योजनाबद्ध जीवन का महत्व

May 1951

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(श्री पूर्णाचन्द जैन, बूँदी)

किसी भी कार्य में यथेष्ट सफलता प्राप्त करने के लिए उसका भली भाँति विचार करके उसके हर अंगों से यथार्थ रूप में अवगत होना अत्यंत आवश्यक है। उसके सब अंगों का अत्यंत सूक्ष्म अन्वेषण करके अपने हानि-लाभ, मार्ग की कठिनाइयाँ, दूसरों द्वारा उत्पन्न व्यर्थ का विरोध, अपनी शक्ति, साधन और योग्यता तथा कार्य की रूप रेखा और क्रम आदि पर भली भाँति गंभीर विचार करके कार्य आरंभ करना चाहिए। नियमित और व्यवस्थित रीति से कार्य आरंभ करने पर 80 अंश सफलता की आशा की जा सकती है। इससे दिन-2 क्रमशः हमारी योग्यता और कुशलता में अभिवृद्धि होती जाती है और हम अपने कार्यों और कर्तव्यों में अनुभवी और निष्णात बनते जाते हैं।

यह निश्चित है कि यदि अपने कर्तव्यों को गंभीर विचार पूर्वक एवं निश्चित क्रिया पद्धति द्वारा किया जाय तो असफलता की संभावना कम हो जायगी। सामान्यतया असफलता तब ही होती है, जब अपने कर्तव्यों को सजगता, विचार और व्यवस्था पूर्वक नहीं किया जाता है। किन्तु, योजनाबद्ध कार्य करने में इन तीनों गुणों और इनके अंतर्गत अन्य सब गुणों का समावेश होता है। अतः इससे प्राप्त महान सफलताओं के आगे किंचित असफलतायें कार्य की उत्तेजक ही होती है, विशेष हानिप्रद नहीं। जीवन विकास के मार्ग की सामान्य असफलतायें हमें अधिक अनुभवी ओर योग्य बनाती हैं। उन्नतिशील जीवन के लिए यह आवश्यक और लाभप्रद भी है क्योंकि यह व्यक्ति को अधिक अनुभवी, कर्तव्यशील और सतर्क बनाती है।

सफल, गम्भीर व मनीषी पुरुषों के जीवनवृत्त पर दृष्टि डालने पर हमें यह तथ्य स्पष्ट लक्षित होता है। वह अपने सब कर्तव्यों की ओर सतर्क रहते हैं और अपने सब कार्य गम्भीर विचार और व्यवस्था पूर्वक करते हैं। उनके जीवन के महान लक्ष्य पहले ही से निर्मित हो जाते हैं। वह अपने लक्ष्य पर केन्द्रित रहते हुए जीवन को नियमित रीति से परिचालित करते हैं। उनके महीनों अथवा वर्षों के कार्यक्रम पहले से ही निर्मित हो जाते हैं और बिना आवश्यक कारण के वह उसका सदैव अनुगमन करते रहते हैं तथा उन्हें सफल बनाने का भरपूर प्रयत्न करते हैं। यह समझना ठीक नहीं कि नियमों के शुष्क और कठोर पाश में आबद्ध रहकर हम जीवन के यथार्थ तथ्य और आनन्द वृति का विकास करने में असमर्थ रहते हैं। हाँ, विलासपूर्ण और अक्रियाशील अनुपादेय जीवन अवश्य दूर रहता है। जीवन में यथार्थ उन्नति प्राप्त करने के हेतु जीवन उद्देश्य और उसकी प्राप्ति के उपायों पर पहले ही से विचार करना आवश्यक है। हमारे जीवन का एक महान् उद्देश्य निर्दिष्ट होना चाहिए। उस महान उद्देश्य की सिद्धि के हेतु समय-समय पर छोटी-बड़ी योजनायें निर्मित करके उन्हें सफल बनाते जाना चाहिए। जिस भाँति मकान बनाने के पूर्व उसका नक्शा बनाना उचित होता है और नक्शे की पूर्णता पर ही मकान की पूर्णता निर्भर होती है, उसी भाँति उससे भी अधिक इसकी आवश्यकता किसी कार्य को ठीक रूप से पूर्ण करने के लिए होती है। किसी भी कर्तव्य को आरंभ करने के पहले यह जानना अत्यन्त आवश्यक है कि वह किस प्रकार आरंभ किया जाय? उसके लिये किन-किन उपकरणों और व्यक्तियों की सहायता अपेक्षित होगी? कौन हमारे विरोधी और सहायक होगे और मार्ग बाधाओं को किस भाँति ठीक किया जायगा?

भगवान् महावीर के सुन्दर जीवन से हम योजना के महत्व को ठीक रूप में हृदयंगम कर सकते हैं। आज से करीब ढाई हजार वर्ष पूर्व भारत में अत्यंत भयंकर स्थिति वर्तमान थी। चारों ओर भयंकर हिंसा, अनाचार, विलासिता और छल-कपट का अंधकार व्याप्त था। मानव में से मानवता का बीज नष्ट हो गया था और वह दानव बन गया था। मानवता का दम घोट देने वाली ऐसी भयंकर स्थिति का अवलोकन कर महामना महावीर की जाग्रत आत्मा विचलित हो गई, उसमें अगाध चिन्तन धारा उत्पन्न हुई और जीवन का एक महान लक्ष्य निर्दिष्ट हुआ। अपने जीवन के महान लक्ष्य को पूर्ण करने के लिए उन्होंने एक योजना निर्मित की और उसे सफल बनाने के प्रयास में लग गये। उन्होंने राज पाट और कुटुम्बियों का त्याग किया, बाहर वर्ष तक अत्यंत कठोर तपस्या की, अनेकों उपसर्ग और बाधाओं को सहन किया एवं बड़े-बड़े विशाल जंगल, पहाड़ और शहरों की खाक छानी। इस भाँति एक सुन्दर योजना द्वारा उन्होंने अपने विचारों को पुष्ट और सबल बना कर भारतीय स्थिति का सुन्दर निर्माण किया। महामना महावीर के प्रभावशाली संगठन और उनके दर्शन में स्थान-स्थान पर सुन्दर योजनाओं अर्थात् व्यवस्थित कार्य पद्धतियों के दर्शन होते हैं।

महात्मा बुद्ध के जीवन में भी योजनाओं का सुन्दर सामंजस्य मिलता है। वह अपने लक्ष्य पूर्ति की किसी भी निर्मित योजना से कभी पीछे नहीं हटते थे। महामना सुकरात ने तो विष का प्याला तक पी लिया था, पर वे अपने कार्यक्रम को स्थगित करने के लिए किसी भाँति तैयार नहीं हुए थे। वे जीवन भर अपने उज्ज्वल लक्ष्य और अपनी निर्मित योजनाओं पर दृढ़ रहे। यद्यपि इसके कारण उन्हें मृत्यु का वरण करना पड़ा, तथापि आज भी संसार उन्हें महान तत्ववेत्ता, ज्ञानी, दृढ़ और सदाचारी महा मानव के रूप में स्मरण करता है। महात्मा ईसा और महामना सबोनारोला भी सदैव अपनी योजनाओं को सफल बनाने में ही संलग्न रहते थे, चाहे भले ही इसके कारण उन्हें अपने अमूल्य जीवनों से ही हाथ धोना पड़ा। कहने का साराँश यह है कि हम किसी भी महापुरुष को लें, सबके जीवन में योजनाओं का सुन्दर सामंजस्य मिलता है। बिना ठीक योजनाओं के वे कभी भी अपने जीवन में सफलता प्राप्त करने में समर्थ नहीं हो सकते थे। अतः यदि हम भी सुफलता प्राप्त करना चाहते हैं-चाहे वह व्यापार, कारीगरी या कोई भी कार्य हो तो हमें अपने महान उद्देश्य के अंतर्गत ठोस योजनाएँ निर्मित करके कार्य आरम्भ करना और उन्हें सफल बनाना चाहिए। जीवन में यथार्थ सफलता, सुख और शाँति प्राप्त करने का यही ठोस मार्ग और उपाय है।

अब योजना निर्माण कार्य पर विचार करना आवश्यक है। व्यक्तिगत जीवन सम्बन्धी योजनाएँ दो प्रकार की होती हैं- (1) आत्म निर्माण सम्बन्धी और (2) जीवन के ‘विशिष्ट’ उद्देश्य की पूर्ति सम्बन्धी। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि जब तक आत्मा का पवित्र और ठोस निर्माण नहीं होता है, तब तक प्रायः जीवन उद्देश्य की ठोस पूर्ति असंभव हैं, यद्यपि कभी-कभी इसके अभाव में भी सफलता हो जाती है, पर वह स्वतः अपने और लोक के लिए अभिशाप मय होती है। सामान्य सफलता की दृष्टि से राम और रावण दोनों सफल और विजेता थे। पर राम की सफलता जहाँ सब के लिए कल्याणकारी और उर्त्कषमयी थी, वहाँ रावण की सबके लिए, विनाशपूर्ण और अधोगतिमय थी। जीवन सिर्फ व्यक्तिगत एवं व्यर्थ की इच्छाओं की पूर्ति के लिए ही नहीं है, अपितु इसका उद्देश्य उत्यन्त महान है और यह स्व-पर कल्याण और उत्कर्ष के लिए है। हमारा उद्देश्य भौतिक और आध्यात्मिक समन्वय के रूप में होना चाहिए। अतः योजना निर्माण के प्रथम हमें अपनी आत्मा का सूक्ष्म अन्वेषण करके अपने व्यक्तित्व की उच्चता, पवित्रता, सदाचारिता और प्रभावशीलता का ज्ञान प्राप्त करना उचित है। यदि आत्म अन्वेषण द्वारा हमें अपने व्यक्तित्व का हीन, निर्बल और विलास पूर्ण आधार विदित हो तो प्रथम आत्म निर्माण कार्य में सफलता प्राप्त करना आवश्यक है। हाँ, जिन लोगों का व्यक्तित्व उच्च, पवित्र, कार्य कुशल और प्रभावशाली है और जो अपने सम्पूर्ण कर्तव्यों को ठीक और सफल रूप में पूर्ण करने में समर्थ है, वह जीवन-उद्देश्य की पूर्ति सम्बन्धी योजना निर्माण कर सकते हैं।

योजना निर्माण कार्य को भली भाँति समझ लेना अत्यंत आवश्यक है। योजना में प्रथम तत्व है- (1) अवधि का निश्चय और (2) उद्देश्य। जब आप इन दोनों को निश्चित कर लेते हैं, तब आपको उद्देश्य और कार्य की गुरुता के अनुकूल उसके सम्बन्ध में कार्य पद्धति का व्यवस्थित निर्माण करना पड़ता हैं। योजना का एक प्रभावशाली अंग है-प्रतिज्ञा। योजना को ठीक रूप में सफल बनाने के हेतु दृढ़ संकल्प किया जाता है। आत्म निर्माण योजना के छः विभिन्न अंग है (1) शारीरिक, (2) मानसिक, (3) आत्मिक, (4) आर्थिक, (5) पारिवारिक और (6) सामाजिक। दैनिक कार्यक्रम, पारिवारिक व्यय पत्रक और पाठ्य कार्यक्रम आदि अन्य सब कार्यक्रमों का इनके अंतर्गत समावेश हो जाता है। इसी भाँति जीवन के विशिष्ट उद्देश्य सम्बन्धी योजना का भी निर्माण किया जा सकता है। हमारे जीवन का विशिष्ट उद्देश्य चाहे राजनीति, व्यापार या कला कौशल आदि कुछ भी हो, पर योजना के ठोस, सबल और महत्वपूर्ण साधन द्वारा हम अपने क्षेत्र में सर्वाधिक सम्पन्न सफल, अग्रणी और प्रभावशाली रहेंगे।

यह ध्यान रखना आवश्यक है कि जीवन की नियमितता, संयम, क्रिया कुशलता और प्रभाव को विकसित करती है। ज्यों-ज्यों हमारे अंतर में इनका विकास होने लगता है, त्यों-त्यों अंतर्दृष्टि सूक्ष्म, गम्भीर और विवेकशील बनती जाती है और सुख, शाँति, समृद्धि और स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त होने लगता है।


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