बालकों का स्वस्थ विकास होने दो

April 1952

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(श्री रवीन्द्र नाथ टैगोर)

खुला आकाश, खुली हवा और फूल-पत्ते मानव सन्तान के शरीर और मन की परिणति के लिये बहुत ही आवश्यक हैं। जब उमर बढ़ेगी, आफिस जिस समय अपनी ओर खींचेंगे, लोगों की भीड़ जब हमें ठेलकर चलेगी और मन जब नाना प्रयोजनों से नाना दिशाओं में घूमेगा, तब विश्व-प्रकृतियों के साथ हमारे हृदय का प्रत्यक्ष मिलाप होना बन्द हो जायगा। इसलिए उससे पहले ही हमने जिस जल-स्थल, आकाश-वायु-रूप माता की गोद में जन्म लिया है, उसके साथ हमें अच्छी तरह परिचय कर लेना चाहिये, माता के दूध के समान उसका अमृत रस खींच लेना चाहिए और उसका उद्धार मन्त्र ग्रहण कर लेना चाहिये।

ऐसा करने से ही हम सच्चे और पूरे मनुष्य बन सकेंगे। बालकों का हृदय जब नवीन रहता है, उनका कौतूहल जब सजीवन होता है और उनकी सारी इन्द्रियों की शक्ति जब सतेज रहती है, तब उन्हें खुले आकाश में जहाँ कि हवा और धूप खेलती रहती है—खेलने दो। उन्हें इस पृथ्वी माता के आलिंगन से वंचित मत करो। सुन्दर और निर्मल प्रातःकाल में सूर्य को उनके प्रत्येक दिन का द्वार अपनी ज्योतिर्मय उँगलियों के द्वारा खोलने दो और सौम्य गंभीर सन्ध्या को उनका दिवावसान नक्षत्र खचित अन्धकार में चुपचाप निमीलित होने दो! वृक्ष और लताओं के शाखा-पल्लवों से सुशोभित नाटक शाला में छह अंकों में छह ऋतुओं का नाना रस विचित्र गीत नाटक का अभिनय उनके सामने होने दो! वे झाड़ों के नीचे खड़े होकर देखें कि नववर्षा यौवराज्य पद पर अभिषिक्त राज पुत्र के समान अपने दल के दल सजल बादल लेकर आनन्द गर्जन करती हुई, चिरकाल की प्यासी वन भूमि के ऊपर आसन्न वर्षण की छाया डाल रही है और शरत्काल में अन्नपूर्णा धरती की छाती पर ओस से सींची हुई, वायु से लहराती हुई, तरह-तरह के रंगों से चित्रित और चारों दिशाओं में फैली हुई खेतों की शोभा को अपनी आँखों से देखकर उन्हें धन्य होने दो!

हे बालकों के रक्षक अभिभावकगण! तुम अपनी कल्पना वृत्ति को चाहे जितनी निर्जीव और अपने हृदय को चाहे जितना कठिन बना लो, परन्तु दोहाई तुम्हारी, यह बात कम से कम लज्जा की खातिर ही मत कहना कि “बालकों को इनकी कुछ आवश्यकता नहीं है।” अपने बच्चों को इस विशाल विश्व में रहकर विश्व जननी के लीला स्पर्श का अनुभव करने दो। तुम्हारे इन्स्पेक्टरों के मुलाहिजों और परीक्षकों के प्रश्न पत्रों की अपेक्षा यह कितना उपयोगी है इसका भले ही तुम अपने हृदय में अनुभव न कर सकते हो, तो भी बालकों के कल्याण के लिए तो इसकी बिलकुल उपेक्षा मत करो।

जिस समय मन बढ़ता है उस समय उसके चारों ओर एक बड़ा भारी अवकाश विश्व प्रकृति के बीच विशाल भाव से, विचित्र भाव से और सुन्दर भाव से मौजूद है। किसी तरह साढ़े नौ और दस बजे के भीतर अन्न निगलकर शिक्षा देने की मृगशाला में पहुँचकर हाजिरी देने से बच्चों की प्रकृति किसी भी तरह सुस्थ भाव से विकसित नहीं हो सकती। हाय! हमारी शिक्षा दीवालों से घेर कर, दरवाजे को रुद्धकर, दरवान बिठाकर, दण्ड या सजा से कण्टकितकर, और घण्टानाद द्वारा सचेत करके कैसी विलक्षण बना दी गई है! बच्चे बीजगणित न सीख कर, और इतिहास की तारीखें कण्ठ न करके माता के गर्भ से जन्म लेते हैं, इसके लिये क्या वे अपराधी हैं? मालूम होता है, इसी अपराध के कारण इन अभागों से उनका आकाश, वायु और उनका सारा आनन्द, अवकाश छीनकर उनके लिए शास्ति सा दण्ड रूप बना दी जाती है, परन्तु जरा सोचो तो सही कि बच्चे अशिक्षित अवस्था में क्यों जन्म लेते हैं? हमारी समझ में तो वे न-जानने से धीर धीरे जानने का आनन्द पावेंगे, इसीलिए अशिक्षित होते हैं।

हम अपनी असमर्थता और बर्बरता के वश यदि ज्ञान शिक्षा को आनन्द जनक न बना सके, तो न सही, पर चेष्टा करके, जान बूझकर, अतिशय निष्ठुरता पूर्वक निरपराधी बच्चों के विद्यालयों को कारागार (जेलखाने) तो न बना डालें। बच्चों की शिक्षा को विश्व प्रकृति के उदार रमणीय अवकाश में से उन्मेषित करना ही विद्यता का अभिप्राय है। इस अभिप्राय को हम जितना ही व्यर्थ करते हैं, इतना ही अधिक वह व्यर्थ होता है। मृगशाला की दीवालें तोड़ डालो, मातृ गर्भ के दस महीनों में बच्चे पण्डित नहीं हुए, इस अपराध पर उन बेचारों को सपरिश्रम कारागार का दण्ड मत दो, उन पर दया करो।


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