आत्मज्ञान और ऋद्धि-सिद्धियाँ

May 1951

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(श्री स्वामी सर्वदानंद जी)

हठयोगी बड़े-बड़े चमत्कार करते हैं। किन्तु इस विद्या के द्वारा उनका हृदय पवित्र हो जाता हो, वे मायाजाल को छोड़ देते हों सो बात नहीं वरन् कभी-कभी तो यह देखा जाता है कि ऐसे हठयोगी बड़े पक्के दुनियादार होते हैं। हाँ, हठ योगी ने आत्म-ज्ञान भी प्राप्त कर लिया हो, उसे आत्म-साक्षात्कार हो गया हो तब तो बात ही दूसरी है किन्तु यह हठयोग का सुफल किसी प्रकार नहीं कहा जा सकता।

हठयोगियों के चमत्कार विलक्षण होते हैं और उनमें भूलकर उनके पीछे पड़ जाना मनुष्य के लिए सरल है। एक हठयोगी अपनी आंखों पर पट्टी बाँध कर पढ़ सकता है। कोई कोई खेचरी मुद्रा का अभ्यास करके महीनों वर्षों पृथ्वी के अन्दर पड़े रह सकते हैं। कोई-कोई इसके अभ्यास से पानी पर चलने लगते हैं एक हठयोगी किसी भी मनुष्य को भी श्री सम्पन्न बना सकता है। किन्तु उसे स्वयं धन की चिन्ता बनी रहती है। बदन में सुई चुभाना, चाकू या तलवार खा लेना तो हठयोगियों के लिए मामूली बात है। किन्तु इन बातों से अज्ञान का परदा सदा के लिये हमारी आंखों से कदापि नहीं हट सकता।

हठयोग में मन को वश में करने की क्रिया है। मन बड़ा चंचल है। मन को हम साँप से उपमा दे सकते हैं। जब साँप को ठंड लगती है तब वह सिकुड़ कर एक गोला बन जाता है। उस समय चाहे जो उसे उठा कर ले जा सकता है। बच्चे भी उसके साथ खेलने लगते हैं। किन्तु जरा उसे आँच दिखा दीजिए और वह फिर ज्यों का त्यों फुफकारने लगता है। हठयोगी जो समाधि लगाते हैं वह साँप को ठंड लगने के समान है। जब तक वह समाधि में रहता हैं तब तक संसार का मायाजाल उसे नहीं सता सकता। किन्तु ज्यों ही वे उससे नीचे उतरते हैं त्यों हि दुनियादारी उन्हें घेर लेती है। बात यह है कि जब तक हम साँप के विष के दाँत निकाल कर नहीं फेंक देते तब तक हम निर्भय नहीं रह सकते। जब तक मन में वासना का राज्य है तब तक क्षणिक समाधि से हमें उस सच्चिदानन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसीलिए हमें पहले साँप के दाँत उखारने होंगे। पहले मोहनी मन्त्र के द्वारा साँप को वशीभूत कर लीजिये मन को वश में करने के लिए वेदान्त ही मोहनी मंत्र है। सौ बात की एक बात यह है कि जब तक वासना दूर नहीं होगी, जब तक चरित्र निमार्ण न होगा तब तक केवल हठयोग की समाधि से कुछ नहीं हो सकता।

बहुत से आदमी हठयोग का अभ्यास करके रुपये कमाना चाहतें है। हठयोग के द्वारा मन की एकाग्रता होती है। किन्तु यदि साँप के विषैले दाँत नहीं निकाले गये- यदि वासनाएँ नहीं दूर की गई तो समाधि और एकाग्रता दूर होते ही प्रलोभन बेतरह सताने लगते हैं। भक्त भगवान के मन्दिर में जाता है और भक्ति के आवेश में अपना सर्वत्र भगवान को सौंप देता है उस समय उसके मन की अवस्था बहुत ऊंची हो जाती है। घड़ी भर के लिए वह आनन्द से सराबोर हो जाता है किन्तु घर पहुँचते ही वह शराबी की भाँति फिर भगवान से अपना एक-एक सामान वापस लेने लगता है। वह घर को फिर अपनी निजी सम्पत्ति समझने लगता है। अपने परिवार को अपना परिवार मानता है और उनके सुख-दुःख में मग्न हो जाता है।

वेदान्त कहता है कि यदि घड़ी भर के त्याग से तुम्हें इतना आनन्द मिलता है तो यदि सचमुच तुम अपना सर्वस्व भगवान को सौंप दो तब तुम्हें कितना आनन्द मिलेगा? क्या तुम्हें उसके सच्चिदानन्द स्वरूप होने में कोई संदेह है?

हठयोग उन्नति का एक छोटा सा मार्ग है। किन्तु यदि हमें उस सच्चिदानन्द स्वरूप के पास पहुँचना है तो हमें प्रवृत्ति मार्ग छोड़कर निवृत्ति मार्ग ही ग्रहण करना होगा। यदि हमें राजा से मिलना है तो राजा के नौकर-चाकरों की खुशामद से क्या लाभ? हमें सीधे राजा को अपना मित्र बनाना चाहिए। वेदान्त निवृत्ति मार्ग के द्वारा हमें सीधे उसी राजा को अपना मित्र बनाना चाहिए।

इसलिए हठयोग का अभ्यास करना चाहिए या नहीं? इसके उत्तर में वेदान्त भी यही कहता है कि तुम्हें हठयोग द्वारा प्राप्त ऋद्धि-सिद्धियों के मजा लुटने की लालसा है तब तो वह शुद्ध दुनियादारी है उससे आत्मिक उन्नति की आशा करना व्यर्थ है। हमें मृत पुरुषों से बातचीत करने की चेष्टा करना चाहिए या नहीं? इसके उत्तर में वेदान्त कहता है कि तुम मृत पुष्पों से बातचीत तो अवश्य कर सकते हो किन्तु मृत पुरुषों की अपेक्षा जीवित पुरुषों से बातचीत करना क्या बुरा है? वेदान्त की दृष्टि में तो मृत पुरुषों की अपेक्षा जीवित पुरुषों का संसर्ग और भी अच्छा है।


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