धर्म के नाम पर मानवता का पतन

January 1953

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धर्म अत्यन्त पवित्र मानवीय आत्माभिव्यक्ति है। धर्म की उत्पत्ति मानवता के कल्याण से जुड़ी हुई है। संसार के सब ज्ञान, अनुभव, नैतिक प्रगति का नवनीत धर्म ही है। सच्ची धर्म भावना से मानव मात्र का कल्याण होता है, किन्तु हम देखते हैं, आज के युग में धर्म की आड़ में धर्मान्धता का प्रचार हो रहा है, साम्प्रदायिकता का जाल बिछता जा रहा है, धार्मिक संस्थाओं में आडम्बर भोग विलास तथा बाह्य प्रदर्शन बढ़ते जा रहे हैं। झूठे सार हीन धर्म विश्वास, रूढ़ियां, कट्टरता, धर्मान्धता, अज्ञान पारस्परिक विद्वेष फैला रहे है। मठ मन्दिरों जिनकी जिन पवित्र सेवा, त्याग, निस्वार्थ, भावना के उच्च उद्देश्यों के लिए स्थापना की गई थी, वे समय की गति से विलुप्त हो गए हैं।

एक युग था जब मन्दिर का पुजारी ज्ञानी, सुशिक्षित, सच्चरित्र, उपदेश देने तथा तदनुकूल आचरण करने वाला संयमी व्यक्ति होता था। भजन पूजन, कीर्तन, सदग्रन्थावलोकन मन्दिर की देख रेख मूर्ति को स्नान कराना, मन्दिर में यज्ञ इत्यादि की देख भाल उसका कार्यक्रम था। समय बदला और भगवान की सेवा में भी धोखे-बाजी चल निकली है।

आज मन्दिरों का प्रसाद दुकानों पर आकर पैसों से बिकता है। उनमें से नफा कमाया जाता है। कहने को यह भगवान का प्रसाद है, पर उसे चखने के लिए गाँठ में रुपया चाहिए। जिस देश में भगवान का ट्रेड मार्क लगा कर रद्द, दुर्गंधमय, सड़ी बसी मिठाइयाँ बेची जाएं, पूजा बिना रुपये पैसे न हो सके, पुजारी और महन्त दिन भर गाँजा तम्बाकू, भाँग, अफीम तथा अन्य नशीली वस्तुओं का सेवन कर रात्रि के अन्धकार में परस्त्री भोग डकैती और खून तक करते रहें, और जनता दकियानूसी विचारों व अन्ध विश्वासों में पड़ी रहे, उसका भविष्य क्या होगा?

धर्मशालाओं में आज मुसाफिर को जो कष्ट होते हैं, जैसी गन्दगी भ्रष्टाचार स्वार्थ और चौकीदार का एक छत्र राज होता है, यह प्रत्येक यात्री जानता है। रिश्वत में कुछ न कुछ देते रहने से आप अच्छा कमरा प्राप्त कर सकते हैं अन्यथा आपका निकृष्ट तथा दुर्गंधमय अंधेरे कमरे से सन्तोष करना पड़ेगा। धर्मशालाओं में शौचादि का स्थान ऐसा गन्दा रहता है, कि मानव की गन्दगी और कुरूपता पर दया आती है।

दिखावे का धर्मः-

आज का धर्म दिखावे का धर्म है। दिन भर व्रत रखने वाले भगवान का नाम लेने, भजन पूजन करने दान देने, सद्ग्रन्थों का पठन पाठन करने या मौन धारण करने के स्थान पर गालियाँ देते रहते हैं, व्रत रखने वाले दुकानदार कम तोलने, काला बाजार करने, झूठ बोलने, ग्राहक को ठगने में लगे रहते हैं। कहने को व्रत उपवास से हैं, शाम को मन्दिर में पूजन दर्शन के लिए भी जाएंगे किन्तु कम तोलना, झूठी बातें करना, व्यर्थ की खुशामद, काला बाजारी नहीं छोड़ेंगे। यह है, आज का झूठा दिखावे का धर्म।

दिन-रात अपशब्दों का उच्चारण करने, लड़ने झगड़ने, मारने पीटने, गुस्सा रहने वाली कर्कशा स्त्रियाँ अपने आपको धर्म का ठेकेदार समझती हैं। जो स्त्रियाँ पढ़ना नहीं जानतीं, या अक्षर ज्ञान मात्र लेकर रामायण, गीता महाभारत में चिपकी रहती हैं, वे अपने को धर्म का दावेदार मान बैठी हैं। जो हफ्ते में एक बार गंगा या जमुना में स्नान कर लेती हैं, वे अपने को पवित्र मानती हैं। जिन्हें सारहीन धार्मिक विश्वासों ने अकर्मण्य और कूप मंडूक बना दिया है, जो दिन-रात बहुओं पर नृशंस अत्याचार करती हैं, उन्हें स्वयं पीटती या पति से पिटवाती हैं, वे अज्ञानी अपने पाप को धर्म के आवरण में छिपाने का प्रयत्न करती हैं। बड़े-2 पूँजीपति रात-दिन काला बाजार कर जनता को लूट मार धोखा देकर खूब रुपया ऐंठते हैं। फिर परमेश्वर को रिझाने और पाप धोने के लिए गंगा स्नान, यात्रा, दान का स्वाँग बनाते हैं।

‘धर्म’ मनुष्य जीवन की प्रधान आवश्यकता है। पूजा और उपासना से मनुष्य का अन्तःकरण निर्मल होता है और आत्म बल बढ़ने से आत्मा सच्चे सुख एवं शान्ति की ओर अग्रसर होता हे। आज धर्म एवं उपासना के नाम पर केवल कुछ रूढ़ियां प्रचलित रह गई हैं। इसमें सुधार होना मनुष्यता की रक्षा के लिए अत्यन्त आवश्यक है। धार्मिक विश्वास हमारे प्रत्येक कार्य और विचार ओत प्रोत होना चाहिए। जीवन की गतिविधि साधनामय होनी चाहिए। पूजा उपासना से लेकर दैनिक जीवन के सामान्य कार्य तक साधनामय हों तभी हम सच्चे साधक एवं ईश्वर विश्वासी बन सकते हैं।


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