इच्छा का आकर्षण

April 1952

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(प्रो. शान्तिचरण विश्वास एम. एम. सी.)

संसार की सब वस्तुएं परमाणुमयी हैं, अत्यन्त लघुकाय ऋणाणु और ‘धनाणु’ द्रुत गति से निरन्तर गति शील रहते हैं और उनकी गति के कारण विविध प्रकार की वस्तुओं का निर्माण, विकास, परिवर्तन और रूपांतर होता रहता है।

यह परमाणु आकर्षण और विकर्षण के नियमों से बँधे हुए हैं। इनमें खींचने और फेंकने की शक्ति हैं। यह दो शक्तियाँ ही उनमें क्रियाशीलता उत्पन्न करती हैं। छोटे-छोटे असंख्य अणु मिलकर एक बड़ी वस्तु बनते है। यह आकर्षण शक्ति ही है जो इतने असंख्य अणु इतनी दृढ़ता से एक स्थान पर जमे रहते हैं। यदि यह आकर्षण न हो तो सृष्टि में एक भी वस्तु का रूप न दिखाई दे। अणुओं की गति हीन धूलि मात्र बिखरी रह जाय।

अध्यात्मवाद का सिद्धान्त है कि जड़ परमाणुओं की भाँति सजीव आत्मा के सूक्ष्म तत्व भी आकर्षण शक्तियुक्त हैं, इन्हीं के कारण प्राणियों में साथ साथ रहने की, एक दूसरे की सहायता करने का, प्रेम की, समाज रचना की एवं वंश वृद्धि की प्रवृत्ति होती है। यदि आत्मा में आकर्षण न होता तो जीवित प्राणियों में तनिक भी सहयोग न होता और कीट पतंगों की प्रकृति के जीव जन्तुओं से यह भूलोक भरा होता। सभ्यता, शिक्षा, विज्ञान, धर्म, समाज और शासन जैसी कोई वस्तु दृष्टिगोचर न होती।

कुछ दिन पहले तक भौतिक विज्ञान वेत्ता केवल यह मानते थे कि अणुओं में आकर्षण शक्ति तो है पर उनमें इच्छा, अनुभूति या स्वभाव नहीं है। अब नवीन शोधों ने उस पूर्व मान्यता को गलत सिद्ध कर दिया है। प्रो. हेकल, संसार के गिने चुने विज्ञान वेत्ताओं में हैं। अणु विज्ञान पर उनका अनुभव असाधारण है, उनमें अपनी नवीन शोधों के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि— “एक अणु दूसरे अणु से मिलने, उसके साथ देर तक बँधा रहने के लिए तभी तैयार होता है जब वह उसकी अनुभूति और इच्छा के अनुकूल हो। उसमें इच्छा एवं संकल्प की एक हल्की सी शक्ति अवश्य है। इसी के कारण अणुओं की वर्गीकरण और वंश विभाजन होता है। असमान जाति के अणु यदि बल पूर्वक मिला दिये जायं तो देखा जाता है कि वे अच्छा संमिश्रण नहीं बनाते और जल्दी ही विलग हो जाते हैं।

मनुष्य का शरीर ही नहीं वरन् मन भी अणुओं का बना है। शब्द एवं प्रकाश की भाँति विचार और संकल्पों के भी परमाणु होते हैं और वे “सम स्वभाव के आकर्षण” वाले नियमानुसार सजातीय विचारों में मेल-जोल बढ़ाते हैं, उनकी ओर खिंचते तथा खींचते हैं। तदनुसार एक समूह का निर्माण होता है। समान प्रकृति के मनुष्य आन्तरिक विचारों के, स्वभावों के, इच्छाओं के आकर्षण द्वारा एक वर्ग बन जाते हैं। पारस्परिक प्रेम तथा एकता के बन्धन में बँधते हैं।

यह इच्छा जो अणुओं में व्याप्त है वस्तुतः शक्ति का स्त्रोत है। ईश्वर ने इच्छा की है कि ‘मैं एक से अनेक हो जाऊँ” फलतः सारी सृष्टि बन गई। जिसमें जितनी इच्छा है उसमें उतना ही आकर्षण होगा और जितना आकर्षण होगा उतनी ही सुविधाएँ वह प्रकृति के भण्डार में से अपने लिये खींच लेगा। एक सामान्य प्राणी मनुष्य को सृष्टि का मुकुटमणि बना देने का श्रेय उसकी बढ़ी हुई इच्छा शक्ति को ही है। इसी के अभाव में अन्य प्राणी शरीर से बलवान होते हुए भी पिछड़े रह गये और दुर्बल काय मनुष्य ने बाजी मार ली।

जो कुछ हमें प्राप्त होता हो वह पहले इच्छा के क्षेत्र में आता है । इच्छा की प्रेरणा से बुद्धि उसका मार्ग ढूँढ़ती है, थोड़े ही समय में इच्छित वस्तु का धुँधला सा आभास उपलब्ध होने लगता है और धीरे धीरे अभीष्ट वस्तु पूर्व रूप से उपलब्ध हो जाती है।

मनुष्य, मनुष्य के बीच में जो भारी अन्तर दिखाई देता है वह उसकी इच्छा का अन्तर ही है। शारीरिक दृष्टि से मनुष्यों में बहुत कम अन्तर होता है पर मनः क्षेत्र में भारी असमानता पाई जाती है। इस अन्तर के कारण ही धनी निर्धन, मूर्ख विद्वान, चतुर भोंदू, निर्बल सबल, साधु दुर्जन, आदि के भेद दृष्टि गोचर होते हैं। जितनी अधिक इच्छा होती है उतनी ही अधिक शक्ति पैदा होती है और उस शक्ति के द्वारा ही अभीष्ट सफलता मिलती है। जो व्यक्ति विशेष प्रतिभाशाली हैं। धनी, नेता, विद्वान, बलवान आदि विशेषता से युक्त है उसमें निश्चित रूप से दूसरों की अपेक्षा इच्छा शक्ति अधिक तीव्र होती है, उसी के कारण उनके शरीर तथा मन के कल पुर्जे विशेष उत्साह एवं तत्परतापूर्वक काम करते हैं। फलस्वरूप स्वसंचालित विद्युत यंत्र की भाँति उनमें वह आकर्षण उत्पन्न होता रहता है जो सफलताओं को खींच-खींच कर समीप ले आता है।

जिनमें इच्छाशक्ति का जितना अभाव है वे उतने ही पिछड़े रहेंगे भले ही उनका शरीर और मस्तिष्क अधिक अच्छा हो, इच्छा की तीव्रता वाला मनुष्य अनेक शारीरिक, मानसिक एवं व्यावहारिक कठिनाइयों के रहते हुए भी काफी उन्नति कर लेता है। आलस्य, निराशा, अनुत्साह, जल्दी थकना, बड़बड़ाना, संकोच, झिझक यह सब इच्छा की न्यूनता प्रकट करते हैं। तीव्र चाह एक विद्युत धारा की तरह मनुष्य के चेहरे पर नाचती रहती है, उसे ही ओज, तेज एवं प्रतिभा आदि कहते हैं।

यदि हम सफल, विजयी, पुरुषार्थी, प्रभावशाली चतुर एवं यशस्वी बनना चाहते हैं तो आवश्यक है कि अपनी इच्छा शक्ति को तीव्र करें। जो वस्तु अभीष्ट हो, जो लक्ष निर्धारित हो, उसे प्राप्त करने के लिये उत्कट लालसा उत्पन्न करें। शेखचिल्ली की तरह सुख सफलता की कल्पना करते रहने से, सपने देखते रहने से काम नहीं चलेगा, ऐसी हीन वीर्य कल्पना निरर्थक है। इच्छा उसे कहते हैं तो अन्तस्तल को हिला दे, प्रेरणा उत्पन्न करें, लक्ष के लिये बेचैन करें, और कठिनाइयों का डर भी मार्ग को न रोक सके। ऐसी इच्छा जिन मस्तिष्कों में मौजूद है जिनकी बुद्धि में समुचित दृढ़ता एवं दूरदर्शिता है वे आज नहीं तो कल निर्धारित दिशा में सफलता प्राप्त करके रहेंगे।


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