस 60 वर्षीय वृद्ध मुख्य निरीक्षण को सख्त चोट पहुँचाई, इंटरकालेज, इटावा के अध्यापक सद्दीकी के सिर में गहरी चोट उस विद्यार्थी ने लगाई, जो दूसरे उच्च कक्षा के विद्यार्थी से अनुचित सहायता ले रहा था।

अमृतसर विद्यार्थी फेडरेशन के पन्द्रह सदस्यों को तीन वर्ष के कठोर कारावास का दण्ड इसलिए दिया गया कि उन्होंने पुलिस के अधिकारियों पर घातक शस्त्रों से आक्रमण किये काँग्रेस भवन को लूटा तथा अन्य ऐसे ही दुस्साहसपूर्ण काम दिखाए। उस देश के भविष्य का आप सहज ही अनुमान कर सकते हैं जहाँ के विद्यार्थी लूट मार, हत्या, डाके, मारपीट, हमले, अनैतिकता से परिपूर्ण हों। यह देश का दुर्भाग्य है कि यह अनैतिकता उत्तरोत्तर वृद्धि पर है।

उपरोक्त उदाहरणों के अतिरिक्त सैंकड़ों के ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं, जिनमें मानवता का ह्रास हुआ है, और निरंतर होता जा रहा है। गत वर्षों में जब भारत विभाजन हुआ, तो देश में, पशुता, दानवता, प्रतिशोध, हत्या, व्यभिचार, लूटमार, मारकाट का एक बर्बर तूफान देखने में आया। विभाजन के सम्बन्ध में हिन्दुस्तान-पाकिस्तान में दानवता का भयावह नृत्य हुआ उसे देख कर दाँतों तले उंगली दबानी पड़ती है।

भारत विभाजन सम्बन्धी मारकाट-

कलकत्ता, नौआखाली, पूर्वी बंगाल, पंजाब के झगड़ों की तह में जाइए तो आपको मनुष्य की बर्बरता, हत्या, लूट, निर्ममता, पैशाचिकता, भयंकरता, व्यभिचार, औरतों को बेआबरु करने के असंख्य उदाहरण प्राप्त हो जाएंगे। करोड़ों हिन्दू मर्द औरतें और बच्चे बर्बरता के शिकार बने, नंगी स्त्रियों के जुलूस निकाले गए, बच्चों को भून डाला गया, अपहृत स्त्रियाँ सड़ा सड़ाकर वेश्या का पेशा स्वीकार करने के लिए विवश की गई । रुपये, जायदाद, अन्न, वस्त्रों की हानि अरबों तक पहुँची। श्री राधानाथ चतुर्वेदी ने “आज” में एक वक्तव्य प्रकाशित किया था। उसे हम यहाँ उद्धृत करते हैं ः-

“मैं पाँच सौ मील से चला आ रहा हूँ बाबू। मेरे बच्चे भूखों मर जाएंगे। मुझे छोड़....” और दस लाठियों ने उसकी कपार क्रिया कर दी..... हम लोग 40-50 मील की गति से भाग रहे थे उस समय जले हुए आदमियों के ढेर, नालियों में फेंकी गई औरतों बच्चों की लाशें, स्त्री, बच्चे और वृद्धों की नंगी अधनंगी लाशें और रक्त के पनाले छाया चित्र की भांति आँखों के सामने से गुजर रहे थे अभी देखा गया कि एक इमारत में जिसमें 3-4 हजार आदमी रहते थे, आग लगा दी गई। करतूत मुसलमानों की थी, किन्तु कलकत्ते का यह दृश्य इस बात का साक्षी है कि हिंदुओं को दया का डंका पीटने का अधिकार नहीं रहा और मुसलमान पवित्र इस्लाम धर्म के सदस्य नहीं रहे।”

समाज का कोढ़ -

वर्तमान काल में मठ, मन्दिरों, धर्मशालाओं का पवित्र उद्देश्य प्रायः लुप्त हो गया है, पुजारी, मठाधिकारी, साधु का स्वाँग पहिनने वाले ढोंगी, दुराचारी मन्दिरों जैसी पवित्र जगह भी घृणित एवं कुत्सित कार्यों में प्रवृत्त हो गये हैं। उनमें, कपट, झूँठ, वासना लोलुपता, गुप्त व्यभिचार, पापमय दृष्टि की निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। उनको रोकने वाला कौन है? उनकी पाप लीला देखकर भी जनता अन्धपरम्परा, रूढ़िवादिता, अज्ञान, कुतर्क, अशिक्षा, मूर्खता का पालन करती हुई उन्हें गुरु बना रही है।

देश में 60-62 लाख साधु हैं, जो देश का भोजन नष्ट कर निज स्वार्थ सिद्धि करते, समाज में अनैतिकता, दुष्कर्म बढ़ाते और शराब, गाँजा, भाँग, चरस, अफीम, सिनेमा, चोरी, धूर्तता, वेश्यागमन में लीन रहते हैं। आए दिन इन ढोंगी पाखंडी साधुओं द्वारा गन्दे कार्य होते रहते हैं। साधु के बाने में चोर आसानी से अपने को छुपा लेते हैं। अनेक स्थानों पर साधु लोग स्त्रियों को बहकाकर भगाते हुए, बलात्कार करते हुए, जेब कतरते हुए या चोरी कराते हुए पकड़े जा चुके हैं।

अखिल भारतीय संन्यासी परिषद के प्रधान मंत्री स्वामी प्रणव तीर्थ और महा गुजरात साधु संघ के मंत्री स्वामी नियानन्द ने पिछले दिनों सरकार से अनुरोध किया कि वह साधुओं को बेकारों या अनुत्पादक लोगों की श्रेणी में रखे, साधुओं के सम्बन्ध में आम जनता में फैले भ्रम का उल्लेख कर उन्होंने कहा कि असली साधु तो पचास हजार के लगभग ही हैं, जो सच्चे उपदेशक और मार्गदर्शक हैं। तीन मास की जाँच के पश्चात यू. पी. की खुफिया पुलिस ने पता लगाया है कि किस प्रकार एक महन्त एक गिरोह द्वारा रेलगाड़ियों को गिरवाकर यात्रियों को लूटने का पेशा करता है। इस बीभत्स कार्य के सामने उनके द्वारा घटों, जंगलों, मन्दिरों, मठों आदि में होने वाला अनाचार फीका पड़ जाता है।

धर्मशालाओं को किराये के होटल सरीखा बना दिया गया है। नए मुसाफिर को प्रायः पहले सबसे गन्दा बदबूदार कमरा दिया जाता है। फिर पैसे देने पर अधिक अच्छे कमरे में बदल दिया जाता है। आश्चर्य तो यह है कि जहाँ कठिनता से तीन चार दिन मुसाफिर रह सकता है चुपचाप किराया देने पर वर्षों निकल जाते हैं। अनेक स्थानों पर धर्मशालाएं व्यभिचार एवं जुए के अड्डे हो गए हैं। थोड़े से पैसों के लोभ से धर्मशाला के रक्षक बड़ा बड़ा पाप करने को उद्यत हो जाते हैं। पैसे से आज सब कुछ खरीदा जा सकता है। पैसे से आज सब कुछ खरीदा जा सकता है-पूजा, पाठ, जप, तप, जन्म पत्री मिलान, धर्म। यह है हमारी इन्सानियत!


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