गायत्री चर्चा

April 1952

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नवरात्रि की तपश्चर्या :- नवीन सम्वत्सर की इस नवरात्रि के अवसर पर अखण्ड-ज्योति की प्रेरणानुसार देश भर में गायत्री उपासना की तपश्चर्या बहुत ही संतोषजनक रीति से पूर्ण हुई। तप से अन्तःकरण के मल जलते हैं और आत्मबल बढ़ता है। असुरता घटती और देवत्व पनपता है। अनेकों ग्रन्थ पढ़ने और अगणित प्रवचन सुनने पर भी जिनकी मनोभूमि में कोई सुधार नहीं हो सका उन्हें थोड़े ही तप से अपने अन्दर एक अपूर्व परिवर्तन परिलक्षित होता है। स्वाध्याय, सत्संग, कथा, कीर्तन, हवन, दान आदि का अपना महत्व है, पर तप की महत्ता सर्वोपरि है। क्योंकि आत्मबल का, ब्रह्म तेल का, अन्तःप्रकाश का उद्भव तप के बिना अन्य किसी मार्ग से नहीं हो सकता।

हमारा प्राचीन इतिहास साक्षी है कि किन्हीं महान् आपत्तियों की निवृत्ति एवं किन्हीं महान् आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये कोई न कोई महान् तप आवश्यक हुए हैं। जब मनुष्य का भौतिक प्रयत्न और पुरुषार्थ शिथिल हो जाता है तब उसके लिये तप का अचूक अस्त्र ही एकमात्र अवलम्बन रह जाता है। आज मनुष्य की व्यक्तिगत एवं सामूहिक समस्याएँ इतनी विपन्न एवं उलझी हुई हैं कि उनके समाधान के लिये तप के दिव्य अस्त्र की ओर ही ध्यान जाता है। अखण्ड-ज्योति परिवार सहस्राँशु ब्रह्मयज्ञ के उस महान् आयोजन में प्रवृत्त है जो इस युग के लिये अभूतपूर्व ही है। इस नवरात्रि की व्यापक उपासना से उसमें और भी चार चाँद लग जाते हैं। इस तप के ऐसे सूक्ष्म परिणाम होंगे जो इस महान् तपश्चर्या में प्रवृत्त तपस्वियों का ही नहीं, समस्त मनुष्य जाति का, समस्त संसार का कल्याण उपस्थित करेंगे।

गायत्री मन्त्र लेखन :- इस वर्ष गायत्री जयन्ती के उपलक्ष में गायत्री उपासकों द्वारा 24 लक्ष हस्तलिखित मन्त्र माता के चरणों पर चढ़ाने का जो संकल्प किया गया है, हर्ष की बात है कि उनमें भाग लेने का अधिकाँश सदस्यों ने उत्साह पूर्वक स्वागत किया है। निर्धारित संख्या तो नियत समय तक पूरी हो ही जायगी ऐसा निश्चय है।

इस सम्बन्ध में ऐसा निश्चय किया गया है कि समस्त गायत्री उपासकों के एक सुन्दर स्मारक एवं सम्मेलन के रूप में यह हस्तलिखित मन्त्र सुरक्षित रखे जावें। जो भी सज्जन अपने हस्तलिखित गायत्री मंत्र भेजेंगे, उनकी यहाँ पर अलग अलग सुन्दर जिल्दें बँधवा ली जावेंगी और गायत्री मन्दिर जब तक कायम रहेगा तब तक सैकड़ों हजारों वर्षों तक यह मन्त्र भी यहाँ सुरक्षित रहेंगे और नित्य प्रति इनका भी षोडशोपचार पूजन, धूप, दीप, आरती आदि के साथ होता रहेगा।

मंत्र लिखने से पूर्व एक पृष्ठ पर लेखकों का अपना पूरा नाम, पता, वर्ण, आयु, संतान, व्यवसाय, शिक्षा, तथा अन्य आवश्यक परिचय जो उचित हो लिखा रहना चाहिए ताकि अन्य साधकों को उनके परिचय प्राप्त करने में सुगमता हो। हो सके तो अपना फोटो भी साथ भेजना चाहिए। जिससे यह स्मारक अधिक पूर्ण बन सके। भविष्य में इन परिचयों के आधार पर भारत वर्ष भर के गायत्री उपासकों का एक इतिहास ग्रन्थ भी बन सकेगा।

साधारणतः यह आशा की जाती है कि प्रत्येक उपासक कम से कम 2400 मंत्र लिखे। पर इससे न्यूनाधिक भी स्वेच्छापूर्वक लिखे जा सकते हैं, गायत्री जयंती (जेष्ठ सुदी 10) तारीख 3 जून को यह मन्त्र माता के चरणों पर समर्पित किये जावेंगे। जो सज्जन अपने मन्त्र पूरे लिख लें वे उस तिथि से पूर्व यहाँ भेज दें। जिनके मन्त्र पूरे न हो सकें वे इस प्रकार का संकल्प पत्र लिखकर भेज दें कि “हम अमुक तिथि तक इतनी संख्या में मन्त्र लिख कर भेज देंगे।” वह संकल्प पत्र माता के चरणों में अर्पित कर दिया जायगा। पीछे उस ऋण को यथा समय ‘चुका देनी चाहिए।

चूँकि यह श्रम बहुत समय तक और बहुत श्रद्धा के साथ किया हुआ होगा, इस लिए इसे रजिस्ट्री, बुक पोस्ट से ही भेजना चाहिए। साधारण पैकिट बहुधा डाक में ही गुम हो जाते हैं और उनके न पहुँचने का वस्तुतः भारी खेद होता है। सभी मन्त्र एक ही साइज की जिल्दों में रहे इसलिए स्कूली कापियों के साइज की ही कापी लेनी चाहिए। कागज यथासम्भव कुछ अच्छा ही लगाना चाहिए जो लम्बी अवधि तक रखे रहने योग्य हो। मन्त्रों पर क्रम संख्या डालते जाना चाहिए जिससे उनकी गिनती होने में भूल न पड़े।

साकार और निराकार उपासना :- उपासना के दो अंग हैं। (1) साकार उपासना, (2) निराकार उपासना। साकार उपासना वह है जिसमें ईश्वर की या उसकी किसी विशेष शक्ति की कोई प्रतिमा बनाकर उसका ध्यान एवं पूजन किया जाता है। यह प्रतिमा किसी धातु, पत्थर आदि की या चित्र की बनी हो सकती है और उसकी मांगलिक वस्तुओं से षोडशोपचार पूजा की जाती है अथवा केवल ध्यान द्वारा किसी प्रतिमा में अपना मानसिक वन्दन और तादात्म्य किया जा सकता है।

निराकार उपासना में मनुष्याकृति प्रतिमा की आवश्यकता नहीं पड़ती। केवल प्रकाश ज्योति, शून्य आकाश आदि की कोई प्रकृति परक स्थिति का ध्यान करके ईश्वर में तादात्म्य स्थापित किया जाता है।

इन दोनों उपासना विधियों में कोई विरोध नहीं, वरन् एक दूसरे की पूरक हैं। आरम्भिक साधक के लिये मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर साकार उपासना उपयोगी पड़ती है। ऊँची स्थिति में पहुँचे हुए साधक के लिये फिर उसकी आवश्यकता नहीं रह जाती उसके लिये निराकार उपासना ठीक पड़ती है।

पुजारियों के अनाचार, मन्दिरों की अव्यवस्था, दान के धन का दुरुपयोग, ईसाई मुस्लिम धर्मों का प्रभाव आदि कारणों से पिछले दिनों मूर्ति पूजा विरोधी आन्दोलन होता रहा है। समाज सुधार एवं उत्पन्न हुई बुराइयों के निराकरण की दृष्टि से वह आन्दोलन बहुत हद तक उपयोगी भी था पर साधना के मनोवैज्ञानिक एवं सूक्ष्म नियमों के आधार पर बनी हुई साकार उपासना से उसका कोई गम्भीर विरोध नहीं समझना चाहिए। क्योंकि बुतपरस्ती से घोर द्वेष करने वाले मुसलमान भी मजार, ताजिया, दुलदुल, कावे का पत्थर आदि के माध्यम से किसी न किसी प्रकार उसे करते हैं। धर्म से दूर रहने वाले आज के राजनीतिक नेता भी झण्डा वन्दन, महात्मा गाँधी की समाधि पर माथा टेकना आदि क्रियाएँ करते हैं।

पिछले दिनों खण्डन मण्डन के जो कटु आन्दोलन चले हैं उनका प्रभाव साधना क्षेत्र के जिज्ञासुओं तक को भ्रम में डाल देता है। कोई साकार पूजक निराकार साधना के विरोधी हैं, कोई निराकार उपासक, साकार साधना से नाक- भौं चढ़ाते हैं, यह कट्टरता अवाँछनीय है। दोनों ही साधना पद्धतियाँ उपयोगी एवं आवश्यक हैं। अपनी मनोभूमि, स्थिति, अधिकार, रुचि, कक्षा, सुविधा आदि के आधार पर साधकों को अपने लिये साकार या निराकार साधना चुन लेनी चाहिये, किन्हीं के लिये दोनों का मिश्रित रूप भी उपयोगी होता है।

गायत्री की साकार उपासना करने वालों के लिए माता की सुन्दर मूर्ति या चित्र या प्रतिमा मांगलिक द्रव्यों से पूजन एवं भक्ति भावना पूर्ण ध्यान एवं अभिवन्दन आवश्यक होता है।

जिन्हें गायत्री की निराकार उपासना करनी हो वे प्रकाश की प्रज्ज्वलित ज्योति के रूप में, भृकुटि, सूर्यचक्र या आकाश में ध्यान करें। बाह्य पूजा में अग्नि को देव प्रतिमा मानकर अग्निहोत्र, धूपबत्ती, घी का दीपक आदि के रूप में सुगंधित हविष्य जलाते हुए पूजन की विधि पूर्ण कर लें।

निराकार साकार पूजा में कोई विरोध नहीं है। केवल कक्षा, श्रेणी, रुचि एवं मान्यता का अन्तर है। साधक अपनी स्थिति के अनुकूल अपनी साधना चुन लें।

गायत्री मन्दिर का स्थान :- हर्ष की बात है कि गायत्री मन्दिर बनने का आरम्भ अब होने ही वाला है, उसका स्थान सम्बन्धी निर्णय शीघ्र ही हो जाना है, ताकि आगे की व्यवस्था चालू करने में विलम्ब न हो। गायत्री मन्दिर का स्थान कहाँ हो, इस सम्बन्ध में परिजनों के दो मत हैं।

एक पक्ष का कहना है कि मन्दिर शहर से दूर एकान्त जंगल में होना चाहिए ताकि साधकों को तपस्या करने में शुद्ध वातावरण की प्राप्ति हो।

दूसरे पक्ष का कहना है कि दूर जंगल का मन्दिर केवल स्थायी तपस्वियों के काम का ही रह जायगा। जो लोग थोड़ा समय लेकर तीर्थ यात्रा के उद्देश्य से जाते हैं उनके लिए वहाँ पहुँचना और ठहरना बड़ा कष्ट साध्य होगा। सवारी, खाद्य सामग्री, सुरक्षा आदि की कठिनाई रहने के कारण उस स्थान से लोग समुचित लाभ न उठा सकेंगे। चूँकि यह संस्था अधिक लोगों को गायत्री विद्या का अधिक लाभ पहुँचाने के लिए स्थापित की जा रही है, इसलिए वह नगर में या नगर के निकट ही होनी चाहिये।

उपरोक्त दोनों पक्ष अपने अपने मत के समर्थन में अनेक तर्क उपस्थित करते हैं इसलिये ऐसा विचार किया गया है कि इस प्रश्न का निर्णय सभी गायत्री प्रेमियों की सलाह से किया जाय। समस्त गायत्री उपासकों से विशेष कर उन सज्जनों से जिन्होंने गायत्री मन्दिर के लिए सहायता भेजी है, प्रार्थना है कि अपनी सम्पत्ति भेजें कि वे किस पक्ष का समर्थन करते हैं। बहुमत के आधार पर ही इस प्रश्न को हल किया जायगा। अभिमत यथा संभव शीघ्र ही आने चाहिए।


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