सच्चा धन प्राप्त करने की कला

April 1952

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(डेरेक नेबिले)

धनी होना एक कला है, और मेरी समझ में इसका रहस्य अकिंचन बनने में हैं। अकिंचन होने पर ही हम सब कुछ प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं।

हमारे जीवन में सबसे अधिक सुखमय और मूल्यवान् वही क्षण हैं, जब हम भौतिक जगत के मायाजाल से अपने-आपको तटस्थ करके आत्मानुभूति में पूर्ण रूप से स्थित हो जाते हैं। इन क्षणों को प्राप्त करने का सौभाग्य तभी प्राप्त होता है, जब हम दिव्य सौंदर्य के सम्मुख होते हैं, अन्यथा नहीं। भौतिक जगत् की सम्पत्ति इनको नहीं खरीद सकती और न संसार की ऊंची-से-ऊंची अवस्था अथवा शक्ति ही इनको प्राप्त कराने में समर्थ है। क्योंकि ये वही क्षण हैं, जब आत्मा शिशु-सुलभ सरलता से अपने प्रियतम भगवान की अनुपम सुन्दरता का पूजन करती है।

मनुष्य का सुन्दरतम अर्थात् सर्वोत्तम सुखमय क्षण ही उसका सबसे अधिक मूल्यवान समय होता है। मानव-अनुभूति की पराकाष्ठा अपने भाइयों पर शासन करने की अथवा संसार में किसी भी इच्छित, मूल्यवान् निधि को खरीदने की शक्ति में नहीं है। वास्तविक सम्पत्ति तो आत्मा की अनुभूति से ही प्राप्त होती है। सुख की व्यावहारिक मुद्रा अर्थात् चलतू सिक्का ‘प्रेम’ है।

सबसे अधिक धनी वही है, जो सबसे अधिक देता है। ऐसा देना साँसारिक धन के रूप में कदापि नहीं हो सकता। रुपया, आना, पाई केवल प्रतीक मात्र हैं, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। कभी तो ये उन बेड़ियों के प्रतीक बन जाते हैं जो हमें संसार में बाँधती हैं और कभी उस प्रेम के जो हमें जड़वाद से मुक्त करता है, किंतु जीवन के सच्चे सम्पन्न अर्थात् सुखद क्षणों में तो अधिकतर इनका प्रवेश ही नहीं होता।

जिस संसार में हम चलते, फिरते और बसते हैं, उसको यथार्थ रूप में समझने की चेष्टा अवश्य करनी चाहिये। साधारण मनुष्य की दृष्टि केवल गलने-सड़ने और नष्ट होने वाली वस्तुओं पर ही निर्णय दे सकती है। परन्तु इस ऊपरी स्थूलता के पीछे बहुमूल्य आध्यात्मिक वस्तुओं का एक अनादि सागर है-अलौकिक सम्पत्ति की एक बाढ़-जिसके सम्बन्ध में हम प्रायः अनभिज्ञ हैं। तथापि यह आध्यात्मिक सम्पत्ति सबके लिए समान रूप से प्राप्य है। इसके लिये धनी-दरिद्र की अपेक्षा नहीं इस सम्पत्ति पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। और वास्तव में इसी की प्राप्ति के लिये तो हमारा इस संसार में जन्म हुआ है। यदि हम इस आध्यात्मिक सम्पत्ति के जो अलौकिक सुन्दरता की खान है, अनुसंधान में तत्पर नहीं होते तो हमारा जीवन नीरस और निरर्थक बन जाता है।

जो मनुष्य साँसारिक समृद्धि से सन्तुष्ट होने की कल्पना करता है, उसके सम्बन्ध में यदि यह कहा जाय कि गगन के नक्षत्र ही उसके लिये एक-एक करके अदृष्ट और निस्सार होते जाते हैं तो अत्युक्ति नहीं होगी। क्रमशः उसके जीवन में एक समय ऐसा भी आता है, जब वह अपने क्षुद्र व्यावहारिक क्षेत्र की सीमा के बाहर कुछ भी नहीं देख सकता। उसकी दृष्टि ऊपरी दृश्यों के अन्तस्तल में प्रवेश ही नहीं करती, इन्द्रियों की अनुभूति के अतिरिक्त वह और कुछ भी जिज्ञासा नहीं करता और वह यह समझ नहीं पाता कि आत्म शक्ति के बिना ये इन्द्रियाँ केवल मुद्रा हैं। ऐसे जीवन-व्यापार में वह केवल अपनी आत्मा का ही हनन करता है।

परन्तु जो उस अनुपम दिव्य सौंदर्य को अपने जीवन की सबसे अधिक मूल्यवान् विधि समझकर अपनी आत्मा की अनिर्वचनीय मौन प्रेरणा का अनुकरण करता है, वह निश्चय ही एक दिन इस पृथ्वी और इसकी समृद्धि का मालिक हो जाता है। क्योंकि ऐसे ही महानुभावों के सम्मुख जीवन का रहस्य स्वतः पूर्णरूपेण व्यक्त हो जाता है।

यह साधारण रहस्य की बात है, इतनी सरल है कि इसको समझने के लिये हमें विद्वत्ता की कोई आवश्यकता नहीं। जीवन की अमूल्य निधि एक स्त्रोत के समान स्वतः हमारे भीतर से फूट पड़ती है। सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रों का अस्तित्व तो द्रष्टा के चर्म-चक्षुओं पर निर्भर करता है। हमारे धर्म-चक्षु जो कुछ बाह्य जगत् में सुन्दरता अथवा सम प्रवाहित गति को देखते हैं, ये सब हमारे अभ्यन्तर जीवन के बाहरी प्रमाण हैं। धनी होने में ऐसी अनुभूति ही सच्ची कला है।

ऐसा समझना मूर्खता होगी कि हमारे सामान्य व्यवहारों का कुछ भी महत्व नहीं है। प्रतिदिन हम सैकड़ों काम करते हैं, परन्तु हमारे जीवन में उस काम का सर्वोच्च महत्व है, जिसका देखने में न कोई स्वरूप है और न सार ही। हमें यह समझना चाहिये कि सब वस्तुओं और सब कर्मों में बाहर और भीतर आध्यात्मिक शक्ति का प्रवाह है, जिसके आधार पर विश्व स्थित है।

आत्म निरीक्षण के अभ्यास से ही हमारे चक्षु खुलते हैं। यदि सामान्य दृष्टि प्रत्येक स्थूल अथवा सूक्ष्म वस्तु को देखने का एकमात्र साधन होती तो सब-के-सब आत्मानुभूति के एक ही स्तर पर होते। किंतु देखने में आता है कि बहुत-से लोग ऐसे हैं, जिनके चर्म-चक्षुओं की ज्योति पूर्ण रूप से ठीक है तथापि विश्व में वे उस दिव्य उज्ज्वल सौंदर्य को नहीं देख सकते। इसका कारण यह है कि उनको अपने अभ्यन्तर जीवन में स्थूल दृष्टि के स्त्रोत का अनुभव नहीं हुआ।

आध्यात्मिक व्यापार क्षेत्र की एकमात्र उपयुक्त मुद्रा ‘प्रेम’ है और इसके बदले में कुछ भी पाने की भावना के बिना प्रदान करना होगा। इसको हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि हमारे जमा-खाते की बढ़ती जितनी खर्च करने पर निर्भर करती है, उतनी जमा करने पर नहीं। यह निश्चय ही साँसारिक व्यवहार के बिलकुल विपरीत है। क्योंकि आध्यात्मिक सभ्यता भौतिक सभ्यता के ठीक विपरीत होती है। संसार भौतिक लाभ पर जोर देता है तो आत्मा त्याग पर। संसार समृद्धि को भौतिक शक्ति से नापता है तो आत्मा नम्रता और विनय के अनुपात से।

अन्तर केवल वैसा ही है जैसा कि प्रभेद दिखाने कि लिये हम एक प्रयोग के परिणाम की तुलना ठीक उसके विपरीत प्रयोग के परिणाम से करते हैं। क्योंकि साँसारिक मनुष्य कभी भी सुख शान्ति का अनुभव नहीं कर सकता। उसका सुख और आध्यात्मिक सम्पत्ति तो आत्मा के व्यापार को समझने की सामर्थ्य पर निर्भर है।

वर्तमान जगत् की बड़ी-बड़ी समस्याएँ उतनी जटिल नहीं जितनी कि देखने में आती हैं। मनुष्य उनको अपनी बुद्धि और स्थूल शक्ति यों द्वारा सुलझाने की चेष्टा करता है, परन्तु यह नहीं समझता कि ये सब समस्याएँ उसकी मूर्खता से उत्पन्न हुई हैं, आध्यात्मिक शक्ति के प्रयोग से संसार की बड़ी-से बड़ी समस्या अति अल्पकाल में ही सुलझ जाती है।

यह कहा जाता है इस समय मानव-जाति को अनेक अति आवश्यक वस्तुओं के अभाव का सामना करना पड़ रहा है। परन्तु आध्यात्मिक शक्ति की कमी नहीं, वह प्रचुर मात्रा में उपस्थित है। यदि इसका अनुसंधान करके इसको प्रधानता दी जाय तो छूमन्तर की तरह संसार की अनेक समस्याएँ काफूर हो जायं। फिर सबको सहज ही सदा की भाँति खाद्य पदार्थ प्रचुर मात्रा में प्राप्त हों और सबके हाथ में रोजगार भी आ जाये। यदि प्राणियों के जीवन और कार्य के पीछे सेवा की भावना हो तो मनुष्य मात्र एक नवीन उत्साह से अनुप्राणित हो उठे। आध्यात्मिक सम्पत्ति ही मानव-जाति को सर्वोच्च समृद्धि की प्राप्ति करा करती है।


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