नैतिकता का इतना नीचा स्तर कभी नहीं देखा गया।

January 1953

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इतिहास में कोई युग ऐसा नहीं हुआ जब नैतिकता का स्तर इतना नीचा रहा हो। नैतिक पतन इतना गहरा अद्भुत एवं व्यापक है कि देखकर आश्चर्य होता है। यूरोप अमेरिका की ओर देखिए। अमेरिका में सरकारी आँकड़े बताते हैं कि 1948 से वहाँ पर हर 18 सेकिंड में एक संगीन अपराध हुआ, हर दिन 36 हत्याएं हुई और 255 स्त्रियों के साथ बलात्कार किया गया। डाइसन कार्टर ने हिसाब लगाया है कि 12-13 करोड़ की आबादी के इस देश में प्रतिमास 5 करोड़ कहानियाँ व्यभिचार की हो जाती हैं। डा. टर्नर ने लिखा है “1960 तक अमेरिका की अविवाहित तरुणियों में कौमार्य जैसी वस्तु का नाम नहीं रह जायगा। दस वर्षों में अमेरिका में नैतिकता का धरातल इतना नीचा हो जायगा जितना कि इतिहास में कभी नहीं देखा गया। अमेरिका में हर वर्ष कम से कम तीस हजार बच्चे ऐसे होते हैं, जो जन्म से ही गर्मी की बीमारी साथ लेते हैं। अपने माता पिता की यौन स्वच्छंदता का मूल्य अपने सारे जीवन उन्हें घुल घुलकर चुकाना पड़ता है। इसका दूसरा परिणाम होता है गर्भ में ही या जन्मते ही लाखों शिशुओं की प्रति वर्ष हत्या। अपराधों की संख्या निरन्तर अभिवृद्धि पर है। मदिरा बेचने, वेश्या वृत्ति करने, जुए के अड्डे चलाने, हब्शियों को घेरकर मारने, मजदूरों की हड़तालें तोड़ने, विरोधियों की हत्याएं करने, दंगे कराने और लड़ाइयों तक के कारनामे इन अपराधों में शामिल हैं।

भारत में व्यसन व्यभिचार, शराब खोरी, सिगरेट, तम्बाकू इत्यादि का प्रयोग निरन्तर होते हुए सामाजिक पतन का द्योतक है। भोग विलास बलात्कारों, चोरी डकैतियों, वेश्यालयों, यौन अनैतिकता, शिशु हत्याओं, आत्म हत्याओं से होने वाले अपराधों की संख्या निरन्तर बढ़ती गई है। मठों मन्दिरों में अनैतिकता भ्रष्टाचार, धोखेबाजी का राज्य है। साधु महात्माओं के वेश में दुराचारी लोग जनता को ठग रहे हैं। मठों से भी गयी बीती दयनीय अवस्था अखाड़ों की है। साथ ही, जटा बढ़ाये हुए इधर उधर गुँडापन करने वाले, मादक वस्तुओं का सेवन करने वाले, ग्रामीण जनता से तथा मठों से धमकियाँ देकर चम्मच, संडासा पटक कर, अश्लील वाक्यों की झड़ी लगाकर द्रव्य ऐंठने वाले साधु नामधारी व्यक्तियों को देखकर मानवता के भीषण पतन का अनुमान सहज ही लग सकता है।

जुर्म, डकैती, और दंगे-

हमारे देश में जुर्मों की संख्या किस तेजी से बढ़ रही है, इसका अनुमान पुलिस की नाना रिपोर्टों को देखने से होता है। यहाँ गत वर्ष के एक प्रान्त (पंजाब) के कुछ आँकड़े प्रकाशित किये जाते हैं, जिनसे देश में बढ़ते हुए जुर्मों का सहज ही अनुमान हो सकता है-

अप्रैल 1950 से अप्रैल 1951 से

मार्च 1951 तक मार्च 1952 तक

कत्ल 581 585

डकैतियाँ 81 62

राहजनी की घटनाएं 524 502

दंगे 278 303

चोरियाँ 6624 6804

आवकारी अधिनियम 5191 9626

शस्त्र अधिनियम 3023 3210

18322610

जुर्मों की कुल रिपोर्टें 3583 38501

उपर्युक्त रिपोर्टों से स्पष्ट होता है कि 1951-52 में जुर्मों की संख्या 1950-51 की अपेक्षा कही अधिक है। इसी अनुपात पर आप मोटे रूप से तमाम प्रान्तों के भयंकर जुर्मों का अनुमान लगा सकते हैं। पिछले वर्षों में पुलिस और अराजक तत्वों की सशस्त्र मुठभेड़ हुई है। अनेक खतरनाक डाकू गोली के शिकार हुए हैं। रेलों पर भी जुर्मों, कत्ल, डकैतियों, चोरियों गुँडों और मुसाफिर खानों में जेब कतारों की संख्या में वृद्धि हुई है। कलकत्ते में छः महीनों में चोरी एवं डकैतियों की 4767 घटनाएँ हुई हैं। कलकत्ता इस वर्ष के प्रथम 6 महीनों में चोरी, डकैती, जेब कटी, गहना चोरी की इतना संख्या मानवता के लिए कलंक स्वरूप है। गत वर्ष इस प्रकार की कुल घटनाएं मिला कर 5300 घटनाएं हुई थीं। 1952 के जनवरी मास से जून मास तक कलकत्ता में डकैती की 24 घटनाएं हुई। गत वर्ष प्रथम छः महीनों में 59 डकैतियां कलकत्ता में हुई थीं। इस वर्ष के पूर्वार्द्ध में चोरी की 744 घटनाएं पुलिस को ज्ञात हुई। बच्चों के शरीर पर से जेवर चुराने की घटनाओं में इस बार वृद्धि हुई है। गत वर्ष के पूर्वार्द्ध में ऐसी कुल 36 घटनाएं ऐसी हुई थीं जब कि इस वर्ष के 38 घटनाएँ हुई। गिरहकटी की कुल 313 घटनाएं इस अवधि में पुलिस के पास आयीं। आज जिधर देखिए, ऐसी घटनाओं का बोलबाला है। राजस्थान, बंगाल, बिहार का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इन प्रदेशों में लूट पाट हत्या और डाकेजनी व्याप्त है।

नई दिल्ली 23 जून 1952 का समाचार है कि भारत सरकार के स्पेशल पुलिस विभाग ने गत वर्षों में भ्रष्टाचार के 1045 मामले हाथ में लिए जिनमें 2091 अभियुक्त साबित हुए। इनमें से 154 व्यक्ति अफसरी ग्रेड के थे। इस प्रकार इन मामलों में गजेटेडे अफसरों की संख्या का कुल अभियुक्तों के साथ अनुपात प्रायः 10 प्रतिशत रहा। सन् 1951 में जितने भ्रष्टाचार के मामले हाथ में लिए गए उनमें से 274 नये मामले थे। इनमें से 43 मामले आयात निर्यात कन्ट्रोल के अतिक्रमण और मुद्रा विनियम की चोटी से सम्बन्धित थे और 12 सप्लाइज के एक के अंतर्गत आते थे। शेष मामले घूस, गबन, ठगी आदि से सम्बंधित थे। इनमें से बहुत से मामले रेलवे विभाग से सम्बन्धित थे।

मनुष्यता का अभिशाप -

लज्जा की प्रतीक नारियों का नग्न प्रदर्शन, देश का विभाजन, पाकिस्तान का भीषण नर मेध, निर्दोष बच्चों का अंग विच्छेद तथा व्यभिचार निरंतर बढ़ते गये हैं। महायुद्धों में नर संहार जैसी ध्वंसात्मक लीलाएँ हैं, वे तो स्पष्ट हमारे सामने आ जाती हैं किन्तु इनसे भी भीषण लीला होती है मानव के नैतिक पतन की। पिछले वर्षों में नारी का नैतिक पतन किस बुरी तरह हुआ है, यह देखकर लज्जा से मस्तक झुका जाता है। व्यभिचार, भ्रष्टाचार, चोरबाजारी, वेश्या वृत्ति निरन्तर तेजी से बढ़ी है।

जापान में, वेश्यावृत्ति अर्थोपार्जन का एक प्रमुख व्यवसाय हो गया है। ऐसी वेश्याओं की संख्या 70/80 हजार है जिनसे 200,000,000 डालर उपार्जित होते हैं। कोरिया युद्ध द्वारा उपार्जित होने वाले डॉलरों के बाद उक्त व्यभिचार व्यवसाय का दूसरा स्थान है। बहुत सी अबोध जापानी बालिकाएँ वेश्या-वृत्ति अपना रही हैं। पत्रों में प्रकाशित आँकड़ों के अनुसार ऐसी स्त्रियों द्वारा उत्पन्न अवैध बच्चों की संख्या 200,000 है और इनमें से अधिकाँश परित्यक्त भी किए जा चुके हैं। मानवता का ऐसा अधःपतन किसी काल में नहीं देखा गया था।

दिल्ली की एक महिला कार्यकर्ता ने दिल्ली की स्त्रियों की नैतिकता का जाँच करने का प्रयत्न किया। वे अपनी रिपोर्ट में लिखती हैं-”दिल्ली में 1300 वेश्याएँ हैं, जिन 300 शरणार्थियों में से हैं। लेकिन दिल्ली में कोई सड़क या मोहल्ला ऐसा नहीं है, जहाँ कुटनखाने न चलते हों और वहाँ बहुत सी स्त्रियाँ जाती हैं कालेज में पढ़ने लिखने वाली लड़कियाँ भी कभी कभी वहाँ जाती हैं और अपना श्रृंगार का खर्चा निकाल लेती हैं।”

आज लोगों की नैतिकता ऐसी शिथिल हो गई है कि शरीफ लड़कियों माँ बहिनों को निकलना कठिन है। सायंकाल से ही ऐसे वासना लोलुप व्यक्ति सजीले कपड़े पहिन गले में हार डाल इत्र लगा पान खाते हुए निकल जाते हैं और हँसी दिल्लगी मजाक करने का बेहूदा प्रयत्न करते हैं। गुँडों के पंजे से इज्जत बचाना भी एक विषम समस्या बन गयी है। लड़कियों को भगा ले जाना, मजाक करना, पथ भ्रष्ट करना, अनुचित प्रेम का उद्योग करना, रोमांसवृत्ति आज कल की महा व्याधियाँ हैं।

अनर्थकारी सहशिक्षा

हमारे यहाँ अमेरिका इंग्लैंड के अनुकरण पर बालक बालिकाओं की सहशिक्षा की महाव्याधि फैल रही है। सहशिक्षा का इतिहास यह स्पष्ट करता है कि जहाँ जहाँ इसका प्रयोग हुआ है, नैतिकता सुरुचि और सत् प्रवृत्तियों की रक्षा नहीं हो सकी है। न्यूयार्क से निकलने वाले “हार्पर्स मैगज़ीन” में एक महाशय ने लिखा है-

“इस बात का पता लगाने के लिए कि हमारे कालेजों में पढ़ने वाली युवतियों में कितनी ऐसी हैं जिनके पास वह रहस्यमय वस्तु सुरक्षित है, जिसे कौमार्य कहते हैं, अमरीका के कुछ बहुत बड़े बड़े सम्भ्रान्त कालेजों में लड़कियों की गुप्त रूप से परीक्षा और गणना की गई तो मालूम हुआ कि कुमारी कन्याओं की संख्या असाधारण रूप से बहुत कम है। ऐसा प्रतीत हुआ कि अमेरिका ऐसी अविवाहिता लड़कियों से भरा पड़ा है, जिनको लोग 18 वर्ष की आयु के बाद या उससे पहले केवल सौजन्य से ही कुमारी कहते हैं।”

आधुनिक शिक्षित युवक युवतियों की उच्छृंखलता नैतिक और शारीरिक पतन, सिनेमा, प्रेम, काम-पिपासा, विकारमय मस्तिष्क, फैशन तथा सौंदर्य प्रदर्शन की अभिरुचि रोमाँस, विलासता-इस बात के प्रमाण हैं कि सहशिक्षा उन्हें किस गर्त में खींच रही है।

आधुनिक सभ्यता, जिसकी हम प्रशंसा करते नहीं थकते, वासनामय, विलासपूर्ण, चमक दमक, तामसिक वातावरण, गन्दे आमोद प्रमोद, दिखावटी रहन सहन की जननी है। यदि वासना का नग्न नृत्य देखना हो, यदि सामाजिक बन्धन तथा लाज शर्म को ताक में रखा देखना हो तो वह आज के फिल्म जगत में देखा जा सकता है। सिनेमा का जगत उच्छृंखलता का जीता जागता नमूना है।

गन्दे उत्तेजक साहित्य का यह तूफान!

विकारी उपन्यास, अश्लील खेल तमाशे, उत्तेजक साहित्य, श्रृंगारी वातावरण का जितना प्रचार आज कल है, इतना कभी नहीं रहा है। नाचने वाली, गाने वाली वेश्याएँ, विषयी गीत, अश्लील मूर्तियों का प्रचार चल रहा है। सबसे निकृष्ट उत्तेजक प्रभाव सिनेमा का है, जिसका कुत्सित प्रभाव हम आने वाली सीढ़ी पर देख रहे हैं। सिनेमा द्वारा समाज में कामुकता, वासना लोलुपता, गन्दगी, अश्लीलता, उन्मुक्त प्रेम इत्यादि को बढ़ावा दिया जा रहा है। छोटे छोटे बच्चे कामवासना के वशीभूत देखे जा रहे हैं। वे प्रायः ऐसी ऐसी गन्दी हरकतें करते हैं। जिनके समाचार पढ़कर मानवता कलंकित होती है। जितनी गन्दी हरकतों से आज सभ्य समाज कलंकित हो रहा है, उसमें से नब्बे प्रतिशत का उत्तरदायित्व अकेले सिनेमा की गन्दी, सारहीन, कामोत्तेजना, से परिपूर्ण फिल्मों पर है।

श्री राजेश्वरप्रसाद चतुर्वेदी ने ठीक ही कहा है-”सिनेमा द्वारा कामुकता का दो प्रकार से प्रचार होता है- एक गीतों एवं वार्तालाप द्वारा तथा दूसरे शारीरिक चेष्टाओं द्वारा। रेडियो द्वारा कामुकता का प्रचार प्रायः संगीत द्वारा होता है। संगीत के फरमाइशी रिकार्डों का इसमें विशेष स्थान है। गन्दे गानों को माँ बाप और बच्चे साथ साथ बैठकर सुनते हैं, मुग्ध होकर प्रोत्साहित करते हैं, तो बच्चों पर गन्दे संस्कार पड़ जाते हैं। अपरिपक्व अवस्था के ये गन्दे संस्कार प्रौढ़ावस्था की शिक्षा से और दृढ़ बन जाते हैं। इन गानों का बच्चे अनुकरण करते हैं। यह तो मार्ग ही उगती सीढ़ी को कामान्धता के गड्ढ़े में गिराने का है। कुत्सित वातावरण में पले हुए बालक बालिकाएं गलियों में आवारागर्दी भले ही कर लें उत्तरदायी नागरिक कभी न बन सकेंगे।

अश्लीलता का, कामान्ध गीत और बेहयाई का तूफान रेडियो पर बरस रहा है। वह मानवता का उपहास ही कहा जा सकता है। यदि फरमाइश करने वाले औचित्य का निर्णय नहीं कर पाते, कम से कम उत्तरदायित्व रखने वाले अधिकारियों को विवेक से काम लेना चाहिए।

भूख और गरीबी का यह ताँडव!

आज समाज में एक ओर लोग भूख से तड़प-2 कर मर रहे हैं, तो दूसरी ओर हजारों मन अनाज बनियों के भण्डारों खाइयों, दुकानों में ऊँचा भाव आने की प्रतीक्षा में सड़ गल कर बदबूदार बन रहा है। बेबसी, भूख और गरीबी का शिकार होकर विचित्र व्यवहार करने के वृत्तान्त पत्र में देखने में आते रहते हैं। कुछ उदाहरण देखिए-प्रथम केस युक्त प्रान्त के कानपुर जिले का है। कई दिनों पश्चात एक स्त्री ने तीन रोटियाँ बनाई। एक एक रोटी अपने दो बच्चों को खिला दीं और तीव्र भूख न सह सकने के कारण तीसरी रोटी उसने खुद खा ली। जब शाम को पति लौट कर आया और उसने देखा कि उसके लिए रोटी नहीं बची है, तो उसने गुस्से में आकर इतने जोर से पत्नी के पेट में लात मारी कि उसी क्षण उसका शरीरान्त हो गया।

दूसरी घटना गुजरात की है। बूढ़े चाचा ने देखा कि गरीबी से छुटकारा पाने के लिए उसका भतीजा अपनी पत्नी को बेचने को तैयार है। क्रोध में आकर उसने कृपाण लेकर पति पत्नी दोनों को सदा के लिए संसार से छुटकारा दिला दिया।

तीसरी घटना बंगाल की है। अकाल के दिनों में एक गरीब किसान को अपनी जमीन से हाथ धोना पड़ा। जमीन बेचने से काम न चलता देख उस गरीब ने अपनी पत्नी को भी बेच दिया। लड़की बच रही थी। खुद अपना ही खर्चा चलाना मुश्किल था, किसान ने उसे भी बेच दिया। कुछ दिनों बाद उसका भी पता न लगा।

हाल ही में कलकत्ता के स्कूल के हेड मास्टर ने भूख से तंग आकर अपने छोटे छोटे शिष्यों को एकत्रित कर भिक्षा माँगी थी। उसे तीन माह से वेतन प्राप्त नहीं हुआ था।

एक भाई दिल्ली से लिखते हैं-”भारत में भुखमरी कम नहीं है, बेकारी कम नहीं है और गरीबों को पेट पालने के लिए बच्चे तक बेच देने पड़ते हैं। मध्यवर्ग को अपना गुजर चलाने के लिए अपनी बहिनों और पत्नियों को कुटनखानों में भेजना पड़ता है जबकि दूसरी तरफ सिनेमा के टिकट नहीं मिलते। नए-नए सिनेमा बनते जाते हैं, लाखों रुपये उनके पीछे बरबाद होते हैं... सिनेमा के अभिनेताओं के बड़े वेतनों के खिलाफ कुछ नहीं किया जाता और उसका सहयोग भोगविलास, व्यभिचार, जुए और शराब में होता है।”

हजारों मन भोजन का विनाश

दूसरी ओर अन्न को नष्ट करने, खाद्य सामग्री को थोड़े से चाँदी के टुकड़ों के लिए सड़ाने, बदबूदार बनाने, कीड़ों के मुख में डालने, पशुओं को खिला डालने, जूठन के द्वारा नालियों में बहा डालने के भी अनेक उदाहरण उपस्थित किए जा सकते हैं।

आज की पूँजीवादी व्यवस्था में बनिए तमाम अनाज खरीद कर खाइयों में गाड़ देते हैं, जिससे भाव बढ़े और उनकी चाँदी बन जाय। कभी कभी यह अनाज दो दो वर्ष जमीन में पड़ा सड़ा करता हैं। यदि भाव सस्ता होता है, तो अन्दर ही अन्दर घुन कर नष्ट हो जाता है, अथवा बाहर निकाल कर पशुओं को खिला दिया जाता है। यदि मानव मानव के कल्याण की वृत्ति रख इस शोषण पद्धति को छोड़ कर इस अनाज को बेचकर कम लाभ से ही संतोष कर ले, तो हमारा निर्धन वर्ग भोजन की कमी के कारण मर नहीं सकता। खाद्य समस्या को उग्र बनाने में पूँजीपतियों का प्रमुख हाथ है। उन्हें रुपया चाहिए, मानवता की समुन्नति, विकास, रक्षा से कोई सरोकार नहीं।

आगरा के एक होटल की स्मृति मेरे मन में अटकी है। एक दिन हाथ धुलाने वाला नौकर गैरहाजिर था। बर्तन साफ करने वाले स्थान पर नल से हाथ धोने गया, तो बिखरी हुई जूठन देखकर दंग रह गया। रोटी के टुकड़े, दाल तरकारियों का एक ओर ढेर पड़ा था। नाली में अन्न बह रहा था। चावलों के ढेर पर मक्खियां भिन भिना रही थीं। कितनी जूठन ये बाबू लोग छोड़ते हैं, जब कि एक-एक टुकड़े के लिए तरसते तरसते अनेक दीन हीन भारतीय मर जाते हैं।

“तुम इस जूठन का क्या करते हो?” मैंने पूछा “मेहतर ले जाता है, सरकार। बाकी नाली में बहा देते हैं। क्या करें बाबू लोग आज कल बहुत जूठन छोड़ते है। जरा कोई रोटी फूली नहीं कि उसे अलग रख देते हैं। सब्जी दाल में मिर्च नमक कम अधिक हो जाय, तो उसे यों ही छोड़ देते हैं। खीर, दाल, भाजी में मक्खियाँ गिर जाएं या कुछ बाल वगैरह निकल आये, तो वह फेंका जाता है। इसके अलावा कुछ बातों बातों में बैठे रहते हैं और गर्म रोटी की बाट देखा करते हैं। एक ठंडी हुई छोड़ी, नई आई तो उसके दो चार टुकड़े खाये। ऐसे ही चलता है सरकार आधा भोजन जूठन में सुअरों या मवेशियों को खिला दिया जाता है।”

जिस देश में खाद्य समस्या जीवन मरण का प्रश्न बन रही हो, उसमें जूठन छोड़ने का दण्ड फाँसी से क्या कम होना चाहिए।

व्यसनों की ओर बढ़ती हुई प्रवृत्तिः-

बीड़ी, सिगरेट, पान आज की सभ्यता के एक अविभाज्य अंग बन गये हैं। चाय को बुरा नहीं समझा जाता। कुछ व्यक्ति शराब और गाँजा भाँग चरस इत्यादि विषैली वस्तुओं का प्रयोग करते हैं। गली गली और छोटे बड़े बाजारों में पान सिगरेट की दुकान उत्तरोत्तर बढ़ती पर हैं। रेल के स्टेशन पर चाहे और कुछ न बिके बीड़ी सिगरेट तथा पान अवश्य बिक जायगा। आज का व्यक्ति बिना भोजन के रह सकता है, किन्तु सिगरेट पान और चाय के बिना उसे दिन व्यतीत करना कठिन है। बम्बई कलकत्ता दिल्ली इत्यादि बड़े नगरों का जीवन इतना कृत्रिम है कि अनेक व्यक्ति एक बार भोजन कर केवल चाय, पान तथा सिगरेट पर ही रह जाते हैं।

दिमागी वेश्याएं-

आज के युग में दो ऐसे वर्ग हैं, जिन्होंने सेवा के स्थान पर समाज का बड़ा अहित किया है (1) वकील (2) डॉक्टर। वकीलों का कार्य एक दूसरे के मामलों को सुलझाना, पारस्परिक मेल मिलाप कराना, घर पर ही झगड़ों का निपटारा करा देना, प्रेम, सौहार्द, सहकारिता सहानुभूति की अभिवृद्धि करना होना चाहिए। लेकिन आज हम दूसरी ही बात देखते हैं। वकील मेल के स्थान पर एक दूसरे को तनिक तनिक सी बातों के लिए लड़ाने में अधिक दिलचस्पी लेते हैं, कचहरीया मुकदमों से भरी रहती हैं, भाई भाई को, पिता पुत्र को, पति पत्नी को, लड़ा भिड़ाकर वकील समाज में विद्वेष, ईर्ष्या, स्पर्द्धा संघर्ष, कटुता, वैमनस्य की वृद्धि कर रहे हैं। साधारणतः जहाँ जरा सा सहन करने से शाँति हो सकती है, वहाँ एक दूसरे को उकसाकर वकील लड़ा देता है और दोनों का रुपया चूसता है। मुकदमे बाजी का नशा जिसे लगा, वही दूसरे को ले डूबा, घर का रुपया समाप्त हुआ झूठी गवाहियाँ देते देते वर्षों निकल जाते हैं। हाथ कुछ नहीं आता। मुकदमे बाजी ने अनीति, स्वार्थ, झूठ कपट की वृद्धि की है वकील समाज के झगड़ों पर उसी प्रकार पनपता है जैसे रक्त पर खटमल, जूँ या जोंक। यह हमारी दानवता को जगाती है। और ईर्ष्या कटुता पाप कुपथ की वृद्धि करती है।

“नया जीवन” पत्र में वकीलों के पतन पर दो बड़े महत्वपूर्ण उदाहरण प्रकाशित हुए हैं। देखिए-

अभी मद्रास में सड़क तोड़ने पर एक मोटर वाले का चालान किया गया। उचित था कि मोटर वाला अपनी भूल मान लेता, पर नहीं, उसने वकील खड़ा किया और वकील ने कहा कि मेरे मुवक्किल के खिलाफ यह अपराध लगाया जाता है कि वह पुलिस बोर्ड “रुको, सुनो और फिर आगे बढों ” देखकर भी नहीं रुका। मेरा उत्तर यह है कि बोर्ड ही गैर कानूनी है, क्योंकि पुलिस ने उसे लगाने की मंजूरी ही मजिस्ट्रेट से नहीं ली है। फिर ये बोर्ड सिर्फ सावधान करने के लिए हैं, इसलिए इनकी बात न मानने पर मुकदमा चलाया ही नहीं जा सकता! अपने कुछ पैसों के लिए ये वकील महाशय यह भूल गये कि वे समाज में कितनी गन्दी अराजकता को इस तरह समर्थन दे रहे हैं!

कोलंबो में ग्वाले पर दूध में पानी मिलाने का मुकदमा चला। उचित था कि वह भी अपनी भूल मान कर सजा ले लेता, किन्तु नहीं, उसने भी मुकदमा लड़ाने के लिए एक वकील किया। वकील ने कचहरी में कहा, “जिस दूध में पानी मिश्रित किया गया था, वह आदमियों के पीने के लिए नहीं था, देवता पर चढ़ाने के लिए था इसलिए मेरे मुवक्किल पर मुकदमा ही नहीं चल सकता!

मजिस्ट्रेट ने हँस कर कहा- जब यह देवता को भी ठगने की हिमाकत कर सकता है, तो इसे बिना सजा कैसे छोड़ा जा सकता है? और उस पर 75 रु जुर्माना कर दिया, पर प्रश्न तो यही है कि एक ऊँचे दर्जे के शिक्षित मनुष्य का खुले आम ऐसी बात कह सकना, क्या किसी समाज व्यवस्था के लिए कड़वी से कड़वी आलोचना नहीं है?

यह सभ्य डाकेजनीः-

द्वितीय वर्ग डॉक्टर वैद्य हकीम ओझा इत्यादि का है। चिकित्सा शास्त्र का ज्ञान न होने पर दो एक नुस्खे, या चार छः दवाइयों की शीशी लेकर हर कोई डॉक्टर बन बैठा है। जितना खोखलापन, धोखा, पतन इस पेशे में है, इतना कहीं नहीं दीखता। अंग्रेजी पढ़े लिखे डाक्टरों की चिकित्सा इतनी महंगी है कि रोगी को अच्छे होते होते अपना घर बार चीजें जायदाद बेचनी पड़ जाती है। अपनी फीस, दवा फरोश से कमीशन, दवाई में पानी, मोटर ताँगे का किराया मिला कर व्यय इतना अधिक हो जाता है कि हमारे गरीब देश के अधिकाँश व्यक्ति उन्हें नहीं बुला पाते।

“नया समाज” में श्री गुरुदयाल मलिक ने एक डॉक्टर और रोगी के विषय में लिखा है-

“कहते हैं, एक बार एक डॉक्टर ने अपने एक बीमार को उसकी बहुत दिनों की बीमारी से मुक्त कर दिया। कई दिनों बाद एक दिन हठात् फिर डॉक्टर की उस रोगी से भेंट हो गई। डॉक्टर साहब ने मिज़ाज पूछे तो रोगी बोला “सब ठीक है आप की कृपा से मैं अच्छी तरह चल फिर सकता हूँ। मगर डॉक्टर साहब, मुझे अपने घर का सामान आदि सब कुछ बेचना पड़ा है।”

“वह कैसे भाई?” डॉक्टर ने पूछा

नहीं तो आपका बिल कैसे चुका सकता था? उत्तर मिला उपर्युक्त कहानी में अतिशयोक्ति रत्ती भर भी नहीं है। थोड़े ही दिन हुए मलिक जी के एक मित्र, जो मध्यम वर्ग के थे, बीमार पड़े। आपरेशन हुआ। आपरेशन डॉक्टर के घरेलू शफाखाने में हुआ था। मित्र दस दिन अस्पताल में रहे। छोड़ने पर डॉक्टर का 1250) का बिल चुकाना पड़ा, जब कि मित्र का माहवारी वेतन केवल दो सौ रुपया मात्र था।

श्री मलिक ने एक और प्रकार की भी डाक्टरों की डाकेजनी का उल्लेख किया है। आप लिखते हैं, “मैं कई डाक्टरों को जानता हूँ, जिनको माहवारी आमदनी कई हजार रुपये हैं, मगर वे सरकार को एक पाई इनकम टैक्स नहीं देते। हाँ स्वयं अपने पर अपने परिवार वालों पर खूब व्यय करते हैं, क्लबों और सिनेमा नाटकों पर पानी की तरह रुपया बहाते हैं। मगर जब कोई बीमार हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता है कि फीस में कमी की जाय, तो उसे घुड़ककर जवाब देते हैं। ऐसे भी डॉक्टर मौजूद हैं तो आधा ऑपरेशन कर बीमार के रिश्तेदारों से पूरी फीस नकद मेज पर गिनवा लेते हैं।”

यह है हमारे सभ्य डाकुओं की डाकेजनी! जितनी हानि चोर डाकुओं से नहीं होती, उतनी इन वकील डाक्टरों से अनायास ही हो जाती है।

वकीलों ने हमें परस्पर मेल के स्थान पर जरा-जरा सी बातों के लिए कोर्ट में मुकदमे दायर करना, हजारों रुपये तबाह करना, चलते फिरते व्यर्थ के झगड़े मोल लेना, निर्बलों को कानून के पिंजरे में फाँस कर लूटना सिखाया है। जो ग्रामीण मजदूर लोग कानून नहीं जानते, उन्हें कानून की आड़ लेकर खूब उल्लू बनाया जाता है। एक एक मुकदमा कई कई वर्ष तक चलता है, जिसमें वकील जोंक की तरह मुवक्किल को खूब चूसता रहता है। वकील हमारे क्रोध, ईर्ष्या, झगड़ने की आदत पर पनपने वाला प्राणी है।


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