अन्तर्ध्वनि

April 1952

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(1)

पीछे मुड़कर देखो न कभी-

इसलिए कि आगे चलना है।

बड़वानल की लपटों को तो-

सागर-जल में भी जलना है,॥

हिम क्यों न हिमालय का भी हो

पर उसको भी तो गलना है,।

असफलता और सफलता तो

मानव के मन की छलना है॥

पाषाणों के सीने पर भी-

निर्झर निर्भय हो बहता है।

मेरा मन मुक्त से कहता है॥

(2)

बुद-बुद पल-पल में मिट जाते-

पर मिट कर कब बनना छोड़ा।

कलियाँ खिलकर मुरझा जातीं,

खिलना न हुआ अब तक थोड़ा॥

युग-युग से लूट रहे मौंरें-

सुमनों ने कब नाता तोड़ा।

इसलिए पराजय के क्षण भी-

मुँह मैंने आज नहीं मोड़ा,॥

मिट्टी का निर्मित मानव ही-

आँधी पानी सब सहता है।

मेरा मन मुझ से कहता है॥

(श्री जगदम्बा प्रसाद जी त्यागी बी. ए.)


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