क्षत्रियत्व को चुनौती

April 1952

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सत्तावन्तस्तथा शूराः क्षत्रिया लोक रक्षकाः।

अन्यायाशक्ति सम्भूतान् ध्वंसये युर्हिव्यापदः॥

—गायत्री स्मृति 2

अर्थ—सत्तावान् तथा शूर संसार के रक्षक क्षत्रिय अन्याय और अशक्ति से उत्पन्न होने वाली आपत्तियों को नष्ट करें।

गायत्री मन्त्र के प्रथम अक्षर ‘तत्’ में ब्राह्मणत्व को जागृत और शक्ति होने का आह्वान किया गया है, जिसके सम्बन्ध में गत अंक में चर्चा की जा चुकी है। दूसरे अक्षर ‘स’ में क्षत्रियत्व के लिए बहुत ही बहुमूल्य उपदेश दिया गया है एवं आदर्श स्थापित किया गया है।

क्षत्रियत्व एक गुण है। वह किसी वंश विशेष में न्यूनाधिक भले ही मिलता हो पर वह किसी वंश तक ही सीमित नहीं है। तालाब में जल अधिक पाया जाता है परन्तु जल अकेले तालाब की ही सम्पत्ति नहीं है। वह कुंए, झरने, नदी, सागर, बादल, वर्षा, ओस आदि में भी रहता है। इसी प्रकार क्षत्रियत्व भी सम्पूर्ण मानव जाति से सम्बन्ध रखने वाला एक गुण है। इस गुण का प्रधान लक्षण शूरता है। शूरता=अर्थात् धैर्य, साहस, निर्भयता, पुरुषार्थ, दृढ़ता, पराक्रम। यह गुण जिनमें हैं, जिनमें सामर्थ्य तेज और प्रतिभा है वह क्षत्रिय है। यह क्षत्रियत्व का गुण जहाँ होगा वहाँ शक्ति का भण्डार जमा होगा और जहाँ शक्ति होगी वहाँ सत्ता भी अवश्य आ जायगी।

प्रतापी और तेजस्वी व्यक्ति की प्रतिभा से प्रभावित होकर अनेक मनुष्य उसके अनुयायी और सहायक हो जाते हैं। नेतृत्व उसका जन्मजात गुण होता है। मानसिक शौर्य के कारण उसका शरीर भी स्फूर्तिवान् एवं संघर्षशील होता है। ‘वीर भोग्या वसुन्धरा’ स्वभावतः ऐसे नर सिंहों को अनेक अधिकार एवं सत्ताएँ देखकर जनता उसका सम्मान करती है।

आत्मिक बल से बलवान व्यक्ति को ब्राह्मण कहते हैं। ब्राह्मण का ब्रह्मतेज उसके निज के प्रयोग के उपयोग के लिए या स्वार्थ साधन के लिए नहीं वरन् इसलिए है कि उसके द्वारा अज्ञान का नाश एवं ज्ञान का प्रकाश करके अन्धकार में भटकने वाले अनेकों को सन्मार्ग पर लगाया जाय। इसी प्रकार शारीरिक प्रतिभा तेज और सामर्थ्य, शौर्य और पुरुषार्थ का क्षत्रिय बल जिसके पास है उसका पवित्र कर्त्तव्य है कि अपनी इस शक्ति द्वारा वह निर्बलों की रक्षा करें, उनको सहारा देकर ऊपर उठावें, अन्याय अत्याचार करने वाले दुष्ट प्रकृति के लोगों से संघर्ष मोल लेकर उन्हें परास्त करने के लिए अपने प्राणों तक की बाजी लगा दें।

क्षात्र धर्म के इस महान् उत्तरदायित्व को एक वर्ग विशेष उत्साहपूर्वक अपने कन्धों पर उठाता था। निर्दोष प्राणियों को वास देने वाले सिंह, व्याघ्र, चोर, डाकू, हिंसक; हत्यारे, अन्यायी, आततायी प्रकृति वालों को नष्ट करके अन्याय और अशक्ति के कारण दुख सहने ऐसे ही क्षात्र धर्म एवं शौर्य से भरा पड़ा है। अभी पिछले स्वाधीनता संग्राम में असंख्य निरस्त्र भारतीयों ने साम्राज्य शाही के प्रचण्ड कालदण्ड से जो टक्करें लीं, उससे प्रकट होता है कि क्षात्र तेज हमारी नस-नाड़ियों में अब भी विद्यमान है।

आज ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं, जिन्हें क्षात्र तेज प्राप्त है, जिनके पास शक्ति सामर्थ्य और सत्ता प्रचुर परिणाम में प्राप्त है किन्तु खेद की बात है कि वे उसका दुरुपयोग करके अनीति का निवारण करने की बजाय उसे बढ़ाने के कारण बनते हैं। राजा, रईस, अमीर, उमराव, जागीरदार, जमींदार आदि के हाथ में जो शक्ति होती है उससे वे निर्बलों को सहायता पहुँचाना तो दूर उलटे उनके शोषण, दमन, त्रास एवं उत्पीड़न के आयोजन करते हैं। इसी प्रकार छोटे-छोटे शूर एवं साहसिक लोग बहुधा डाकू, हत्यारे, चोर बनकर गुंडापन, आतंक, अन्याय अनैतिकता, अशिष्टता, व्यसन, दुराचार आदि बुराइयों को बढ़ाते हैं। जैसे आज का ब्राह्मण ठगी और दीनता का प्रतीक बन गया है वैसे ही आज का क्षत्रिय भी आतंक और अनीति का गढ़ बना हुआ है।

गायत्री का दूसरा अक्षर ‘स’ इस स्थिति का घोर विरोध करता है और कड़ी चेतावनी देता है। सच्चा क्षत्रिय तो तपस्वी ब्राह्मण की तरह आत्मत्यागी ही होना चाहिए। शक्ति और सत्ता जो उसके हाथ में सौंपी गई है वह ईश्वर की एक पुनीत धरोहर है उसका अपने लिए नहीं, जन-कल्याण के लिए उपयोग होना चाहिए, जो लोग चिड़िया, कबूतर, मछली, खरगोश आदि दीन-दुर्बल जीवों पर अपनी तलवार छोड़ते हैं वे क्षत्रिय नहीं हैं। जो अपने अहंकार, ऐंठ, अकड़, सनक और स्वार्थ के लिए अनेकों को कष्ट पहुँचाते हैं वे भी क्षत्रिय नहीं हैं। शक्ति के नशे में चूर होकर जो साँप की तरह फुसकारते और भेड़ियों की तरह गुर्राते हैं वे भी क्षत्रिय नहीं हैं। ऐसे लोगों को तो नर-तन-धारी असुर ही कहा जा सकता है। गायत्री बताती है कि असुर और क्षत्रिय एक नहीं होते, वे तो परस्पर विरोधी तत्व हैं। उन दोनों में उतनी ही समता है जितनी डॉक्टर और कसाई की शल्य क्रिया में। ऊपर से देखने में दोनों ही चीर-फाड़ करते हैं पर एक का उद्देश्य परम दयामय होता है और दूसरों का घोर दुष्टतापूर्ण। इसी प्रकार क्षत्रिय और असुरों के पराक्रम भी लोक सेवा एवं स्वार्थपरता के लिए होते हैं।

जैसे हर व्यक्ति में थोड़ा बहुत ब्राह्मणत्व-ज्ञान तत्व-होता है वैसे ही उसमें क्षत्रियत्व का-शक्ति और सामर्थ्य का अंश होता है। यह अंश दैवी अंश है। इसका उपयोग दैवी प्रयोजन के लिए, सर्व हितकारी पुण्य प्रयोजनों के लिए ही होना चाहिए। गायत्री कहती है कि प्रत्येक विचारवान् व्यक्ति को सदा आत्म निरीक्षण करते हुए यह देखना चाहिए कि हमारी शक्ति, सामर्थ्य, प्रतिभा और सत्ता का उपयोग क्षात्र धर्म के अनुकूल हो रहा है या नहीं। उसका प्रतिकूल उपयोग होना गायत्री महाशक्ति की प्रत्यक्ष अवज्ञा है और इस अवज्ञा का परिणाम वैसा ही भयंकर होता है जैसा कि महाकाली से लड़ने वाले महिषासुर आदि का हुआ था। दुरुपयोग की हुई सत्ता, उलटी चलाई हुई तलवार की तरह आत्म-घातक होती है।

आज क्षात्र सत्ता का केन्द्र सरकार के हाथ में पहुँच गया है। पुलिस, फौज, शासन, प्रबन्ध, न्याय, आदि के सभी क्षत्रिय कर्त्तव्य राज के हाथों में है। इन विभागों का—इन विभागों के कर्मचारियों का-विशिष्ट कर्त्तव्य है कि वे जनसाधारण को अन्याय एवं अनीति से पीड़ित न होने दें। परन्तु देखा यह जाता है कि न्याय अत्यन्त महंगा है, उसे केवल धनी ही खरीद पाते हैं। रिश्वत खोरी, पक्षपात, घात-प्रतिघात, रोष-द्वेष आदि बुराइयों की भरमार होने से सरकारी कर्मचारी उन निर्बलों की उचित सहायता नहीं कर पाते जिनके लिए कि उनका अस्तित्व निर्माण किया गया है। गायत्री कहती है कि ऐसा कुशासन क्षात्र धर्म के विपरीत है। उसमें सुधार न हुआ उसकी गति ऐसी ही चलती रही तो यह एक बड़ी ही अधार्मिक और दुर्भाग्यपूर्ण बात होगी।

किसी पर अन्याय होते देखकर किसी को अन्याय करते देखकर अन्तरात्मा का जो अंश दुखी, क्षुभित, दयार्द्र, सेवा प्रवृत्त होता है वही क्षत्रियत्व है। यह दैवी अंश हर मनुष्य की अन्तरात्मा में न्यूनाधिक मात्रा में मौजूद है, इसी को गायत्री मन्त्र के द्वितीय अक्षर ‘स’ ने जागृत और सुविकसित करने का सन्देश दिया है। आइए, हम इस गायत्री माता के सन्देश को सुनें और अपने क्षत्रियत्व को अनीति के परिमार्जन और नीति के संस्थापन में लगावें।


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