मानवता को चुनौती (Kavita)

January 1953

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मैं सम्राट बनूँ जगती का आकाँक्षा मानव की। एक छत्र हो राज्य हुकूमत चले कि ज्यों दानव की॥

बना रहूँ खूँखार कि जग में सभी प्रकंपित होवे। मेरी इच्छा से ही जग जगन रोवे हर्षित होवें॥

हिंसा की कर्कशता नर के रोम-रोम में छाई। बैर फूट की बुरी भावना कौम-कौम में छाई॥

नभ में अणुबम यान गैस हो! भू पर धून उड़ाते। अधम नृशंस कार्य कर दम्भी मन में मौज उड़ाते ॥

युग के उत्तम नियम पुरातन तड़क तड़क कर टूटे। बारूदों से भरे हुये बम कड़क कड़क कर फूटे॥

मानव को है खुली चुनौती, जो बर्बर पर अकड़ा। उसकी जीवन प्रगति, शाँति, सुख नाश पाश में जकड़ा॥

लौह शृंखला बद्ध घृणा विद्वेष निरन्तर बढ़ता। लोक लाज का भीना अंचल धीरे-धीरे फटता॥

किंकर्तव्य विमूढ़ मनुज बन हुआ कुपथ का राही। मानवता को कुचल बढ़ गया दानवता का चाही॥


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