अपनी अस्वस्थता से लाभ उठाइए।

April 1952

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(श्री सन्तराम, बी. ए.)

कल ही आप तन्दुरुस्त और हृष्ट-पुष्ट थे, खूब उछल-कूद रहे थे, अस्वस्थता का आपको विचार तक न था। रोग ने आकर एकाएक आपके घुटनों की चूलें ढीली कर दी और आपको खाट पर लिटा दिया। अब आप अस्पताल के कमरे में दण्डवत् लेटे हुये हैं, इच्छा न करते हुए भी आपको पीड़ा का साथी बनना पड़ा है।

आप झुँझलाते हुए भाग्य को गाली देते हैं, जीवन के दैनन्दिन कार्यक्रम में इस असामयिक विघ्न के लिये रोष प्रकट करते हैं। पर आपको ज्ञात नहीं कि आप अपनी अस्वस्थता से बहुत लाभ उठा सकते हैं। खाट पर लेट कर मजबूरन छुट्टी करने में निर्दोष रूप से, हमें अतीव कर्म को लाहलमय संसार में छुटकारा मिलता है, हमारी मानसिक एवं आध्यात्मिक अनुभूतियाँ तीक्ष्ण होती हैं और हम अपने जीवनों का अधिक स्पष्ट चित्र देख सकते हैं। किसी गम्भीर अस्वस्थता को ईश्वर का अभिशाप न मानकर लाभ उठाने और शक्ति उत्पन्न करने का ऐसा सुअवसर समझना चाहिये, जिसका मिलना स्वस्थता में सम्भव नहीं।

मैं उन पुराने रोगियों की बात नहीं कर रहा हूँ, जिनका रोग उनको सदा के लिये अशक्त बना देता है और जो फिर भी, जीवन- संग्राम में पराजय स्वीकार न करके, वीरतापूर्वक अपने कार्य में निरत रहते हैं। ऐसे मनुष्य वस्तुतः साधारण कोटी के नहीं होते। पीड़ा पर विजन पाने वाले इन लोगों का सच्चा नमूना अमेरिकन इतिहासकार फ्राँसिस पार्कमैन है। अपने जीवन के अधिकाँश काल में पार्कमैन को इतनी तीक्ष्ण पीड़ा रहती थी कि वह एक बार बैठकर पाँच मिनट से अधिक समय तक काम नहीं कर सकता था। उसकी आँखें इतनी खराब थीं, कि वह कागज पर केवल थोड़े-से बड़े-से अक्षर घसीट सकता था। पेट की भारी तकलीफ, भयंकर गठिया रोग मरणासन्न कर देने वाली शिर पीड़ा के वह शिकंजे में कसा रहता था। शारीरिक दृष्टि से उसका प्रत्येक अंग खराब था, तो भी उसने इतिहास के 20 उत्कृष्ट ग्रन्थ लिखने का उपाय कर लिया।

परन्तु हमारा सम्बन्ध इस समय साधारण मत्य मानस से है, जिसे पहली बार रोग ने लताड़ा है, ये कभी-कभी रुग्ण होने वाले लोग रोग से लाभ उठाना क्वचित् ही सीखते हैं, वे तो उसे दुर्भाग्य का आक्रमण समझते हैं, इस पर सहस्रों मनुष्य ऐसे भी हैं जिन्होंने अस्वस्थता के दिनों में पहली बार अपने आपको वस्तुतः पाया है, डॉ. एडवर्डलिविंग स्टोच टुडो को युवावस्था में ही पहाड़ पर भेज दिया गया था। वहाँ उसे आशा थी कि यक्ष्मा से उसकी मृत्यु हो जायगी परन्तु वह मरा नहीं, खाट पर लेटा-लेटा वह एक बहुत बड़ा अस्पताल बनाने का स्वप्न देखा करता था, जहाँ वह दूसरे रोगियों को स्वस्थ कर सकेगा। अपनी पीठ के बल लेटा हुआ वह अपने से कम बीमार लोगों की परीक्षा किया करता था। उसने इस अस्पताल के लिए धन इकट्ठा किया और परिश्रम किया, फलतः उसका स्वप्न एक बड़ी आरोग्यशाला (सनोटोरियम) के रूप में परिणित हो गया। वहाँ सहस्रों रोगी सहायता पा चुके हैं। टुडो के दुःख ने एक अज्ञात डॉक्टर को जगत विख्यात चिकित्सक बना दिया है।

यूजीन ओनील एक बेमतलब घूमने वाला मनुष्य था। 25 वर्ष की आयु तक उसके सामने जीवन की कोई पद्धति न थी। तब उस पर एक प्रचण्ड रोग का आक्रमण हुआ। इससे आवश्यक अवकाश मिल गया। इसमें उसने उन अनेक बरसों के संस्कारों का मूल्य निर्धारण किया, जिनमें अनुभवों का एक दूसरे के ऊपर ढेर लग गया था, और उसे एक-एक क्षण भी उन पर विचार करने को नहीं मिला था। अस्पताल में ही उसने पहले-पहले वे नाटक लिखने आरम्भ किए, जिन्होंने अमेरिकन नाटकों में क्राँति उत्पन्न कर दी।

किसी बड़ी अनुभूति की तरह रोग भी वस्तुतः हमें बदल डालते हैं। आप पूछेंगे, कैसे? सुनिए, पहली बात तो यह है कि स्वस्थावस्था में जगत को आगे होकर मिलने का जो भीषण दबाव हम पर पड़ता है, वह कुछ काल के लिए हम पर से हट जाता है। बैशाख मास में तुषार बिंदुओं के सदृश्य उत्तरदायित्व दूर हो जाता है, हमें ट्रेन पर समय पर पहुँचने, बच्चों की देखभाल करने, या घड़ी में चाबी देने की चिन्ता नहीं रहती। हम अंतर्दृष्टि और आत्मा-विश्लेषण के प्रदेश चले जाते हैं। हम अपने भूत और भविष्य के सम्बन्ध में, कदाचित् पहली बार, शान्त चित्त से विचार करते हैं। अपने विषय में हमने जो पहले मूल्य लगा रखे थे, वे भ्रमजनक दीखने लगते हैं, जिस कार्य-पद्धति का हमारा स्वभाव हो गया है, वह निर्बल, मूर्खतापूर्ण या दुर्दमनीय जान पड़ती है। ऐसा प्रतीत होता है कि रोग हमें संसार का वह अतीव दुर्लभ पदार्थ-दूसरा संयोग देता है, जो न केवल स्वास्थ्य में ही वरन् स्वयं जीवन में भी काम देता है।

अस्वस्थता हममें से बहुत से मूर्खतापूर्ण व्यवहार को निकाल देती है, इससे हममें नम्रता आती है, यह हमारा सारा अभियान और बड़प्पन निकाल कर हमें अपनी वास्तविक अवस्था में ले आती है। इससे हम अपनी अन्तरात्मा पर चार बत्ती का प्रकाश डाल कर उनकी वास्तविक अवस्था को देखने योग्य हो जाते हैं और हमें पता लग जाता है, कि कितनी बार हमने अपनी निर्बलताओं और विफलताओं को युक्ति संगत सिद्ध करने का यत्न किया है और कितनी बार हम परमावश्यक बातों पर टालमटोल करके चुपके से भाग चले हैं। अपने कार्यों में विवाह में, और सामाजिक मेल-जोल की हुई भूलें अस्वस्थता में स्पष्ट दीखने लगती हैं। अस्वस्थता का हितकर प्रभाव उस समय में विशेष रूप से दिखाई देता है, जब हम तनिक भयभीत होते हैं। टाइफ़ाइड और न्यूमोनिया ने एकाधिक मद्यषों, चोरों, अनृतवादियों और पत्नी को पीटने वालों का सुधार कर दिया है। यदि रोग का कड़ा दौरा हमें मृत्यु द्वार के निकट ले जाता है—तो कदाचित यह और भी अच्छा है। क्योंकि जब मार्गरुद्ध और द्वार संकीर्ण हो जाता है, कुछ लोगों का केवल तभी अपनी आत्मा, अपने परमेश्वर या जीवन-कार्य का ज्ञान होता है। कबीर ने कहा भी है—

सुख के सिर पर सिल धरु, जो प्रभु का नाम भुलाय।

बलिहारी इस दुःख के, जो पल-पल नाम जपाय॥

मेरे एक मित्र पर एक बार न्युमोनिया रोग का घोर रूप से आक्रमण हुआ, रोग शय्या परा लेटे हुए उन्हें एक दिन ऐसा भास हुआ, मानो कोई देवी उनसे कह रही है कि मैं तुम्हें प्राणदान देती हूँ, परंतु अब तुम अपना जीवन देश-सेवा में लगाओ।” अच्छे होने पर ये सचमुच सेवा में लग गये।

फ्लोरेंस नाइटिंगेल इतनी बीमार थी कि खाट से उठ नहीं सकती थी। वहाँ पड़े-पड़े ही उसने इंग्लैंड के अस्पतालों को दुबारा संगठित किया। चेचक का टीका निकालने वाले पासचर महाशय पक्षाघात से पीड़ित थे और उनके मूर्च्छा होने का भय निरन्तर लगा रहता था। फिर भी वे अथक भाव से रोग पर आक्रमण करते रहे। इसी प्रकार के और भी असंख्य उदाहरण दिये जा सकते हैं।

पीड़ा भी हमें आध्यात्मिक अन्तः दृष्टि, आशा की सुन्दरता, मानव समाज को समझने एवं क्षमा कर देने का भाव—साराँश यह है कि शान्ति एवं धैर्य का गुण प्रदान करती है। ये बातें घोड़े की तरह दौड़ने वाले मनुष्य को क्वचित् ही प्राप्त होती हैं। अष्ठ-वह साफ करने वाली अग्नि है, जो हमारी बहुत सी नीचता, तुच्छता और कथित “स्वास्थ्य” की अधीरता को जला देती है। महाकवि मिल्टन का कथन है-जो सबसे उत्तम रीति से कष्ट सहन कर सकता है वही धीर है। इसका प्रमाण उसका प्रसिद्ध ग्रन्थ “पेराडाइज लास्ट” है। यह उसने अन्धा होने के बाद लिखा था।

रुग्णावस्था में आपको पता लगता है कि आपकी कल्पना जितना काम अब कर सकती है, उतना पहले स्वस्थता की दशा में कभी नहीं कर सकती थी अस्तित्व की अनेक छोटी-छोटी बातों के सम्बन्ध में छूट जाने का कारण, आप दिन में स्वप्न देखते, हवा में महल बनाते और मनसूबे बाँधने लगते हैं। आपकी शारीरिक शक्ति के पुनः लौट जाने पर भी आपकी भावनाएँ मन्द नहीं पड़ती, वरन् वे और भी क्रियात्मक हो जाती हैं और आप निश्चय रूप से निर्णय कर लेते हैं कि तन्दुरुस्त हो जाने पर अमुक- अमुक बातों को कार्य रूप में परिणित करेंगे।

आपकी मन को एकाग्र करने की शक्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है। आपको देखकर आश्चर्य होता है कि आप कठिन से कठिन समस्या का समाधान भी कितनी सुगमता पूर्वक सोच सकते हैं। इसका कारण क्या है? यही कि आपकी आत्मरक्षा की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ द्रुतगति से काम करने लगती हैं, जो कुछ भी आप देखते और सुनते हैं, उसके तत्व को आप बड़ी शीघ्रता से भाँपने लगते हैं। रोग आपका स्वभाव ग्रहणशील बना देता है, इसीलिए आप चिड़चिड़े हो जाते हैं। हो सकता है कि आप थोड़ी-सी उत्तेजना पर भी रोने लगें। परन्तु इस प्रभाव ग्रहणशीलता का सदुपयोग करना चाहिये।

कलाकारों और प्रेमियों को प्रत्येक युग में इस बात का ज्ञान रहा है कि जिस व्यक्ति को दुःख दिया जाता है, उसमें वह दुःख एक अपूर्व सौंदर्य उत्पन्न कर देता है। इस सौंदर्य का चेहरे की बनावट या वस्त्रादि की सजावट के साथ कोई सम्बन्ध नहीं। यह तो भीतरी मनोहरता है जो उन लोगों की आत्मा और मुखाकृति को प्रकाशित कर देती है, जिन्होंने रुग्णता को एक युद्धाह्वान के रूप में देखना सीखा है और जो आशा एवं उत्साह के साथ इसका सामना करना आवश्यक समझते हैं।

यदि आप कभी बीमार नहीं हुए हैं, यदि आपको कभी एक दिन के लिये भी खाट पर लेटे नहीं रहना पड़ा है-तो आप किसी अमूल्य लाभ से वंचित रहे हैं। जब आपकी बारी आये,तो भयभीत मत हो जाइये। अपने को स्मरण कराइये कि पीड़ा और दुःख आपको कोई ऐसी बहुमूल्य बात सिखाया करते हैं, जो आप अन्यथा कभी नहीं सीख सकते। हो सकता है कि आपके-जीवन की समूची गति को बदल कर अच्छा बना दे। यदि आप और आपके निकटवर्ती सज्जन रोग को भेष बदली हुई भगवत् कृपा समझ कर इससे लाभ उठाने का बुद्धिपूर्वक निश्चय करें, तो आप पहले से अधिक प्रसन्न हो जायेंगे। आप अपनी अस्वस्थता से बड़ा भारी लाभ उठा सकते हैं।


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