मोह के बन्धन मत बढ़ाइए।

April 1952

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र, एम. ए.)

संसार की नाना वस्तुओं का मोह आत्मा को बेड़ियों में बाँधता है छोटी-छोटी वस्तुओं में मनुष्य की मनोवृत्ति संलग्न रहती है। जितना अधिक मोह उतना ही बंधन उतनी ही मानसिक अशांति। साँसारिक चमक-दमक में जितना विलीन होंगे, उतना ही आत्म-तत्व को खो देंगे।

एक महर्षि की कथा कही जाती है। एक महात्मा संसार में बैरागी बन, संसार की सम्पूर्ण माया, ममता का बन्धन काट कर संन्यास धारण कर वन में तपश्चर्या के लिये गये। संसार को भूल कर निरन्तर आत्मा में लीन हो गये। साधना करते-करते कई मास व्यतीत हो गये। मन पर संयम तथा अन्तःवृत्तियों पर शासन करने लगे। एक दिन क्या देखते हैं कि उनके आश्रम में दो सौ गज दूर पर बकरियों का एक झुण्ड हरी घास चर रहा है। इतने में एक सिंह ने आक्रमण किया और एक बकरी को ले गया। सब बकरियाँ यत्र-तत्र भाग गई केवल मिमियाता हुआ एक बच्चा छूट गया। उसकी माँ सिंह के द्वारा ले जाई जा चुकी थी। महात्मा को दया आई। वे गये और उस छोटे बच्चे को उठा लाये। पालने लगे उस बच्चे के लिये हरी घास तथा जल का प्रबन्ध करने लगे। मास भर में बच्चे में स्वास्थ्य आ गया। ममता मोह बढ़ा। बच्चे को छाया देने के लिए महात्मा ने एक पर्णकुटी की रचना की, घास चारे का प्रबन्ध किया। वर्ष भर में बकरी बढ़ कर जंचने लगी। फिर ऐसा समय आया जब उसके दो छोटे-छोटे बच्चे उत्पन्न हुए। एक से तीन हो गये। महात्मा की चिन्ता और बढ़ी। अब उन्हें अधिक चारे तथा स्थान का प्रबन्ध करना पड़ा। होते-होते महात्मा के पास बकरियों का एक पूरा झुण्ड हो गया। जिस संसार को छोड़कर चले थे, मोह वश होकर फिर उसी में वापस आ गये उनकी आत्मा बकरी के प्रत्येक बच्चे में बँध गई।

मनुष्य का मोह नाना वस्तुओं जैसे घर, जायदाद, बच्चों, छोटी-छोटी अनेक वस्तुओं के प्रति होता है यही बन्धन है। जब उसकी किसी वस्तु को किसी प्रकार का कष्ट पहुँचता है, या किसी स्वार्थ पर चोट आती है तो आत्मा को कष्ट होता है। मनः शान्ति भंग हो जाती है। मनुष्य अन्दर ही अन्दर मानसिक पीड़ा का अनुभव करता है।

सन्तान का मोह मनुष्य की आत्मा का सबसे बड़ा बन्धन है। आपके तीन बच्चे हैं, पत्नी है, इनमें से कोई भी बीमार होकर मनः शान्ति भंग कर सकता है। पत्नी को कोई रोग हो जाय, तो आपका मन दुखी रहता है। सन्तान से आप कुछ आशा करते हैं, यदि वह पूर्ण नहीं होती तो आप मन की पीड़ा से विक्षुब्ध हो उठते हैं।

मान लीजिए, आप एक छोटा कुत्ता घर में पाल लेते हैं। एक प्राणी का घर में आगमन आत्मा पर एक नया बन्धन होगा। उसके भोजन, स्वास्थ्य, निवास, प्रसन्नता इत्यादि की अनेक चिन्ताएँ आपकी आत्मा पर आ जायेंगी। घर में पला हुआ प्रत्येक पक्षी आपकी आत्मा को मोटे-मोटे रस्सों में बाँधता है। किसी दूसरे व्यक्ति के बाल बच्चों को अपने घर में रख लेना आत्मा के बोझ को बढ़ाना है।

आपके पास एक घर है, पर आप एक और लेने की कामना करते हैं। यह नया बन्धन होगा। आवश्यकता से अधिक कुछ भी रखना, तरह-तरह के शौक, फैशनपरस्ती, धन की तृष्णा, भोग-विलास की अतृप्त कामना आत्मा के बन्धन हैं। इनमें से प्रत्येक में बँध कर मनुष्य तड़प जाया करता है। मोह के ये बन्धन मजबूत जंजीरों से आपको बाँधे हुये हैं। जब-जब आप मनः शाँति का लाभ उठाना चाहते हैं तब तब इनमें से कोई भोग पदार्थ आपको खींच कर पुनः पहली वाली स्थिति में ला पटकता है। मनुष्य की मुक्ति नहीं- स्वतन्त्रता नहीं।

आपके परिवार का प्रत्येक व्यक्ति पर एक प्रकार का बन्धन है। ऋण-बन्धन है, फैशन की वस्तुएँ, जिनके एक दिन ना होने से आप दुख का अनुभव करते हैं, आपका बन्धन है। मादक द्रव्य-शराब तम्बाकू, चाय, बीड़ी इत्यादि वस्तुएँ, जिनसे आप बंधे हुये हैं, आपको आध्यात्म पथ में अग्रसर नहीं होने देते, आपका प्रत्येक सामाजिक, आर्थिक पारिवारिक, उत्तरदायित्व आप पर बन्धन स्वरूप होकर आता है। यदि आपको बढ़िया सूट-बूट कीमती वस्त्र पहनने का व्यसन है, तो इनकी अनुपस्थिति में आप मनःशाँति भंग कर लेंगे। यदि किसी दिन साधारण भोजन प्राप्त हुआ और आप नाक-भौं सकोड़ने लगे, तो यह भी मन की शान्ति को भंग करने वाली है। दो चार दिन के लिये भी आपको साधारण घर, कुटी या धर्मशाला में रहना पड़े तो आप बिगड़ ही उठते हैं। यह सब इसलिये है कि आपने विविध रूपों से, अपनी आत्मा को कृत्रिम उत्तरदायित्वों से बाँध लिया है। आत्म-तत्व को खो दिया है। जरूरत से अधिक संसार में लिप्त हो गये हैं। अपनी आत्मा के प्रति ईमानदार नहीं रहे हैं।

तुम्हारा सम्बन्ध संसार की इन अस्थिर एवं क्षणिक सुख देने वाली वस्तुओं से नहीं हो सकता। तुम उत्तम वस्त्रों में अपने जीवन के निरक्षेप सत्य को नहीं भूल सकते। तुम स्वच्छन्द, संसार के क्षुद्र बंधनों से उन्मुक्त आत्मा हो। तुम वस्त्र नहीं, पारिव्य नहीं, संसार के भोग-विलास नहीं, प्रत्युत सत चित् आनन्द स्वरूप आत्मा हो। तुम्हारा निकट सम्बन्ध आदि स्रोत परमात्मा से है। उसी सत्ता में विलीन होने से आत्म सन्तोष प्राप्त होता है।

तुम्हारे जो सम्बन्ध संसार से जकड़े हुये हैं, वे दुःख स्वरूप हैं, मृत्यु से जो तुम्हें भय प्रतीत होता है, उसका कारण ये ही साँसारिक मोह है न माता, न पिता, भाई, पत्नी, पुत्र सम्बन्धी कोई भी तुम्हारे साथ सर्वथा नहीं रह सकता। ये बाह्य बन्धन हैं। सबसे उत्तम मार्ग तो यह है कि इनमें रहते हुये भी, सदा अपने आपको पृथक समझा जाय। जैसे कमल जल में रहते भी सदा जल से ऊपर रहता है, उसी प्रकार साँसारिक बन्धनों में रहते हुए गृहस्थ के कर्त्तव्यों का पालन करते हुए भी सदा अपने आपको संसार से मुक्त देखिए।

‘मैं संसार से सर्वथा मुक्त हूँ। मेरा लगाव इतना ही है, जितना कमल का जल से होता है, धन, मान, सम्पदा, वासना के चक्र, बनाव-शृंगार, पर-गौरव, माया-मोह कोई मुझे सदा के लिए नहीं बाँध सकते। मैं संसार का मिथ्यात्व, अस्थिरता और व्यर्थता समझ गया हूँ। संसार से मेरा सम्बन्ध अस्थायी है। मैं तो आत्मा हूँ। आत्मतत्वों से विभूषित हूँ। आनन्द कन्द परमेश्वर जिसमें समस्त इच्छाओं का निरोध ही- अक्षय सुख आनन्द, उल्लास प्राप्त होता है, उस, से मेरा निकट सम्बन्ध है। मैं आत्मा के महान तत्व को अपने जीवन में स्पष्ट कर रहा हूँ। मेरा अस्तित्व महान उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हुआ है। मैं संसार की उलझनों में अपनी आत्मा को नहीं भूलूँगा। मैं साँसारिक समस्याओं में, खान-पान, शृंगार, धन एकत्रित करना, दूसरे का माल हड़पना, अनुचित हस्तक्षेप, रिश्वतखोरी से बहुत ऊँचा हूँ। मैं इन शुद्ध बातों से स्वतन्त्र हूँ। मेरे मन की छिपी हुई अभद्र कल्पनाएँ, पापमय वासनाएँ नष्ट हो चुकी हैं। धन, जन, मान, प्रतिष्ठा, जायदाद, ईर्ष्या, द्वेष रहित होकर परम निर्मल हो गया हूं। मैं विशुद्ध आत्मा हूँ। मेरी साँसारिक रुकावटें हट गई हैं। सब पार्थिव बन्धन खुल गए हैं।”

उपरोक्त भावना में रमण कीजिए। पुनः पुनः इस पर विचार करने से आत्म चिंतन की भावना गुप्त मन में स्थायी हो जायेगी। अज्ञानता जन मोह दूर हो जायगा, आत्म-भाव का उदय होगा। तुम्हारी अशाँति छोटे मोटे झगड़े, व्यर्थ ही दुरभि-सन्धि, शुद्ध वस्तुओं के प्रति मोह, शरीर, रुपया, मान, ईर्ष्या, वासना-दृष्टि सम्बन्धी चिंताएँ, समस्त उद्वेग, मानसिक परतन्त्रता दूर हो जायगी। अतः संसार की चमक-दमक में आप अपना आत्म तत्व न खो दें।

आवश्यकता से अधिक धन संग्रह करने का मोह त्याग दीजिये। आपके लिए एक मकान ही पर्याप्त है। व्यर्थ के लेन देन, सूद पर रुपया देना, खाद्य पदार्थों का संग्रह त्याग दीजिए। परिवार की वृद्धि न कीजिए। दूसरों की जिम्मेदारियाँ अपने ऊपर लेना मूर्खता है। अपने ऊपर कम से कम बोझ रखिए। “मैं आत्मा तत्व हूँ। सब प्रकार के विकारों से मुक्त हूँ”

इस भावना का चिन्तन और व्यवहार करने से जगत् आनन्दमय दीखने लगता है। निर्लिप्तावस्था में ही मनः शान्ति स्थिर रह सकती है। उठिए, अपनी आत्मा के बन्धनों को काट डालिये।


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